जयपुर: अंकित कुमार का घर जयपुर-सांभर हाईवे से महज़ सौ मीटर की दूरी पर है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह क्षेत्र की सबसे बेशकीमती ज़मीन है.
पिछले अगस्त में 30-वर्षीय कुमार को उनके स्मार्टफोन पर एक प्राइवेट बैंक से कॉल आया. उन्हें खेती के लिए प्लास्टिक से ढके हुए ‘पॉलीहाउस’ स्थापित करने के लिए कर्ज़ देने की पेशकश की गई, लेकिन उनके चेहरे की मुस्कान जितनी तेज़ी से आई उतनी ही तेज़ी से गायब भी हो गई. यह जानने पर कि कुमार ग्रामदान गांव में रहते हैं, बैंक अधिकारी ने प्रस्ताव तुरंत वापस ले लिया. जयपुर से 35 किमी दूर जोबनेर तहसील की खेजड़ावास पंचायत के तहत आने वाले कुमार जैसे गांवों में ज़मीन का स्वामित्व व्यक्तियों के पास नहीं है. यह सामुदायिक संपत्ति है जिसकी देखरेख ग्राम सभा या ग्राम परिषद करती है.
1950 के दशक में विनोबा भावे के नेतृत्व में ग्रामदान (पूरे गांव के लाभ के लिए ज़मीन दान) के माध्यम से एक महत्वाकांक्षी सामाजिक क्रांति शुरू हुई, जो वर्तमान में ग्रामीणों के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं है. राजस्थान में 200 से अधिक ग्रामदान गांव हैं और यह प्रणाली 21वीं सदी की आर्थिक आकांक्षा और विकास की राह में एक बड़ी बाधा बनकर उभरी है.
कुमार ने कहा, “मुझे पॉलीहाउस स्थापित करने के लिए आधे से अधिक धनराशि सरकारी सब्सिडी के जरिए मिली, लेकिन बाकी के लिए कर्ज़ की ज़रूरत थी. इसे अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि ज़मीन के दस्तावेज़ मेरे नाम पर नहीं थे. मुझे कर्ज़ नहीं मिला, क्योंकि मैं ग्रामदान गांव में रहता हूं.”
विनोभा भावे 15 फरवरी 1959 को अपनी पदयात्रा के लिए राजस्थान आए थे, जिसका लक्ष्य अमीर ज़मींदारों को भूमिहीन ग्रामीणों के उपयोग के लिए उनकी अधिशेष ज़मीन में से कुछ को ग्राम सभा को दान करने के लिए राज़ी करना था. 76-दिवसीय यात्रा के अंत तक, उन्हें 171 गांवों से ज़मीन दान मिले और इस ज़मीन पर व्यक्तिगत स्वामित्व समाप्त हो गया.
उस यात्रा के दौरान जो कुछ हुआ वो आज भी अंकित कुमार को परेशान करता है — क्योंकि ज़मीन उनके नाम पर नहीं है, भले ही उनका परिवार दशकों से वहां रह रहा है और उस पर खेती कर रहा है.
कुमार ने अपना पॉलीहाउस बनाया है, जहां वे अब खीरे उगा रहे हैं, लेकिन ऐसा करने के लिए उन्हें बैंकों द्वारा दी जाने वाली ब्याज दर से लगभग दोगुनी ब्याज दर पर निजी साहूकारों से पैसा उधार लेने के लिए मजबूर होना पड़ा.
कुमार जैसे लोग भूमिहीन नहीं हैं, लेकिन उनके नाम पर ज़मीन का एक भी टुकड़ा नहीं है. भारत में 3,600 से अधिक गांव अभी भी ग्रामदान प्रणाली के तहत काम करते हैं.
राजस्थान में ग्रामदान बनने वाला आखिरी गांव 2003 में जैसलमेर जिले का भैरवा था. अब, लोग इस प्रणाली से बाहर निकलने के रास्ते तलाश रहे हैं.
मूल ग्रामदान पीढ़ी या तो चली गई है या मशाल उठाने के लिए बहुत बूढ़ी हो गई है और युवाओं ने कभी भी इसके प्रति रुचि नहीं दिखाई. जैसे-जैसे समय बदला, दरारें दिखाई देने लगीं.
राजस्थान मे ग्रामदान के लेखक और ग्रामीण विकास पर केंद्रित जयपुर स्थित गैर सरकारी संगठन कुमारप्पा ग्राम स्वराज संस्थान के निदेशक अवध प्रसाद ने कहा, “ग्रामदान का काम धीरे-धीरे शिथिल हो गया और लोगों को समस्याओं का सामना करना पड़ा. ग्रामदान संस्थाओं और उससे जुड़े लोगों ने ठीक से काम नहीं किया. अब लोग इस कानून को खत्म करना चाहते हैं ताकि ज़मीन का स्वामित्व व्यक्तिगत हो सके.ग्रामदान एक भावनात्मक कार्य है और अब बदलती भावनाओं के कारण यह विचार लुप्त होता जा रहा है.”
विनोबा भावे की समाजवादी क्रांति राजस्थान में ग्रामदान की वर्तमान पीढ़ी के लिए गले की फांस बन गई है और आज़ाद होने के लिए, कुछ गांवों ने संघर्ष समितियां भी बनाई हैं.
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‘ग्रामदान ने विकास की संभावनाएं रोकीं’
ग्रामदान आंदोलन का एक प्रसिद्ध नारा विनोबा भावे के दर्शन को दर्शाता है: “सबै भूमि गोपाल की, नहीं किसी की मालिकी”. ज़मीन के निजी स्वामित्व का विरोध करने वाले गांधीवादी सुधारक ग्रामदान को परमाणु ऊर्जा से अधिक शक्तिशाली मानते थे. उन्होंने कहा, “जहां एक परमाणु विस्फोट दुनिया के पर्यावरण को प्रदूषित करता है, वहीं एक ग्रामदान दुनिया के पर्यावरण को शुद्ध करता है.” यह अवधारणा क्रांतिकारी, परिवर्तनकारी लग रही थी, यहां तक कि अमेरिकी पत्रकार लुईस फिशर ने भी स्पष्ट रूप से देखा कि ग्रामदान “हाल के दिनों में पूर्व से आने वाला सबसे रचनात्मक विचार” था.
यह सब 1951 में विनोबा के भूदान आंदोलन के साथ शुरू हुआ, जिसमें भूस्वामियों को भूमिहीनों को अपनी कुछ ज़मीन “उपहार” में देने के लिए राज़ी किया गया और फिर ग्रामदान को शामिल करने के लिए इसका दायरा बढ़ गया, जहां पूरे गांवों ने सामूहिक स्वामित्व के लिए ज़मीन दान की. इस उद्देश्य के लिए विनोबा ने 14 साल तक देश के विभिन्न राज्यों और यहां तक कि पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में पैदल यात्रा की.
इस आंदोलन को भूमि सुधार क्रांति के रूप में सराहा गया. कई राज्यों ने ज़मीन के दान और वितरण की सुविधा के लिए भूदान और ग्रामदान अधिनियम भी पेश किए, जिनमें राजस्थान, महाराष्ट्र, बिहार, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और असम शामिल हैं. अधिकांश ग्रामदान कानूनों के तहत 75 प्रतिशत भूस्वामियों को अपनी ज़मीन का कम से कम 60 प्रतिशत आत्मसमर्पण करना होगा. हालांकि, राजस्थान में 51 प्रतिशत ज़मीन मालिक अपनी ज़मीन दान करते हैं. दानदाताओं और उनके वंशजों के पास ज़मीन पर खेती करने का अधिकार बरकरार है, लेकिन इसे गांव के बाहर बेचना प्रतिबंधित है.
पहले हम ग्रामदान को बहुत पवित्र चीज़ मानते थे, लेकिन हम ज़मीन का व्यावसायिक उपयोग नहीं कर सकते और खेती भी पहले जैसी नहीं रही. हमें भी विकास की धारा से जुड़ना है, लेकिन ग्रामदान ने इन संभावनाओं को अवरुद्ध कर दिया है.
—राजेंद्र कुमार, खेजड़ावास के 28-वर्षीय किसान
लेकिन आंदोलन के हमेशा मुखर आलोचक रहे, जैसे किसान नेता चौधरी चरण सिंह और एनजी रंगा. रंगा ने विशेष रूप से इसकी जोरदार निंदा की, यह तर्क देते हुए कि इससे ज़मीन का जबरन सामूहिकीकरण होगा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता कमज़ोर होगी.
वर्षों से कार्यकर्ताओं ने यह भी आरोप लगाया है कि सरकारें विकास परियोजनाओं के लिए भूदान ज़मीन का उपयोग कर रही हैं और शक्तिशाली लोग इस संपत्ति को हासिल करने के लिए भ्रष्ट अधिकारियों के साथ मिलीभगत करते हैं. इन चिंताओं के बावजूद, भूदान और ग्रामदान अधिनियम कई राज्यों में लागू हैं, हालांकि असम, जिसमें 312 ग्रामदान गांव थे, ने अतिक्रमण और अवैध हस्तांतरण से निपटने के लिए 2022 में अपना कानून रद्द कर दिया.
अब राजस्थान में ग्रामीणों की ओर से ही विरोध की सुगबुगाहट तेज़ हो रही है. विनोबा का समाजवाद प्रयोग ग्रामदान की वर्तमान पीढ़ी के लिए गले की फांस बन गया है और मुक्त होने के लिए कुछ गांवों ने संघर्ष समितियां भी बनाई हैं.
ऐसी एक समिति 2022 में जयपुर जिले की जोबनेर तहसील में और दूसरी इस जनवरी में डूंगरपुर में आई.
जोबनेर के सभी 10 ग्रामदान गांव — खेजड़ावास पंचायत में छह और आयदान का बास में चार — 1955 और 1965 के बीच इस प्रणाली के तहत आए और सभी बाहर जाना चाहते हैं.
खेजड़ावास ग्रामदान के 75-वर्षीय अध्यक्ष जीवन राम याद करते हैं कि 1960 में जब विनोबा भावे आए थे तब वे केवल 12 या 13 साल के थे. उन्होंने बताया, “विनोबा जी ने गांव में एक बैठक की और लोगों को ग्रामदान के फायदे समझाए. ग्रामीणों ने उनकी बातें मान लीं और शामिल हो गए. उस समय यह अच्छी बात थी, लेकिन बढ़ती आकांक्षाओं ने नई पीढ़ी का इससे मोहभंग कर दिया है.”
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उच्च आदर्शों से मुक्ति
लगभग 1,500 निवासियों वाले खेजड़ावास गांव के पंचायत भवन की दीवारों में से एक पर यह संदेश लिखा है: “गांव को चोखो गांव बनाएं”, लेकिन यहां के लोगों का कहना है कि ग्रामदान टैग इसे चोखो नहीं बनने दे रहा है.
जयपुर का बढ़ता शहरी फैलाव जोबनेर जैसे भीतरी इलाकों के करीब पहुंच रहा है, जो अपने साथ अवसर और हताशा दोनों लेकर आ रहा है. हाईवे के किनारे रहने वाले ग्रामीणों ने कई तरह के व्यवसाय शुरू कर दिए हैं, लेकिन ग्रामदान गांवों के निवासी किनारे पर ही अटके हुए हैं. उन्हें व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए सामुदायिक ज़मीन का उपयोग करने की अनुमति नहीं है. अगर वे ऐसा करते हैं, तो उन्हें ग्राम सभा से प्राप्त अपनी ज़मीन का पट्टा खोने का जोखिम है.
खेजड़ावास के 28-वर्षीय किसान राजेंद्र कुमार ने कहा, “पहले हम ग्रामदान को बहुत पवित्र चीज़ मानते थे, लेकिन हम ज़मीन का व्यावसायिक उपयोग नहीं कर सकते और खेती भी पहले जैसी नहीं रही. हमें भी विकास की धारा में शामिल होना है, लेकिन ग्रामदान ने इन संभावनाओं को अवरुद्ध कर दिया है.”
ग्रामीण फंसे हुए हैं. उनके पास ज़मीन तो है, लेकिन वो उनकी नहीं है. वे उन सरकारी योजनाओं से वंचित हैं जो उनका उत्थान कर सकती हैं और वे आसानी से यहां से जा नहीं सकते.
जोबनेर तहसील के 10 ग्रामदान गांवों में बहुत कम किसानों को पीएम किसान सम्मान निधि योजना का लाभ मिल रहा है. फसल प्रभावित होने पर उन्हें मुआवज़ा नहीं मिलता, बैंक उन्हें किसान क्रेडिट कार्ड और कर्ज़ नहीं देते, सरकार से बीज और खाद प्राप्त करना एक परेशानी है.
प्रसाद ने बताया कि ग्रामीण युवा अपनी ज़मीन बेचने को आधुनिक जीवनशैली के अपने सपनों को हासिल करने की कुंजी के रूप में देखते हैं, लेकिन यह विकल्प खत्म हो गया है. उन्होंने कहा, “सरकार भी इन गांवों के प्रति उदासीन है.”
लोग असफल क्रांति की सामाजिक कीमत भी चुका रहे हैं. ग्रामदान के ग्रामीणों ने कहा कि कोई भी अपनी बेटियों की शादी नहीं करना चाहता क्योंकि ज़मीन का मालिकाना हक निजी नहीं है.
प्रसाद ने कहा, ग्रामीण मुक्ति चाहते हैं. वे बस दूसरों की तरह जीना चाहते हैं, अपने सपनों को आगे बढ़ाने और बुनियादी अधिकारों का आनंद लेने की आज़ादी के साथ. उच्च आदर्श उन्हें कायम रखने के लिए काफी नहीं हैं.
यह कुछ ऐसा है जिसे गांधीवादी विद्वान पराग चोलकर ने भी अपनी 2017 में आई किताब The Earth is the Lord’s में छुआ है. वे लिखते हैं, “यह कोशिश केवल ज़मीन में निजी संपत्ति के उन्मूलन के लिए नहीं था, यह मनुष्य और समाज में संपूर्ण परिवर्तन के लिए था. उद्देश्य जितना ऊंचा होगा, असफलता की संभावना उतनी ही अधिक होगी. भूदान-ग्रामदान आंदोलन ने छोटा लक्ष्य रखने के बजाय विफलता का जोखिम उठाना पसंद किया.”
ग्रामीणों का आरोप है कि ग्रामदान प्रणाली एक जागीर के समान है, जिसमें ग्राम सभा अध्यक्ष सभी भूमि, अभिलेखों को नियंत्रित करते हैं और लोगों के प्रति जवाबदेही की कमी है.
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अनियंत्रित शक्तियां, भ्रष्टाचार
1955 में जब गोपाल बाणा के पिता ने अपनी ज़मीन छोड़ दी, तो माहौल नेक इरादों और बढ़ती उम्मीदों से भर गया. बाणा ने कहा, दानदाताओं को उम्मीद थी कि उनकी ज़मीन प्रभावी रूप से उनकी ही रहेगी और एक हिस्सा भूमिहीनों में बांट दिया जाएगा. उन्होंने खेजड़ावास पंचायत के तहत आने वाले अपने गांव जोशीवास की कल्पना की, जो अधिक स्वायत्तता का आनंद ले रहा हो — एक प्रकार का लघु-गणराज्य. विचार यह था कि ज़मीन और व्यक्तिगत विवादों को सामूहिक रूप से निपटाया जाएगा और उन्हें कागज़ी कार्रवाई के लिए तहसील की यात्रा करने की ज़रूरत नहीं होगी. सभी रिकॉर्ड ग्राम स्तर पर ग्राम सभा अध्यक्ष द्वारा बनाए रखे जाएंगे.
लेकिन बाणा, जिनकी उम्र 40 के आसपास है, खुद को कड़वी फसल काटता हुआ पाते हैं. बैंकों ने उनके बच्चों की उच्च शिक्षा के लिए उनके कर्ज़ आवेदनों को अस्वीकार कर दिया है, जिससे उन्हें साहूकारों पर निर्भर रहने के लिए मजबूर होना पड़ा है और स्वायत्तता के बजाय, ग्राम सभा अध्यक्ष एक अनियंत्रित शक्ति केंद्र में बदल गया है, जिससे भ्रष्ट आचरण को बढ़ावा मिल रहा है. बाणा ने अफसोस जताते हुए कहा, “हम अपने हर काम के लिए पूरी तरह से ग्राम सभा अध्यक्ष पर निर्भर हैं. वे बिना पैसे लिए कोई काम करने को तैयार नहीं हैं.”
ग्रामदान आज वैसा नहीं है जैसा पहले था. विनोबा जी द्वारा शुरू किए गए अभियान को इस रूप में देखकर दुख होता है
—रामबाबू शर्मा, राजस्थान भूदान-ग्रामदान बोर्ड अधिकारी
खेजड़ावास में अध्यक्ष जीवन राम का कार्यकाल 21 फरवरी को समाप्त हो गया और उत्तराधिकारी का चयन किया जाना बाकी है. वे किसी भी गलत काम से इनकार करते हैं, लेकिन स्वीकार करते हैं कि ऐसे मुद्दे अन्यत्र भी प्रचलित हैं.
ग्रामीणों का आरोप है कि ग्रामदान प्रणाली एक जागीर के समान है, जिसमें अध्यक्ष सभी ज़मीन, अभिलेखों को नियंत्रित करते हैं और लोगों के प्रति जवाबदेही की कमी हैं और ग्रामदान कानून के तहत, अध्यक्ष के पास गांव के लिए एकतरफा फैसले लेने का अधिकार है.
ग्रामीणों का आरोप है कि जब ज़मीन बेचने की बात आती है, तो एकमात्र रास्ता अध्यक्ष के पास होता है, जो बिचौलिए की तरह काम करता है और पैसे उगाहता है. इसके अलावा, चूंकि ज़मीन सरकारी राजस्व रिकॉर्ड में शामिल नहीं है, इसलिए इसका मूल्य कम हो जाता है. खेजड़वास के राजेंद्र कुमार ने बताया कि उनके घर के पास का एक प्लॉट 20 लाख रुपये में बेचा गया, जबकि बगल के गांव में इसी तरह की ज़मीन पर एक करोड़ रुपये मिले. उन्होंने कहा, “ज़मीन की कीमतें कम हैं क्योंकि हमारा गांव ग्रामदानी है. हमें इतना बड़ा नुकसान सहना पड़ेगा.”
खेजड़ावास पंचायत के सरपंच सोहन सीपट के अनुसार, जबकि बाहरी लोगों को ज़मीन बेचना प्रतिबंधित है, ग्राम सभा अध्यक्ष धोखे से गांव की वोटर्स लिस्ट में खरीदारों के नाम जोड़कर इस नियम को दरकिनार कर देते हैं और फिर बिक्री से लाभ कमाते हैं. उन्होंने कहा, यह प्रणाली “पैसा कमाने का उपकरण” बन गई है.
विनोबा भावे के आंदोलन का प्रभाव यह है कि राजस्थान में लगातार भाजपा और कांग्रेस सरकारें ग्रामदान अधिनियम को रद्द करने में झिझकती रही हैं.
हाल के वर्षों में राजस्थान के ग्रामदानों के अध्यक्षों के खिलाफ भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आए हैं. उदाहरण के लिए 2018 में अधिकारियों ने ज़मीन बिक्री धोखाधड़ी के लिए डूंगरपुर के खजुरिया गांव में ग्रामदान गांव के अध्यक्ष सहित छह लोगों पर मामला दर्ज किया. उसी साल राजस्थान के मकराना में एक तहसीलदार ने कलवा छोटा ग्रामदान गांव के अध्यक्ष के खिलाफ ज़मीन रिकॉर्ड प्रदान करने से इनकार करके अपने पद का दुरुपयोग करने का मामला दर्ज किया.
हालांकि, ग्रामसभा अध्यक्ष को हर तीन साल में लोगों द्वारा सर्वसम्मति से चुना जाना चाहिए, लेकिन इसमें अक्सर देरी होती है. अक्सर, अध्यक्ष डिफॉल् तरीके से अनिश्चित काल तक पद पर बने रहते हैं, जिससे जवाबदेही की कमी का मुद्दा और बढ़ जाता है. कुछ गांवों में जहां ग्रामदान अध्यक्षों की मृत्यु हो गई है, उनके बेटे ज़मीन से संबंधित रिकॉर्ड संभाल रहे हैं.
यहां तक कि राजस्थान के भूदान-ग्रामदान बोर्ड में 45 साल का अनुभव रखने वाले अनुभवी रामबाबू शर्मा भी निराश हैं.
उन्होंने कहा, “ग्रामदान आज वैसा नहीं है जैसा पहले था. विनोबा जी द्वारा शुरू किए गए अभियान को इस रूप में देखकर दुख होता है.” हवा महल के पास पुरानी विधानसभा के सामने, जयपुर में जीर्ण-शीर्ण ग्रामदान बोर्ड कार्यालय में धूल भरी फाइलों के बीच लकड़ी की कुर्सी पर बैठे शर्मा ने कहा, “ग्रामदान गांवों के इतने सारे मामले आज हाई कोर्ट में लंबित हैं. ग्रामदान गांवों का उद्देश्य यह था कि लोग आपस में बैठकर अपने मुद्दे सुलझा लेंगे, लेकिन जब मामले अदालत में जा रहे हैं, तो ग्रामदान का क्या मतलब है?”
अफसोस के साथ शर्मा ने स्वीकार किया कि ग्रामदान एक ऐसी प्रणाली है जिसका समय बीत चुका है. उन्होंने कहा, “हम भौतिकवादी युग में जी रहे हैं. लोग अपनी ज़मीनें बेचकर अपने सपने पूरे करते हैं. जब पुराने कानून के कारण उनकी ज़मीनें नहीं बिकेंगी तो स्वाभाविक है कि लोगों को असहजता महसूस होगी.”
हालांकि, राज्य के 44,672 गांवों में से अधिकांश के राजस्व रिकॉर्ड ऑनलाइन उपलब्ध हैं, लेकिन विभिन्न जिलों में फैले 205 ग्रामदानों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है.
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अब भी बची है आस
पिछले दो दशकों में ग्रामीणों ने ग्रामदान गांवों की समस्याओं के बारे में बार-बार विधायकों, सांसदों और मंत्रियों से संपर्क किया है, लेकिन विनोबा भावे के आंदोलन का प्रभाव ऐसा है कि राज्य में लगातार भाजपा और कांग्रेस सरकारें ग्रामदान अधिनियम को रद्द करने में झिझकती रही हैं.
राजस्थान के राजस्व विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “विनोबा भावे की छवि भारत के एक महान समाज सुधारक की है और उनका सम्मान एक संत की तरह किया जाता है. कोई भी सरकार उनके द्वारा शुरू किए गए अभियान को पूरी तरह खत्म नहीं करना चाहती. हालांकि, इसके मूल में यह पिछले कुछ साल में कमज़ोर हो गया है.” उन्होंने कहा, “ग्रामदान अब सिर्फ एक नाम बनकर रह गया है.”
1969 में आंदोलन के चरम के दौरान ऐसे गांवों की कथित संख्या 137,208 थी. हालांकि, वर्तमान में बहुत कम गांवों को मान्यता दी गई है. अवध प्रसाद ने स्पष्ट किया, “ग्रामदान कानूनी से अधिक एक भावनात्मक कार्रवाई थी. इसलिए, ग्रामदान गांवों की संख्या बहुत अधिक थी, लेकिन उनमें से केवल कुछ को ही कानून के तहत मंजूरी दी गई थी.”
आज भी राजस्थान के ग्रामदान गांवों में एक निश्चित अस्पष्टता बनी हुई है. हालांकि, राज्य के 44,672 गांवों में से अधिकांश के राजस्व रिकॉर्ड ऑनलाइन उपलब्ध हैं, लेकिन जयपुर, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, नागौर, जैसलमेर, टोंक, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, भीलवाड़ा, सीकर, सिरोही और बारां सहित विभिन्न जिलों में फैले 205 ग्रामदानों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है.
इन गांवों के लिए ऐसी सारी जानकारी ग्राम सभा अध्यक्षों द्वारा ताले और चाबी के नीचे रखे गए मोटे रजिस्टरों तक ही सीमित है.
खेजड़ावास में वास्तविक ग्रामदान अध्यक्ष जीवन राम गांव की 193 बीघे भूमि के आवंटन डेटा वाला एक रजिस्टर रखते हैं. उन्होंने अपने घर की पहली मंजिल पर एक अलमारी से रजिस्टर निकालते हुए कहा, “इसमें पूरे गांव की जानकारी और हर परिवार की ज़मीन से संबंधित डेटा शामिल है. जिले के राजस्व विभाग के पास हमारे गांव का डेटा नहीं है.”
कई निवासी चाहते हैं कि यथास्थिति बदले. ग्रामदानी हटाओ संघर्ष समिति ग्रामदान गांवों में ज़मीनों के रिकॉर्ड को ऑनलाइन करने की वकालत करती है. समिति का तर्क है कि ऑनलाइन पहुंच की कमी से ग्रामदान अध्यक्षों द्वारा फर्ज़ी ज़मीन की बिक्री की सुविधा मिलती है.
हमारे पूर्वजों ने जो गलतियां कीं, उनकी कीमत हमें चुकानी पड़ रही है.
—देवनारायण बैरवा, जयप्रकाशपुरा निवासी
समिति के सदस्य सीपत ने स्थानीय प्रतिनिधियों को भेजे गए पत्र दिखाते हुए कहा, “समस्याएं 1980 के बाद शुरू हुईं. ग्रामदान अध्यक्षों ने अपने व्यक्तिगत लाभ को प्राथमिकता देना शुरू कर दिया और अपने रिश्तेदारों को अधिक से अधिक ज़मीन आवंटित करना शुरू कर दिया, जो ग्रामदान कानून की मूल भावना के खिलाफ है.”
स्थानीय अखबारों की सुर्खियां इन गांवों में व्याप्त भावना को दर्शाती हैं: “यहां सरकार की भी नहीं चलती पंचायती”, “यहां सिर्फ तानाशाही और मनमानी”, “गले की फांस बन गया ग्रामदान अधिनियम और “हमे नहीं रहना ग्रामदानी गांव में”
हालांकि, 2022 में संघर्ष समिति को एक छोटी सी जीत हासिल हुई. आयदान का बास पंचायत के बालोलाई गांव के निवासियों ने संघर्ष समिति के माध्यम से राजस्थान ग्रामदान अधिनियम की धारा 37 (ए) के तहत इस व्यवस्था से बाहर होने की घोषणा की. मतदान करके, वे सफलतापूर्वक बहुमत से बाहर हो गए.
लेकिन ज़मीन पर बदलाव अभी भी देखने को नहीं मिल रहा है. सीपत ने कहा, “मतदान के बाद भी इसे अभी तक राजस्व प्रणाली में शामिल नहीं किया गया है.इन गांवों पर कोई ध्यान नहीं देता. अधिकारियों की ओर से सिर्फ आश्वासन ही मिलता है, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं होती.”
लेकिन ग्रामदान व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह फैलता दिख रहा है. जनवरी में डूंगरपुर जिले के सभी 41 ग्रामदान गांवों ने एक साथ आकर अपनी संघर्ष समिति बनाई. उन्होंने अब तक जिला मुख्यालयों पर चार बैठकें की हैं और 22 गांवों में ग्राम-स्तरीय समितियों का गठन किया है.
इन आदिवासी बहुल गांवों के निवासियों ने प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए आसपुर विधायक और भारत आदिवासी पार्टी के नेता उमेश मीणा से भी संपर्क किया है.
मीणा ने दिप्रिंट को बताया कि इनमें से अधिकांश गांवों में 2005 के बाद से ग्राम सभा अध्यक्ष पद के लिए चुनाव नहीं हुआ है और जिला मजिस्ट्रेट उनकी चिंताओं को नज़रअंदाज कर देते हैं क्योंकि वे राजस्व गांव नहीं हैं. उन्होंने कहा, “ग्रामदान अधिनियम के अनुसार जमाबंदी रजिस्टर (ज़मीन रिकॉर्ड) का रखरखाव ठीक से नहीं किया जा रहा है.”
यह मामला अन्य जगहों पर भी राजनीतिक तूल पकड़ रहा है. 2023 के राजस्थान चुनाव में नीम का थाना से कांग्रेस विधायक सुरेश मोदी ने अपने 23-सूत्रीय चुनावी दृष्टिकोण में “ग्रामदान से मुक्ति” को शामिल किया. नीम का थाना के 16 ग्रामदान गांवों में से चार पहले ही सिस्टम से बाहर हो चुके हैं, लेकिन 12 मतदान प्रक्रिया पूरी होने के बावजूद अभी भी इंतज़ार कर रहे हैं. इस मुद्दे को उठाने वाले सुरेश मोदी ने 13 जुलाई 2023 को विधानसभा में कहा, “हर दिन लोग मेरे पास शिकायतें लेकर आते हैं.”
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सिक्के के दो पहलू
हर कोई ग्रामदान प्रणाली से बाहर नहीं निकलना चाहता. कुछ तो इसमें शामिल होना भी चाहते हैं.
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में मुख्य रूप से गोंड आदिवासी गांव मेंधा ने ग्रामदान प्रणाली में शामिल होने के लिए एक दशक तक संघर्ष किया. इसने अपनी शासी पंचायत, लेखा से अलग होने की भी मांग की. इस साल उनकी दृढ़ता रंग लाई. महाराष्ट्र सरकार ने 1964 के महाराष्ट्र ग्रामदान अधिनियम के तहत मेंढा को अलग ग्राम पंचायत का दर्जा दिया, उनकी 500-मजबूत आबादी को एक अलग ग्राम इकाई के रूप में मान्यता दी.
इन निवासियों की खोज 2013 में शुरू हुई, जब उन्होंने सर्वसम्मति से ग्रामदान बनने और ग्राम सभा को अपनी ज़मीन देने के लिए मतदान किया. हालांकि, राज्य के राजस्व विभाग ने शुरू में उन्हें स्वतंत्र पंचायत का दर्जा देने से इनकार कर दिया, जिसके बाद उन्हें बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच का सहारा लेना पड़ा. इन ग्रामीणों के लिए ग्रामदान का दर्जा कथित तौर पर “उनके जंगलों और ज़मीन पर स्व-शासन और संप्रभुता” का प्रतीक है.
लेकिन जयपुर के जयप्रकाशपुरा गांव में ग्रामदान ज़मीन योजना ने खाली घरों की भुतहा गलियों को जन्म दिया है.
1960 के दशक में समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण द्वारा ग्रामदान गांव के रूप में स्थापित, यह अब जर्जर दीवारों और बंजर खेतों के साथ ढह रहा है. जो लोग यहां रहते हैं उन्हें आजीविका कमाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, जैसे देवनारायण बैरवा, जो दैनिक मज़दूरी के लिए रोजाना 60 किलोमीटर की यात्रा करके जयपुर जाते हैं.
बैरवा ने कहा, “हमारे पूर्वज खेती करके अपना जीवन यापन करते थे, लेकिन नई पीढ़ी के लिए यह संभव नहीं है. पानी की कमी के कारण यहां खेती करना लाभदायक नहीं है. ऐसी स्थिति में हमें प्रतिदिन 150 रुपये खर्च करके मज़दूरी करने के लिए जयपुर जाना पड़ता है. हमें हमारे पूर्वजों द्वारा की गई गलतियों की कीमत चुकानी पड़ रही है.”
जयप्रकाशपुरा की आबादी आधिकारिक तौर पर 500 है, लेकिन अधिकांश लोग बहुत पहले ही पलायन कर चुके हैं, जिससे ग्रामदान की ज़मीन पर बने दर्जनों घरों के दरवाजों पर ताले लटके हुए हैं.
(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)
(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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