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Tuesday, 5 November, 2024
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ज्ञानवापी से कुतुब मीनार तक: 1958 का ये कानून है ASI का बचाव और हिंदू सेना का हथियार

इसी कानून के सहारे एएसआई ने दावा किया कि कुतुब मीनार परिसर में किसी को उपासना का अधिकार नहीं है. हिंदू सेना ने उपासना स्थल अधिनियम के विरोध के लिए इसी का इस्तेमाल किया. दिप्रिंट समझाता है कि दोनों मामलों में इस कानून की क्या भूमिका है.

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नई दिल्ली: इसी सप्ताह भारतीय पुरातत्व विभाग (एएसआई) ने दिल्ली की एक अदालत से कहा कि केंद्रीय संरक्षण के स्मारक में किसी को उपासना का अधिकार नहीं हो सकता. अदालत एक याचिका की सुनवाई कर रही थी जिसमें हिंदू और जैन देवी-देवताओं को कुतुब मीनार में फिर से स्थापित कराने की गुज़ारिश की गई थी, जो राष्ट्रीय राजधानी के सबसे प्रतिष्ठित स्मारकों में से एक है.

अपने हलफनामे में एएसआई ने प्राचीन स्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 का सहारा लिया.

ये एक्ट हाल ही में न सिर्फ कुतुब मीनार मामले को लेकर खबरों में रहा है, बल्कि ज्ञानवापी मस्जिद से जुड़े टाइटिल सूट के कारण भी चर्चा में है, जिसकी फिलहाल वाराणसी की एक अदालत सुनवाई कर रही है.

एक ओर हिंदू सेना ने- ज्ञानवापी मामले में सुप्रीम कोर्ट में एक हस्तक्षेप आवेदन में इस कानून का इस्तेमाल करते हुए उपासना स्‍थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 का विरोध किया, जिसमें किसी उपासना स्थल के उस ‘धार्मिक चरित्र’ को संरक्षित रखने की बात कही गई है जैसा कि 15 अगस्त 1947 के दिन था.

दूसरी ओर, एएसआई ने कुतुब मीनार केस में इस कानून का सहारा लेते हुए दावा किया है कि इस कानून के संरक्षण के दायरे में आने के साथ ही मस्जिद का चरित्र स्थिर हो गया था.

प्राचीन संस्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 को राष्ट्रीय महत्व के प्राचीन स्मारकों तथा ऐसे पुरातात्विक स्थलों और अवशेषों से डील करने के लिए एक समाहित कानून के तौर पर लाया गया था, जिन्हें राष्ट्रीय महत्व का घोषित नहीं किया गया है.

ये कानून भारत की स्थापत्य और ऐतिहासिक विरासत को बचाए रखने की एक शताब्दी से भी पहले की इच्छा की उपज है.


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161 वर्ष पुरानी इच्छा

भारत में स्मारकों के सर्वेक्षण के प्रयास 1784 में शुरू हो गए थे, जिनके नतीजे में 161 साल पहले 1861 में एएसआई की स्थापना हुई थी.

पहला प्रमुख कानूनी सुधार प्राचीन संस्‍मारक परिरक्षण अधिनियम,1904 के रूप में सामने आया जिसे प्राचीन स्मारकों और पुरातात्विक, ऐतिहासिक या कलात्मक रूचि की वस्तुओं के संरक्षण के लिए बनाया गया था. इसके तहत केंद्र सरकार किसी भी प्राचीन स्मारक को संरक्षित घोषित कर सकती थी.

ये वही कानून था जिसके अंतर्गत कुतुब परिसर को 16 जनवरी 1914 को एक संरक्षित स्मारक अधिसूचित किया गया. अधिसूचना के मुताबिक, जिसकी एक प्रति दिल्ली की अदालत में दायर की गई, उसमें पूरा ‘कुतुब पुरातात्विक क्षेत्र आता है…जिसमें मस्जिद भी शामिल है’.

आज़ादी के बाद, संसद ने प्राचीन तथा ऐतिहासिक संस्मारक और पुरातात्विक स्थल तथा अवशेष (राष्ट्रीय महत्व की घोषणा) अधिनियम, 1951 को पारित कर दिया, जिसके तहत कुछ स्मारकों को राष्ट्रीय महत्व का घोषित कर दिया गया.

लेकिन, उस समय देखा गया कि चूंकि ये कानून केवल राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों से वास्ता रखता है, इसलिए दूसरे स्मारकों के संरक्षण की स्थिति स्पष्ट नहीं थी, क्योंकि उस समय किसी भी संसदीय कानून में उनके बारे में बात नहीं की गई थी.

उसके बाद आया प्राचीन संस्‍मारक तथा पुरातत्‍वीय स्‍थल और अवशेष (एएमएएसआर) अधिनियम, 1958.


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क्या कहता है कानून

1958 के कानून के अनुसार, कोई भी ढांचा, स्मारक, गुफा, चट्टान, प्रतिमा, शिलालेख या ऐतिहासिक, पुरातात्विक अथवा कलात्मक रूचि का पत्थर का खंभा जो कम से कम 100 से मौजूद रहा है, वो एक ‘प्राचीन स्मारक’ है.

ये कानून केंद्र सरकार को किसी भी प्राचीन स्मारक को ‘राष्ट्रीय महत्व’ का दर्जा देने की इजाज़त देता है.

1904 के अधिनियम के तहत संरक्षित घोषित किए गए सभी स्मारक- जैसा कि कुतुब मीनार- 1958 के कानून के दायरे में आते हैं.

कानून की धारा 16 कहती है कि कोई भी संरक्षित स्मारक जो उपासना स्थल या तीर्थ स्थान है, उसे उसके चरित्र के खिलाफ जाकर किसी दूसरे उद्देश्य के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.

1958 के कानून की धारा 20ए के तहत ऐसा क्षेत्र ‘संरक्षित क्षेत्र या संरक्षित स्मारक की सीमा की शुरुआत से लेकर, सभी दिशाओं में 100 मीटर की दूरी तक’ एक प्रतिबंधित क्षेत्र माना जाएगा.

पुरातत्व अधिकारी ही एक मात्र अथॉरिटी है जो कोई निर्माण करा सकता है. इस शक्ति का इस्तेमाल आमतौर से स्मारक परिसर में सार्वजनिक सुविधाएं बनाने के लिए किया जाता है, जैसे म्यूज़ियम, टिकट स्टॉल और शौचालय आदि.

धारा 20बी कहती है कि प्रतिबंधित ज़ोन के 200 मीटर से आगे का क्षेत्र- जो 100 से 300 मीटर तक होता है- एक ‘विनियमित’ क्षेत्र होगा. विनियमित क्षेत्रों में किसी भी प्रकार की निर्माण गतिविधि को अंजाम देने के लिए अनुमति लेनी होती है.

2010 में एक संशोधन के ज़रिए, एक्ट में नेशनल म्यूज़ियम अथॉरिटी के गठन का भी प्रावधान है, जिसपर केंद्रीय संरक्षण के स्मारकों के प्रतिबंधित और विनियमित क्षेत्रों में इन प्रावधानों को लागू कराने का ज़िम्मा होता है.

एएसआई के लिए, जो संस्कृति विभाग के अंतर्गत आता है, 1958 के कानून के तहत लाज़िमी है कि वो एक्ट के प्रावधानों के तहत ‘देश में सभी पुरातात्विक गतिविधियों’ का विनियमन करेगा.

वो पुरातात्विक शोध करता है और उसके ऊपर भारत की सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण, तथा प्राचीन स्मारकों, पुरातात्विक स्थलों और राष्ट्रीय महत्व के अवशेषों के रख-रखाव का भी ज़िम्मा होता है. स्मारकों की सुरक्षा तथा अतिक्रमण को दूर रखने का काम भी उसी के ज़िम्मे होता है.


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एएसआई का बचाव और हिंदू सेना का हथियार

एएसआई ने 1958 के कानून की धाराओं 20ए और 20बी का दिल्ली की साकेत कोर्ट में हवाला दिया है, जो एक अपील की सुनवाई कर रही है जिसमें दिसंबर 2021 के उस आदेश को चुनौती दी गई है, जिसके तहत कुतुब मीनार परिसर में हिंदू तथा जैन देवी-देवताओं को फिर से स्थापित करने की मांग करने वाली याचिका को खारिज कर दिया गया था.

कोर्ट में दाखिल एएसआई के हलफनामे में लिखा है: ‘कानून की मंशा साफ है कि स्मारक को उसकी मूल अवस्था में भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित और संरक्षित किया जाना चाहिए. इसलिए मौजूदा ढांचे में किसी भी तरह का बदलाव करना एएमएएसआर एक्ट, 1958 का स्पष्ट उल्लंघन होगा, जिसकी अनुमति नहीं दी जानी चाहिए’.

ये कानून ज्ञानवापी मामले में फिर सामने आया, जब मस्जिद की प्रबंधन कमेटी ने मस्जिद का सर्वे कराए जाने के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया. एक हिंदुत्व संगठन हिंदू सेना के अध्यक्ष ने सुप्रीम कोर्ट में 1958 के कानून का हवाला दिया और उपासना स्‍थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 से छूट दिए जाने का दावा किया.

मस्जिद प्रबंधन समिति ने सर्वे की वैधता को चुनौती देते हुए 1991 के एक्ट का सहारा लिया क्योंकि इस कानून में चर्चों, मस्जिदों और मस्जिदों जैसे उपासना स्थलों के चरित्र को बदलने पर प्रतिबंध लगाया गया है, जो उनका आज़ादी के समय था.

अपने जवाब में हिंदू सेना ने 1991 अधिनियम की धारा 4(3) का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि ये कानून किसी ऐसे उपासना स्थल पर लागू नहीं होगा… जो कोई प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक है या कोई पुरातत्वीय स्थल अथवा अवशेष हैं जो प्राचीन संस्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम 1958 के अंतर्गत आते हैं’.

तर्क ये दिया गया है कि चूंकि पहले का काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद के परिसर में स्थित श्रंगार गौरी मंदिर 1958 के कानून ते दायरे में आते हैं, इसलिए उन पर 1991 का कानून लागू नहीं होगा.


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अदालतों ने क्या कहा है

2007 में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने इसी तरह के एक सवाल पर विचार किया था, जिसमें कुछ ईसाइयों ने अदालत से अनुरोध किया था कि उन्हें शिमला के एक प्राचीन चर्च, ‘ऑल सेंट्स चर्च’ में इबादत की इजाज़त दी जाए.

वो चर्च भारतीय उन्नत अध्ययन संस्थान के परिसर के भीतर मौजूद है, जिसे पहले वाइस रीगल लॉज कहा जाता था.

मई 1997 में इस लॉज को एक संरक्षित प्राचीन स्मारक घोषित कर दिया गया था.

अपने फैसले में हाई कोर्ट ने धारा 4(3) की व्याख्या करते हुए उसका ये मतलब निकाला कि 1991 का कानून किसी ढांचे को एक प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक घोषित किए जाने से नहीं रोक सकता.

उनकी व्याख्या में ये भी कहा गया कि संबंधित चर्च आज़ादी के बाद से इस्तेमाल में नहीं था और अदालत ने आदेश दिया कि एक बार यदि कोई स्मारक संरक्षित घोषित हो जाए और सरकारी स्वामित्व में आ जाए, तो फिर कोई समूह ये ज़ोर नहीं दे सकता कि उपासना स्थल को वास्तव में सक्रिय रूप से धार्मिक सेवाओं के लिए इस्तेमाल किया जाए’.

सिविल जज नेहा शर्मा ने- जिन्होंने पहले पिछले साल दिसंबर में कुतुब परिसर में देवी-देवताओं को फिर से स्थापित किए जाने से संबंधित याचिका को खारिज किया था- 1991अधिनियम की धारा 4(3) के तहत दिए गए अपवाद का भी संज्ञान लिया था.

लेकिन, उन्होंने फैसला दिया था कि ऐसे प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक को किसी ऐसे उद्देश्य के लिए इस्तेमाल में नहीं लाया जा सकता, जो धार्मिक उपासना स्थल की उसकी नेचर के विरुद्ध हो लेकिन उसे किसी दूसरे उद्देश्य के लिए जरूर इस्तेमाल किया जा सकता है, जो उसके चरित्र के अनुरूप हो’.

जज ने कहा, ‘मेरी सुविचारित राय में एक बार यदि कोई स्मारक एक संरक्षित स्मारक घोषित हो जाए और सरकार के स्वामित्व में आ जाए, तो फिर वादी ये ज़ोर नहीं दे सकते कि उपासना स्थल का वास्तव में और सक्रियता के साथ, धार्मिक सेवाओं के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए’.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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