आज़ादी के बाद भारत को कई उथल-पुथल का सामना करना पड़ा. एक तरफ अर्थव्यवस्था, सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने को नए सिरे से बुनने की जरूरत थी तो दूसरी तरफ कांग्रेस के इतर भी राजनीतिक स्वर तैयार हो रहे थे. लेकिन समग्रता से देखा जाए तो 1975 में लगी इमरजेंसी के दौरान देश में जो विपक्ष तैयार हुआ उसने भारतीय लोकतंत्र को सजीवता दी.
5 जून 2020 को नरेंद्र मोदी सरकार कृषि के क्षेत्र में तीन अध्यादेश लेकर आई जिसका किसानों ने विरोध किया और बीते 6 महीने से भी ज्यादा समय से किसान आंदोलन जारी है.
राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने दिप्रिंट से कहा, ‘मुझे इस बात की खुशी है कि बाकी लोगों को भले ही याद न हो लेकिन किसान आंदोलन के नेताओं ने संपूर्ण क्रांति दिवस पर कार्यक्रम रखा है, जो इस बात को दिखाता है कि ये आंदोलन एक वैचारिक दिशा में बढ़ रहा है.’ उन्होंने कहा कि योगेंद्र यादव का इससे जुड़ना एक अच्छी बात है.
5 जून को ‘संपूर्ण क्रांति दिवस ‘ के तौर पर मनाया जाता है, जिसका ऐतिहासिक तौर पर बहुत महत्व है. संयुक्त किसान मोर्च ने भी अपनी एकजुटता दिखाने के लिए 5 जून को किसानों का आह्वान किया है. ये दो मायनों में महत्वपूर्ण है.
एक तो कृषि अध्यादेश (जो अब कानून बन चुके हैं) को लाए हुए एक साल हो जाएंगे और दूसरा, इसी दिन 1974 में पटना के गांधी मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने ‘संपूर्ण क्रांति ‘ का नारा दिया जो आगे चलकर इतना मजबूत हुआ कि इंदिरा गांधी को अपनी सत्ता तक गंवानी पड़ी.
क्या था ‘संपूर्ण क्रांति ‘ का आह्रान, कैसे इसकी शुरुआत हुई और जयप्रकाश नारायण कैसे पूरे आंदोलन का चेहरा बन गए, दिप्रिंट इस पर नज़र डाल रहा है.
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‘संपूर्ण क्रांति’
साल 1974 में गुजरात में छात्रों ने आंदोलन शुरू किया. गुजरात के एलडी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के छात्रों ने खाद्य कीमतों में वृद्धि और बढ़ती फीस का विरोध करना शुरू किया जो आगे चलकर नवनिर्माण आंदोलन में बदल गया. छात्र नेताओं ने पूरी शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने, महंगाई, असमानता, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी जैसे मुद्दे उठाने शुरू किए. जिसका नतीजा ये हुआ कि 1974 में ही चीनाभाई पटेल की सरकार गिर गई.
भारतीय राजनीतिक परिदृश्य के महत्वपूर्ण लोगों में जयप्रकाश नारायण शामिल थे लेकिन उन्होंने राजनीति छोड़ सामाजिक तौर पर काम करना शुरू कर दिया था जिसमें सर्वोदय और भूदान जैसे आंदोलन शामिल थे.
दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के प्रोफेसर संजीव कुमार ने दिप्रिंट से कहा, ‘जेपी ने भारतीय राजनीति को बदल दिया लेकिन समस्या ये है कि हम उन्हें भूल गए हैं. भारत में लोकतांत्रिक व्यवहार के मजबूत होने में उनका बड़ा योगदान था.’
उन्होंने कहा, ‘गांधी के मूल्यों को आधार मानकर जेपी ने संपूर्ण क्रांति की बात की. इसलिए जेपी ने अपने लिए कभी पद नहीं लिया.’
शिवानंद तिवारी ने कहा, ‘छात्रों ने जेपी से आंदोलन का नेतृत्व संभालने को कहा, जिसपर वो तैयार हो गए.’
18 मार्च 1974 का दिन इस आंदोलन के लिए अहम था जब बिहार छात्र संघर्ष समिति ने अपनी 12 मांगों के साथ विधानसभा का घेराव किया.
लालू प्रसाद यादव अपनी आत्मकथा गोपालगंज टू रायसीना में 5 जून 1974 के उस दिन को याद करते हैं, ‘गांधी मैदान में उस दिन जेपी ने एक बड़ी जनसभा को संबोधित किया. इससे पहले इस मैदान में इतने लोग कभी नहीं आए थे.’
किताब के मुताबिक जेपी ने कहा, ‘यह क्रांति है. हम यहां केवल बिहार विधानसभा भंग करने की मांग के साथ नहीं आए हैं. ये हमारे सफर की पहली कामयाबी होगी. हमें अभी बहुत आगे जाना है. आजादी के 27 सालों बाद भी इस देश के लोग भूखमरी, कीमतों में वृद्धि, भ्रष्टाचार और अन्याय का सामना कर रहे हैं. हम केवल संपूर्ण क्रांति चाहते हैं, उससे कम कुछ भी नहीं.’
शिवानंद तिवारी जो उस समय जेल में थे, 5 जून के उस दिन को याद करते हुए उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘वो एक ऐतिहासिक दिन था. आंदोलनों में अभिव्यक्ति के लिए नए-नए शब्द गढ़ने पड़ते हैं. क्रांति शब्द से उस समय की स्थिति स्पष्ट नहीं हो पा रही थी इसलिए संपूर्ण क्रांति का नारा दिया गया.’
जेपी की बात याद करते हुए तिवारी कहते हैं, ‘जब जेपी से पूछा गया कि संपूर्ण क्रांति क्या है तो उन्होंने कहा कि लोहिया की सप्तक्रांति ही संपूर्ण क्रांति है.’
प्रोफेसर संजीव कुमार ने कहा, ‘जेपी ने चार क्षेत्रों में क्रांति की बात की- राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक. उनका मानना था कि जब इंसान की जिंदगी में पूरी तरह बदलाव होगा तभी उसे क्रांति कहा जा सकता है.’
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जेपी कैसे बने आंदोलन का चेहरा
जयप्रकाश नारायण ने कैसे इतना बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया, इस पर शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘जब ये आंदोलन खड़ा हुआ तब उस समय के परिदृश्य और देश के माहौल को समझना जरूरी है. कई राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं लेकिन कोई ज्यादा समय तक चल नहीं पाई. लोगों के मन में एक निराशा और युवाओं में बैचेनी थी.’
‘इन सब चीजों को जेपी काफी पहले से महसूस कर रहे थे. उनको लग रहा था कि 1971 में इंदिरा गांधी को जो अपार बहुमत मिला, दिल्ली से मुख्यमंत्री तय किए जाने लगे, भ्रष्टाचार बढ़ने लगा, सारी ताकत इंदिरा गांधी ने अपने हाथों में ले ली, इससे चीज़े ठीक तरह से नहीं चल पा रही हैं.’
उन्होंने कहा, ‘लोगों को लगता था कि जेपी आजादी से जुड़े आदमी हैं, सत्ता की लालच नहीं रखते और उन्होंने सर्वोदय के लिए काम किया है. लोगों को उनपर भरोसा था. जेपी के जुड़ने के साथ ही आंदोलन जनआंदोलन में बदल गया.’
8 अप्रैल 1974 को पटना में हुई एक घटना को याद करते हुए तिवारी ने कहा, ‘जेपी के नेतृत्व में पटना में मौन जुलूस निकला. लोग काली पट्टी लगाए हुए थे, हालांकि लोगों की संख्या कम थी लेकिन ऐसा लग रहा था कि पूरा शहर इससे जुड़ गया है.’
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बिहार से आगे जेपी का आंदोलन
बिपिन चंद्रा अपनी किताब इंडिया सिंस इंडिपेंडेंस में लिखते हैं, ‘जेपी ने बिहार से निकलकर आंदोलन को देशव्यापी बनाने और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस और इंदिरा गांधी को घेरने का फैसला किया.’
चंद्रा लिखते हैं, ‘1974 के अंत तक जेपी आंदोलन कमजोर पड़ने लगा. ज्यादातर छात्र अपनी कक्षाओं में लौटने लगे. जिसके बाद इंदिरा गांधी ने जेपी को उनकी लोकप्रियता को देखते हुए उन्हें आगामी चुनावों (1976 का चुनाव) के लिए चुनौती दी. जेपी ने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया और उनकी समर्थक पार्टियों ने नेशनल कॉर्डिनेशन कमिटी बनाने का फैसला किया.’
इसके बाद 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा दी और सभी राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया. 1977 में इमरजेंसी को हटाया गया और देश में जनता दल के नेतृत्व में पहली बार एक गैर-कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ. लेकिन ये सरकार भी आंतरिक कलहों के कारण ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी.
प्रोफेसर कुमार कहते हैं, ‘जेपी ने कभी राजनीति को बुरा नहीं माना. उन्होंने इसे बदलाव का एक हिस्सा माना.’ उन्होंने कहा, ‘स्टेट का सारा संसाधन होने के बाद भी अगर इंदिरा गांधी हारी तो इससे समझना होगा कि जेपी का असर कितना था.’
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‘मोदी सरकार के प्रति निराशा’
स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष योगेंद्र यादव ने बीते दिनों दिप्रिंट में लिखे एक लेख में एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया जिसमें उन्होंने कहा, ‘मोदी का भारत उम्मीद हार चुका है और अब 21वीं सदी के लिए एक जेपी की जरूरत है’. योगेंद्र यादव की बात से शिवानंद तिवारी सहमति जताते हैं.
लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर संजीव कुमार कहते हैं, ‘1970 के दशक और आज के समय में काफी अंतर है. उस समय इंदिरा गांधी अलोकप्रिय हो गईं लेकिन वर्तमान लीडरशिप काफी लोकप्रिय है.’
‘क्रांति की बात तब की जा सकती है जब ‘वैधता का संकट’ होता है. जब नेता पर से लोगों का भरोसा उठ जाता है तब क्रांति होती है. 1970 के समय ऐसी ही बात हुई थी. लेकिन अभी के समय में ऐसी निराशा नहीं दिखती है.’
प्रोफेसर कुमार कहते हैं कि मार्क्सिस्ट विचारक हरबर्ट मार्क्यूस ने कहा था, ‘जब लोगों को ज्यादा सुविधा मिल जाती है, तब धूप में निकलने का स्पिरिट नहीं रह जाता.’
‘जेपी के मूल्य आज भी प्रासंगिक हैं लेकिन अभी सरकार की वैधता पर कोई सवाल नहीं खड़े कर रहा है. लोगों में निराशा है लेकिन सिर्फ निराशा के साथ क्रांति नहीं होती. इसके लिए स्पिरिट की जरूरत होती है, जो कि अभी लोगों में नहीं दिख रही है.’
कोरोना महामारी ने भारत को बुरी तरह प्रभावित किया है. जिसने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर कई मुश्किलात पैदा किए हैं. केंद्र की मोदी सरकार को भी चुनौतीयों का सामना करना पड़ा रहा है.
सी-वोटर इंटरनेशनल के संस्थापक निदेशक यशवंत देशमुख ने कहा है कि इस दौर में 80 प्रतिशत भारतीय हताशा में हैं. हाल ही में आए जीडीपी के आंकड़ों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि अर्थव्यवस्था भी बुरी स्थिति में है और कोविड की दूसरी लहर उसे और भी प्रभावित कर सकती है.
ऐसे में जब मोदी सरकार के प्रति लोगों के मन में निराशा बढ़ रही है, किसान सड़कों पर हैं, बेरोजगारी चरम पर है, तो उस दौर को याद करना जरूरी हो जाता है जब कमोबेश यही स्थिति थी जिसके कारण गुजरात और बिहार में छात्रों ने लंबा संघर्ष किया था.
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