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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतभावना या सबूत - राष्ट्रीय आर्काइव्ज के लिए रोने वाले उदारवादियों को हिंदुत्व का इतिहास नहीं मिलता

भावना या सबूत – राष्ट्रीय आर्काइव्ज के लिए रोने वाले उदारवादियों को हिंदुत्व का इतिहास नहीं मिलता

हिंदुत्ववादी इतिहास की उदारवादी आलोचना एक विचित्र उत्पीड़न भाव से ग्रस्त है. उनकी बौद्धिक शिथिलता उन्हें भारत के सर्व-समावेशी अतीत की परिष्कृत एवं रचनात्मक कल्पना के साथ हिंदुत्व का जवाब देने से रोक देती है. वे हमेशा भारत के बारे में प्राचीन विचार का सहारा लेते हैं.

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एक पेशेवर इतिहासकार होने के नाते मैं भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार के भविष्य के लिए गंभीर रूप से चिंतित हूं, खासकर इसकी एनेक्सी बिल्डिंग को तोड़े जाने के प्रस्ताव के कारण. इस एनेक्सी भवन में कई मूल्यवान ऐतिहासिक दस्तावेज़ रखे हुए हैं जिनका संरक्षण बेहद जरूरी है. लेकिन मैं अपने कुछ साथी इतिहासकारों द्वारा इस मामले में पेश किए जा रहे राजनीतिक आकलन का समर्थन नहीं करता.

यह तर्क पूरी तरह बेमानी भी नहीं है कि भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार की पुनर्रचना एक रणनीतिक कदम है जिसका मकसद राष्ट्रवाद की मिथक-आधारित राजनीति को तरजीह देने के लिए प्रमाण-आधारित इतिहास के साधन को खंडित करना है. लेकिन यह अति सरलीकरण है और राजनीतिक रूप से उलटा नतीजा देने वाला है. यह तर्क पुराने सेकुलर इतिहास/ सांप्रदायिक राजनीति के मेल से उभरता है जिसका जन्म 1990 के दशक में हुआ और जिसके चलते बाबरी मस्जिद विध्वंस समेत कई राजनीतिक हादसे हुए.

आज 2021 में, वे पुराना नजरिया और पुरानी चिंताएं उदारवादी इतिहासकारों का मकसद नहीं पूरा करेंगी, खासकर इसलिए कि इतिहास का पाठ अब अलग तरह की पद्धति और रास्ते पर रचा जा रहा है. नेहरूवादी इतिहासकारों को अब उस तरफ लौटना होगा कि नेहरू खुद इतिहास को किस नजरिए से देखते थे.

हिंदुत्ववादी मंसूबे और इतिहास के स्रोत

हिंदुत्ववादी राजनीति का खासकर आज जो स्वरूप है उसने सभी तरह के आलोचनात्मक चिंतन और ज्ञान को गंभीर चुनौती दे दी है. यह भारत के अतीत की एक नयी कल्पना प्रस्तुत करती है, जो न केवल भारतीय इतिहास के सेकुलर संस्करण को खारिज करती है बल्कि ऐतिहासिक प्रमाणों और स्रोतों के अलग ही अर्थ प्रस्तुत करती है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुताबिक, ‘भारतीय इतिहास वह नहीं है जो हम परीक्षाओं के पहले पढ़ते हैं. इतिहासकार यह नहीं देख सके कि समाज किस तरह प्रतिक्रिया कर रहा है. इसका परिणाम यह हुआ कि इतिहास की कई चीजों को छोड़ दिया गया. किसी भी देश की आत्मा का प्रतिनिधित्व वहां के लोगों की भावनाएं करती हैं. राजनीतिक और सैन्य ताकत अस्थायी होती है लेकिन कला और संस्कृति के माध्यम से अभिव्यक्त जन भावनाएं स्थायी होती हैं. इसलिए, हमारे समृद्ध इतिहास का संरक्षण. बहुत महत्वपूर्ण है हरेक भारतीय के लिए.’

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एक भौगोलिक सीमा में बसे लोगों की भावनाओं और भावुकताओं को प्रमाण-आधारित इतिहास के बरअक्स रखा जा रहा है. सिर्फ हिंदू उत्पीड़न पर बार-बार ज़ोर देने के लिए धारणाओं को प्रमाण/ स्रोत के ऊपर तरजीह दी जाती है. हिंदुत्ववादी राजनीति ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले में दरअसल इसी तर्क को अपनाया.

इसका मतलब यह नहीं है कि हिंदुत्ववाद प्रमाण-आधारित तर्कों को गढ़ने में दिलचस्पी नहीं रखता. हिंदुत्व समर्थक बुद्धिजीवी आश्चर्यजनक रूप से इस बात पर ज़ोर देते हैं कि स्रोतों/प्रमाणों को विज्ञानसम्मत ठोस तथ्यों के रूप में देखा जाना चाहिए. उनके अनुसार, इतिहास का मकसद अतीत का निष्पक्ष, मूल्य मुक्त विवरण प्रस्तुत करना है. यह विज्ञानसम्मत स्वरूप धारणा-आधारित स्थापनाओं के साथ दिलचस्प रूप से मेल बैठा लेता है. देखिए कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) ने किस तरह दो दशक पहले अयोध्या में और एक बार फिर वाराणसी में काशी-ज्ञानवापी में उत्खनन का आदेश जारी किया. हिंदुत्व केवल भावनाओं पर निर्भर नहीं रहना चाहता बल्कि उन भावनाओं को आधार प्रदान करने वाले ठोस प्रमाणों को भी खोज निकालना चाहता है.

हाल के वर्षों में हिंदुत्ववादी दृष्टिकोण से अलग इतिहास लिखने की कई कोशिशें की गई हैं. लेकिन इन इतिहासों को किसी तरह से प्रामाणिक ऐतिहासिक विवरण के तौर पर नहीं प्रस्तुत किया जाता है. ये आख्यान मुख्यतः अलग तरह के तथ्य-प्रेमियों या तटस्थ अंग्रेजीभाषी मध्यवर्गीय जनता के लिए तैयार किए जाते हैं. यहां प्रयासों का दिलचस्प विभाजन किया जाता है. भावुकता पर आधारित आक्रामक हिंदुत्व व्यापक उपभोग के लिए है, जो उस जमात को खुराक देता है जिसे हम मज़ाक में ‘व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी’ कहते हैं. तथाकथित तटस्थ ‘विज्ञानसम्मत निष्पक्षता वाला’ इतिहास ‘बैकअप’ तैयार करने के लिए लिखा जाता है, हिंदुत्व के औचित्य को साबित करने वाले तर्क के रूप में, ताकि आलोचनात्मक जिरह के विचार को बदनाम किया जा सके.


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मोदी, या कहें कि भाजपा के दूसरे नेता भी ऐतिहासिक शुद्धता की परवाह नहीं करते; वे जनमानस पर छा जाने की ज्यादा परवाह करते हैं. वे अक्सर तथ्यात्मक रूप से गलत बयान देते हैं (मसलन मोदी का यह दावा कि बांग्लादेश युद्ध के दौरान वे जेल में बंद किए गए थे, या यह कि सिकंदर और पोरस की लड़ाई बिहार में हुई थी). संजीव सान्याल, चेतन भगत, मधु कीश्वर या सुरजीत भल्ला जैसे सरकार समर्थक लेखक, जो हमेशा हमें तथ्यपरक और निष्पक्ष होने के लिए कहते हैं, इस तरह के बयानों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं करते हैं. उनकी सोची-समझी चुप्पी वास्तव में भारत के एक नये, निश्चित और स्थायी इतिहास के आविष्कार के व्यापक राजनीतिक मकसद को पुष्ट करती है. यह स्थायी इतिहास चलती-फिरती, बार-बार दोहराई गईं कथाओं पर आधारित हो, और इन कथाओं को अंततः ‘वैज्ञानिक सत्य’ मान लिया जाए.

स्रोत के लिए आग्रह बनाम आलोचनात्मक नज़रिया

हिंदुत्व के विरोधी, खासकर वे जो खुद को उदारवादी बताते हैं, हिंदुत्ववादी इतिहास के क्रियात्मक तंत्र को समझने में विफल रहे हैं. वे हिंदुत्ववादी मकसद को पूरी तरह अतार्किक, इतिहास-निरपेक्ष और अवैज्ञानिक मानते हैं. यह धारणा बनाई जाती है कि ऐतिहासिक रेकॉर्ड अपने आप में स्पष्ट हैं; इसलिए इन स्रोतों को नष्ट करने या स्थानांतरित करने का अर्थ होगा ऐतिहासिक ज्ञान को नष्ट करना. इस आधार पर, हिंदुत्व का खंडन करने के लिए इतिहास के नेहरूवादी मकसद को भारत के अतीत का सबसे निष्पक्ष प्रमाण-आधारित संस्करण माना जाता है.

उदारवादी समीक्षा समस्यामूलक है. ऐतिहासिक दस्तावेज़ अपनी कोई वकालत नहीं करते. वे स्रोत तभी बनते हैं जब इतिहास की रूपरेखा उपलब्ध कराई जाती है. नेहरू इस बारे में बहुत साफ-सुलझे हुए थे. 1949 में जब स्वतंत्रता आंदोलन का प्रामाणिक और विस्तृत इतिहास लिखने का सवाल खड़ा हुआ तब उन्होंने लिखा था, ‘सब कुछ इस पर निर्भर है कि यह काम किसे सौंपा जाएगा. इसके लिए कम-से-कम दो विशेषताएं चाहिए. एक तो यह कि जो कुछ घटित हुआ है उसके बारे में भावनात्मक और बौद्धिक समझ हो; दूसरी, बेहद उच्च स्तर की लेखन क्षमता हो. मुझे लगता है कि पहला काम तो सामग्री जुटाना है.’ (फाइल नं. 40(60)/49-पीएमएस तारीख 26 फरवरी 1949). नेहरू ने मौलाना आज़ाद को लिखा, ‘मैं अपने महान संघर्ष की याद में दोयम दर्जे या घटिया किस्म का काम नहीं चाहता. न ही मैं प्रशंसात्मक विवरण या महज घटनाओं का रेकॉर्ड चाहता हूं. आलोचनात्मक दृष्टि का प्रयोग होना चाहिए और चीजों को उनके परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए. इसका मतलब है कि पिछली दो पीढ़ियों और खासकर पिछले 30 साल के दौर की सभी राष्ट्रीय गतिविधियों का सर्वे हो. यह संकलन राष्ट्रीय संग्रहलाय का केंद्र बने.’ (शिक्षा मंत्री को भेजा गया नोट, 26 फरवरी 1949).

साफ है कि कई नेहरुवादियों के विपरीत नेहरू भावनाओं की कीमत पर स्रोतों को तरजीह देने के आग्रही नहीं थे. उनके लिए ऐतिहासिक कल्पना अगर स्रोतों की उपलब्धता जितनी नहीं, तो उससे ज्यादा महत्वपूर्ण थी. शायद यही वजह थी कि वे अहमदनगर जेल में बंद रहते हुए अपनी किताब ‘भारत की खोज’ लिख सके.

हिंदुत्ववादी इतिहास की उदारवादी आलोचना एक विचित्र उत्पीड़न भाव से ग्रस्त है. उनकी बौद्धिक शिथिलता उन्हें भारत के सर्व-समावेशी अतीत की परिष्कृत एवं रचनात्मक कल्पना के साथ हिंदुत्व का जवाब देने से रोक देती है. वे हमेशा भारत के बारे में उस प्राचीन विचार का सहारा लेते हैं जिसे नेहरू, गांधी, और आंबेडकर ने 70 साल पहले नये भारत की हिंदुत्ववादी कल्पना का जवाब देने के लिए प्रस्तुत किया था.

हमें भारत के बारे में नेहरू के विचारों की आज जरूरत नहीं है. लेकिन हमें उनकी आशावादिता, उनकी इतिहास सम्मत प्रणाली, और सबको साथ लेकर चलने वाली राजनीति से उनके लगाव की वास्तव में जरूरत है.

(लेखक सीएसडीएस, नई दिल्ली में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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