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Friday, 22 November, 2024
होमफीचरबाल कुपोषण के मामले में बिहार से बदतर हैं गुजरात के हालात, ग्रामीण पीएचसी से गायब हैं MBBS डॉक्टर

बाल कुपोषण के मामले में बिहार से बदतर हैं गुजरात के हालात, ग्रामीण पीएचसी से गायब हैं MBBS डॉक्टर

बाल कुपोषण के मामले में गुजरात की स्थिति बिहार और ओडिशा से भी बदतर है. तमिलनाडु में कुपोषित बच्चों की संख्या गुजरात से लगभग आधी है.

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यह पिछले साल जुलाई की आधी रात की बात है, जब लगभग 30 साल का इदरीस कद्रू अपने तीन महीने के बेटे को अस्पताल ले जाने के लिए वाहन की तलाश में था. नवजात का शरीर ठंडा पड़ रहा था और उसका सिर तेज़ बुखार से तप रहा था. गुजरात के कच्छ जिले में गांव लुडबे से सबसे पास अस्पताल भी 50 किलोमीटर दूर था…लेकिन अस्पताल पहुंचने से पहले ही बेटे की मौत हो गई.

मगर, यह केवल एक घटना नहीं थी.

छह सौ किलोमीटर दूर, दाहोद जिले के एक आदिवासी गांव कुपड़ा में नौ महीने की गर्भवती सोनल दामोर का भी सितंबर में कद्रू के बेटे जैसा ही हश्र हुआ. खून की कमी और प्रसव पीड़ा से जूझ रही महिला को एंबुलेंस कथित तौर पर एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल ले गई. अगर रक्त बैंक नहीं है तो अस्पताल एनीमिया से पीड़ित मरीजों को आसानी से भर्ती नहीं करते. उसके परिवार ने कहा कि अस्पताल में भर्ती नहीं होने के कारण उसकी मृत्यु हो गई.

वाइब्रेंट गुजरात की शानदार छवि के पीछे, जो विशाल उद्योगों, हाई-स्पीड बुलेट ट्रेनों और एक विस्तृत राजमार्ग नेटवर्क से युक्त है — जिसे भारत के लिए एक विकास मॉडल को अपनाने के लिए पेश किया गया है — एक चरमराती स्वास्थ्य सेवा प्रणाली है जो राज्य के गरीबों को निराश कर रही है. कई हेल्थ सेंटर तो खाली ही हैं. स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि गुजरात के आदिवासी अंदरूनी इलाकों में कई गर्भवती महिलाएं अस्पताल जाते समय रास्ते में ही जान गंवा रही हैं क्योंकि एमबीबीएस डॉक्टरों और अन्य डॉक्टर्स की अनुपस्थिति में ये सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र किसी काम के नहीं हैं. पोषण की कमी से कुपोषण फैल रहा है. यह युवा डॉक्टर्स की प्रणालीगत अनदेखी की कहानी है जो गांवों में काम नहीं करना चाहते.

गुजरात की प्रति व्यक्ति आय और राजस्व में लगातार वृद्धि के साथ, राज्य को तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे अन्य समृद्ध राज्यों के बराबर गिना जाता है, लेकिन बाल कुपोषण के मामले में गुजरात की स्थिति बिहार और ओडिशा से भी बदतर है. तमिलनाडु में कुपोषित बच्चे गुजरात के लगभग आधे हैं.

विकास सभी तक नहीं पहुंच रहा है, जहां कुपोषण के नियम और स्वास्थ्य देखभाल की तत्काल ज़रूरत है. हालांकि, स्वास्थ्य सुविधाओं की खस्ताहालत पर सवाल अक्सर राज्य विधानसभा में गूंजते रहते हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर बदलाव संभव नहीं है.

2018-19 और 2021-22 के बीच, गुजरात का प्रति व्यक्ति सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) आठ प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ी. 2022-23 और 2023-24 के बीच राज्य की जीएसडीपी 13 प्रतिशत की दर से बढ़ने का अनुमान है. 2014-15 और 2019-21 के बीच आयोजित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के दो दौर के मुताबिक गुजरात में 15-49 वर्ष की महिलाओं में एनीमिया की व्यापकता 12.5 प्रतिशत बढ़ गई है. इसी अवधि में राज्य में 6-59 माह के बच्चों में एनीमिया भी 17 प्रतिशत बढ़ गया.

देश की पहली पब्लिक हेल्थ यूनिवर्सिटी, गांधीनगर स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ के पूर्व निदेशक प्रोफेसर दिलीप मावलंकर ने कहा, “गुजरात में कई साल से मुख्य राजनीतिक प्राथमिकता औद्योगीकरण और उद्योगों को दी गई है. यह राज्य की समग्र वृहत आर्थिक रणनीति है. राज्य में सामाजिक क्षेत्रों को कम प्राथमिकता दी गई और स्वास्थ्य इसका हिस्सा है.”

ग्राफिक: रमनदीप कौर/दिप्रिंट

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ज़मीनी हकीकत

दिप्रिंट ने कच्छ, महिसागर और दाहोद में पीएचसी और स्वास्थ्य और कल्याण केंद्रों (एचडब्ल्यूसी) का दौरा किया, जिन्हें हाल ही में पेंट किया गया था और उनमें सभी साजो-सामान मौजूद थे. सबसे बड़ी बात यह थी कि यहां डॉक्टर्स और ट्रेनिंग लिए हुए स्वास्थ्य कर्मियों की भारी कमी थी.

कुछ केंद्रों में दवाएं देने या नियमित बाह्य-रोगी-विभाग चलाने के लिए कोई एलोपैथिक डॉक्टर नहीं थे. फार्मासिस्ट दवाइयां दे रहे थे और डिलीवरी कराने के लिए ट्रेनिंग लिए हुए कर्मचारियों की कमी के कारण डिलीवरी टेबल को कोने में धकेल दिया गया था. दाहोद के एक पीएचसी में नर्स मौजूद होने के बावजूद सफाई करने वाली महिला जंग लगी कैंची से घाव पर पट्टी बांध रही थी.

तीनों जिलों के कई आंगनवाड़ी केंद्रों से गर्भवती और धात्री महिलाओं और कुपोषित बच्चों का रिकॉर्ड गायब था.

दिप्रिंट ने गुजरात स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख सचिव धनंजय द्विवेदी और स्वास्थ्य आयुक्त हर्षद कुमार रतिलाल पटेल से उनके दफ्तरों में जाकर संपर्क करने के कई प्रयास किए, लेकिन कोई जवाब नहीं मिल पाया. महिला एवं बाल विकास विभाग के आयुक्त केके निराला और पोषण एवं आईसीडीएस उप निदेशक नेहा कंथारिया के दफ्तरों का भी दौरा और कॉल किए गए, लेकिन टिप्पणी के लिए कोई भी उपलब्ध नहीं था.

ग्राफिक: रमनदीप कौर/दिप्रिंट

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डॉक्टर शहर में है, गांव में नहीं?

लुडबे गांव की ओर जाने वाली सड़क पर एचडब्ल्यूसी में दवाओं के डिब्बों पर धूल की मोटी परत जमी है. वर्क डेस्क, स्टेथोस्कोप, गद्दे और स्ट्रेचर एक कमरे में बिना पैक किए पड़े हैं और फर्श पर जानवरों के सूखे मल से डॉक्टर का कमरा गंदा पड़ा है.

कद्रू के घर से तीन किलोमीटर दूर एचडब्ल्यूसी, उनके बेटे के लिए कॉल का पहला स्थान हो सकता था, बशर्ते यह काम कर रहा होता. दो कमरों की इमारत महीनों से बंद है क्योंकि केंद्र का प्रमुख सामुदायिक स्वास्थ्य अधिकारी (सीएचओ) का पद खाली है.

लुडबे गांव के निवासी जाट चील ने कहा, “अगर कोई डॉक्टर इस सेंटर में आता है, तो वह महीनों के भीतर चला जाता है. अगर इस केंद्र में डॉक्टर होंगे, तभी तो गांव वाले इलाज के लिए आएंगे.”

लेकिन जुलाई में यह इमारत लोगों से गुलज़ार थी जब गांव में कई कुपोषित बच्चों की खबर ने ब्लॉक और जिला कार्यालयों से टीमों को लुडबे तक पहुंचाया. एचडब्ल्यूसी में एक सीएचओ को तैनात किया गया था, लेकिन जब मामला तूल पकड़ने लगा तो ग्रामीणों ने आरोप लगाया कि सेंटर को फिर से बंद कर दिया गया.

गांव के सरपंच जब्बार जाट के लिए कद्रू के बेटे की मौत एक खतरे की घंटी थी. उन्होंने पाया कि पिछले कुछ हफ्तों में गांव में चार अन्य बच्चों की मौत हो गई है.

जाट जिनकी पंचायत लुडबे जुथ में 6 गांव हैं, ने कहा, “मुझे पता चला कि जो बच्चे मरे थे वे बहुत कमज़ोर थे. मैंने यह जानने के लिए ब्लॉक और जिला कार्यालयों का दौरा किया और सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत आवेदन दायर किया कि मेरी पंचायत में स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टर क्यों नहीं हैं, लेकिन मुझे कोई जवाब नहीं मिला.”

कद्रू के बेटे की मृत्यु के तुरंत बाद मुंबई स्थित बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. जयेश कपाड़िया ने पंचायत के दो गांवों में एक हेल्थ कैंप लगाया हर 300 में से 37 बच्चों को कुपोषित पाया.

ग्रामीणों ने आरोप लगाया कि गांव के आंगनवाड़ी केंद्र, जो यह सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार हैं कि बच्चों की थाली तक पोषण पहुंचे, शायद ही कभी खुलते हैं, जिससे बच्चों और गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को गर्म पका हुआ भोजन नहीं मिल पाता है. सबसे पास वाले एचडब्ल्यूसी में कोई सीएचओ नहीं था और 22 किमी दूर पीएचसी को एक अकेले आयुष डॉक्टर द्वारा चलाया जा रहा था. स्वास्थ्य संबंधी ज़रूरतों के लिए ग्रामीण 90 किलोमीटर दूर, 16 किलोमीटर की दूरी तय करके भुज जाते हैं, जहां कोई सड़क नहीं है.

आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को अगस्त में नौकरी से निकाल दिया गया था और महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता, सहायक नर्स दाइयां (एएनएम) और आशा कार्यकर्ता अक्सर घरों में जाती थीं और माताओं को सलाह देती थीं कि उन्हें अपने बच्चों को क्या खिलाना चाहिए. राज्य सरकार ने कुपोषित बच्चों का पता लगाने के लिए अपने स्तर पर सर्वे भी कराया था. सरकारी डेटा डॉ. कपाड़िया से मेल खाता था.

सरकार ने 36 बच्चों को कुपोषित पाया, जिनमें से 13 की हालत गंभीर थी. जिला रिकॉर्ड के अनुसार, जनवरी और जुलाई 2023 के बीच, गांव में आठ बच्चों (पांच नहीं, जैसा कि जब्बार ने बताया था) की मृत्यु हो गई. ये छह महीने तक की उम्र के बच्चे थे, लेकिन इनमें से किसी भी मौत का कारण कुपोषण नहीं बताया गया.

कच्छ के महिला एवं बाल विभाग के प्रभारी दशरथ पंड्या ने कहा, “हमने पाया कि अधिकांश बच्चों की मृत्यु बुखार या जन्म के समय श्वासावरोध जैसी अन्य चिकित्सीय जटिलताओं से हुई. इनमें से केवल एक बच्चा गंभीर रूप से कुपोषित था.”

कच्छ में बाल कुपोषण एक लंबे समय से चली आ रही समस्या रही है.

ग्राफिक: रमनदीप कौर/दिप्रिंट

डॉ कपाड़िया जो 40साल से अधिक समय से कच्छ के गांवों में हेल्थ कैंप लगा रहे हैं, ने कहा, “यह गरीबी, खराब स्वच्छता, भूख, बीमारियों और बच्चों में प्रतिरक्षा में समग्र गिरावट का एक चक्र है, जिसके परिणाम स्वरूप कुपोषण होता है. सिर्फ दवाओं से मदद नहीं मिलेगी.”

उन्होंने कहा, खानाबदोश जनजातियों, कम पढ़ाई-लिखाई, कम उम्र में शादी और बार-बार गर्भधारण के कारण महिलाओं के अधिक बच्चे होते हैं. गुजरात में लगभग 34 प्रतिशत की तुलना में कच्छ में केवल 24 प्रतिशत महिलाओं को 10 या अधिक वर्षों की स्कूली शिक्षा प्राप्त हुई है. कच्छ में 20 से 24 साल की उम्र के बीच की 19 प्रतिशत महिलाओं की शादी तब कर दी गई जब वे नाबालिग थीं. एनएफएचएस-5 के आंकड़ों के मुताबिक, गुजरात में यह संख्या लगभग 22 प्रतिशत है.

ग्राफिक: रमनदीप कौर/दिप्रिंट

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ग्रामीण पोस्टिंग का अभिशाप

कुपोषण और नवजातों की मृत्यु की समस्या कम कर्मचारियों और डॉक्टर रहित स्वास्थ्य केंद्रों से संबंधित है. लोगों के लिए यह भरोसे और पहुंच का संकट है. राज्य ने स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे पर खर्च किया है, लेकिन यहां मानव संसाधन की समस्या है. लुडबे गांव में हुई मौतों के कारण देसलपार में सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) आबाद नहीं हो सका है, जो पिछले पांच साल से एमबीबीएस डॉक्टर के बिना चल रहा है. पिछले तीन साल में कई कमरों, दवा भंडार और स्टैंड-बाय पर एक एंबुलेंस के साथ चमचमाती-साफ-सुथरी इमारत में एक अकेला आयुष डॉक्टर है, जो एलोपैथी में किसी भी विशेषज्ञता के बिना एलोपैथिक दवाएं लिखती हैं. एक इनक्यूबेटर, बहते पानी और एक डिलीवरी टेबल से सुसज्जित प्रसव कक्ष बिना इस्तेमाल के है.

आयुष डॉक्टर प्रियंका गोहेल जो पिछले तीन साल से यहां सेवाएं दे रही हैं क्योंकि उनके पास एक गांव में एक कमरा है, ने बताया, “डॉक्टर यहां नहीं रहते क्योंकि उनके लिए कोई क्वार्टर नहीं है. गांव में सड़क संपर्क खराब है और फोन के नेटवर्क भी नहीं है. नखत्राणा ब्लॉक से स्थानीय बस प्रतिदिन केवल एक बार चलती है. अगर ये आपसे छूट गए तो आप पीएचसी तक नहीं पहुंच पाएंगे.” उन्होंने बताया कि अधिक कर्मचारियों के लिए जिला और ब्लॉक अधिकारियों से उनके अनुरोध को अनसुना कर दिया गया है.

नखत्राणा ब्लॉक और कच्छ जिले के अधिकारियों का कहना है कि वे असहाय हैं. उन्होंने कहा कि जिले में पोस्टिंग को कम प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि वहां आबादी कम है और दूर-दराज के रेगिस्तानी गांव कस्बों और शहरों से मीलों दूर हैं.

सालरा पीएचसी में जिसके अंतर्गत सोनल डामोर का घर पड़ता है, सफाईकर्मी वनिता कोया जंग लगी कैंची से घाव पर पट्टी बांध रही हैं | फोटो: सोनल मथारू/दिप्रिंट

नखत्राणा के तालुका स्वास्थ्य अधिकारी एके प्रसाद ने कहा, “हम जिले को नियमित रूप से खाली पड़े पदों के बारे में सूचित करते हैं, लेकिन यहां कोई काम नहीं करना चाहता. डॉक्टर ग्रामीण इलाकों में काम करने के लिए अपना एक साल का बांड पूरा करने से पहले ही चले जाते हैं.”

मई 2023 में गुजरात विधानसभा में प्रस्तुत आंकड़ों से पता चलता है कि कई नए एमबीबीएस डॉक्टर ग्रामीण क्षेत्रों में सेवा करने के लिए भुगतान करते हैं. 2020 और 2023 के बीच लगभग 1,800 एमबीबीएस ग्रेजुएट्स ने ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों में काम करने के बदले 10 लाख रुपये की बांड राशि का भुगतान किया.

नखत्राणा के सात पीएचसी और दो सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) के लिए केवल तीन एमबीबीएस डॉक्टर हैं, वे सभी सीएचसी में तैनात हैं. गोहेल सात पीएचसी के लिए एकमात्र डॉक्टर (आयुष) हैं. नेरोना के मात्र एक पीएचसी में स्टाफ नर्स द्वारा डिलीवरी की प्रक्रिया करवाई जाती है. ब्लॉक में 46 एचडब्ल्यूसी में से आठ सीएचओ की कमी के कारण निष्क्रिय हैं.

पड़ोसी लखपत ब्लॉक भी इससे अलग नहीं है. यहां कोई एमबीबीएस डॉक्टर नहीं हैं और ब्लॉक के चार पीएचसी आयुष डॉक्टरों द्वारा चलाए जा रहे हैं और इसके 20 एचडब्ल्यूसी के लिए, ब्लॉक में केवल 14 सीएचओ हैं.

हालांकि, गुजरात एकमात्र राज्य नहीं है जो अपनी ग्रामीण पोस्टिंग को डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्य मानव संसाधनों से भरने के लिए संघर्ष कर रहा है. यह एक राष्ट्रव्यापी मुद्दा है और केंद्र सरकार ने मेडिकल कॉलेजों में सीटें बढ़ाने और ग्रामीण क्षेत्रों में सेवा के लिए पोस्ट-ग्रेजुएट प्रवेश परीक्षाओं के लिए अनुग्रह अंक देने जैसे कई हस्तक्षेप करने की कोशिश की है. 2019 में सरकार ने एचडब्ल्यूसी में पदों को भरने के लिए सीएचओ का एक कैडर बनाने के लिए एक शॉर्ट-टर्म कोर्स भी शुरू किया, लेकिन ये उपाय विफल रहे हैं.

दुर्गम पहुंच वाले क्षेत्रों में इस कमी को ठीक करने के लिए कुछ राज्यों ने स्थानीय हस्तक्षेप किया है. 2009 में छत्तीसगढ़ ने ग्रामीण मेडिकल कोर (आरएमसी) की स्थापना की, जिसके जरिए से राज्य न्यूनतम चार साल के लिए हेल्थ वर्कर्स और डॉक्टरों को पोस्ट-ग्रेजुएट प्रवेश के दौरान वित्तीय प्रोत्साहन, घर, जीवन बीमा और एक्सट्रा मार्क्स प्रदान करता है. एक साल के भीतर, आरएमसी ने सभी सुविधाओं में खाली पड़े पदों की दर को आधा – 90 प्रतिशत से घटाकर 45 प्रतिशत – करने में मदद की.

तमिलनाडु, असम और पश्चिम बंगाल जैसे अन्य राज्यों ने भी भर्ती बोर्ड स्थापित किए हैं जो नौकरशाही बाधाओं को कम करते हैं और जिला स्तर पर रिक्त मेडिकल पदों को शीघ्र भरते हैं.

कच्छ जिला कार्यालय में स्वास्थ्य अधिकारी ने कहा कि खाली पड़े पदों की घोषणा होने पर 1,000 से अधिक आवेदक आवेदन करते हैं, लेकिन मुश्किल से 10 उम्मीदवार इंटरव्यू के लिए आते हैं.

जिला अधिकारी ने कहा, “उम्मीदवार दूसरे जिलों में नौकरी पाते ही चले जाते हैं. अगर स्थानीय लोगों को यहां काम पर रखा जा सके तो समस्या हल हो जाएगी.”


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गायब पोषण

जनवरी 2024 में गुजरात ने घोषणा की कि कैसे खेड़ा जिले में कुपोषण को दूर करने के लिए एक पायलट परियोजना ने महत्वपूर्ण लाभ कमाया. तीन महीनों के लिए स्वास्थ्य और पोषण टीमों ने मौजूदा कार्यक्रमों को अभियान मोड में लागू किया. परिणाम स्वरूप 150 गंभीर कुपोषित बच्चों में से 127 बच्चे सामान्य वजन वर्ग में आ गए. 15 बच्चे मध्यम कुपोषित पाए गए. आठ बच्चे पलायन कर गए. पायलट की सफलता ने जिले को 10 अन्य ब्लॉकों में 500 गंभीर कुपोषित बच्चों तक अभियान का विस्तार करने के लिए प्रोत्साहित किया है.

लेकिन लुडबे की किस्मत ऐसी नहीं है.

मौतों के छह महीने बाद भी उपेक्षा गंभीर है. दोपहर के कुछ मिनटों को छोड़कर, जब सहायिका दिन का दोपहर का भोजन लाती है, जिसे वह अपने घर पर तैयार करती है, आंगनवाड़ी केंद्र बंद रहता है. कुछ बच्चे आंगनवाड़ी का भोजन कटोरे में घर ले जाते हैं.

भोजन, जिसमें हरी सब्जियां, फलियां और फल शामिल होने चाहिए, केवल मसालों के साथ उबले चावल का मिश्रण है और यह उन बच्चों को आकर्षित करने में विफल रहता है जो आंगनवाड़ी केंद्र के बाहर खड़ी गाड़ी से सस्ते, रंगीन चिप्स खरीदने के लिए हाथ में पैसा लेकर इमारत के पास इकट्ठा होते हैं.

लुडबे गांव में छह महीने के वसीम का वजन उसकी उम्र के हिसाब से काफी कम है. उसकी मां जन्नत का कहना है कि उन्हें आंगनवाड़ी केंद्र से कोई मदद नहीं मिली है | फोटो: सोनल मथारू/दिप्रिंट

और लुडबे की गरीबी और शैक्षिक पिछड़ापन भी इसके मामले में मदद नहीं करता है.

पंड्या ने कहा, “2019 में राज्य ने आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को काम पर रखने के नियमों में बदलाव किया. अब केवल उसी गांव की महिलाओं का चयन किया जाता है जिन्होंने 12वीं कक्षा तक पढ़ाई की हो. क्षेत्र में महिलाओं का शिक्षा स्तर खराब है. हमें योग्य उम्मीदवार नहीं मिल पा रहे हैं.”

पंड्या ने कहा कि अगर नियुक्ति के तीन दौर के बाद भी प्रशासन को कोई उम्मीदवार नहीं मिल पाता, तो वे 10वीं पास की पात्रता में छूट दे सकते हैं.

कद्रू के बगल वाले घर में एक और बच्चा अपने सही वजन के लिए संघर्ष कर रहा है, जबकि उसकी मां असहाय है. छह महीने के वसीम का कमज़ोर शरीर और झुर्रियों वाली स्किन ढीले कपड़ों, पारंपरिक आभूषणों और काजल की परतों के नीचे छिपी है. केवल 4.5 किलोग्राम (आदर्श वजन 6 से 7 किलोग्राम के बीच होता है) वजन वाला बच्चा अपनी मां जन्नत की गोद में नहीं होने पर चुपचाप एक कोने में बैठा रहता है.

उसी घर में दो साल की ज़रीना फर्श पर सो रही है, उसकी पोशाक उसके अपने मल से सनी है. अपनी उम्र के हिसाब से बहुत कमज़ोर और छोटी वह जागते समय दूसरे बच्चों के साथ नहीं खेलती. उसकी मां, एहसानी, ज़रीना और उसके अन्य बच्चों के बीच अंतर बता सकती है, लेकिन वह नहीं जानती कि क्या करना है.

एहसानी ने कहा, जो एक बड़े संयुक्त परिवार में रहती हैं, जो मजदूरी का काम करता है, चाहे वह खेतों में हो या किसी और जगह, “आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ने पहले मुझसे कहा था कि उसे कुछ भी खिलाओ, लेकिन उसका वजन बढ़ाओ. उन्होंने मुझे पैकेट (टेक-होम राशन) दिया, लेकिन खाना घर के अन्य लोगों ने खा लिया.”

सोनल डामोर के ममता कार्ड से पता चलता है कि वह पूरी गर्भावस्था के दौरान एनीमिया से पीड़ित थीं | फोटो: सोनल मथारू/दिप्रिंट

आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं से कुपोषण के प्रहरी के रूप में कार्य करने की अपेक्षा की जाती है — वे बच्चों का वजन करते हैं और हर महीने उनकी बांह की गोलाई को मापते हैं ताकि यह जांच हो सके कि कहीं वे कुपोषण की चपेट में तो नहीं आ रहे हैं. अगर बच्चे का विकास चार्ट कम होने लगे, तो कार्यकर्ता को तुरंत बच्चे को दिया जाने वाला भोजन बढ़ाना होगा, संक्रमण की जांच के लिए उसे पास में स्थित पीएचसी में रेफर करना होगा और क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं को बच्चे के घर जाकर यह सुनिश्चित करना होगा कि बच्चे को उचित आहार मिल रहा है.

अर्थशास्त्री और सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ दीपा सिन्हा, जो भोजन और कुपोषण के मुद्दों पर भी लिखती हैं, ने कहा, “बच्चे शायद ही कभी रातों-रात गंभीर कुपोषण का शिकार बनते हैं और मर जाते हैं. यह एक प्रक्रिया है. कुपोषित बच्चों की पहचान पहले महीने में ही की जानी चाहिए जब उनका वजन कम होने लगे.”

आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के रजिस्टर में मध्यम कुपोषित बच्चों को पीले रंग में और गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों को लाल रंग में दर्शाया गया है.

लेकिन रिकॉर्ड में वसीम और ज़रीना का नाम लाल रंग से अंकित नहीं है और माताओं का दावा है कि न तो आशा कार्यकर्ता और न ही कोई अन्य क्षेत्रीय कार्यकर्ता उनके घर आए और न ही उन्हें अपने बच्चों को ब्लॉक या जिले के पोषण पुनर्वास केंद्रों (एनआरसी) में ले जाने की सलाह दी.

पोषण पुनर्वास केंद्रों पर खाली बेड

नखत्राणा स्थित बाल कुपोषण उपचार केंद्र (सीएमटीसी) में चार बिस्तर पिछले दो महीने (नवंबर-दिसंबर) से खाली पड़े हैं. बच्चों के खिलौने एक बिस्तर पर फेंके हुए हैं. यह केंद्र मध्यम रूप से कुपोषित बच्चों का घर है, जिन्हें केंद्र के पोषण विशेषज्ञ द्वारा वसा और प्रोटीन से भरपूर आहार दिया जाता है, जबकि ऐसे बच्चे कच्छ के गांवों में रहते हैं.

सितंबर में केंद्र में पांच बच्चे थे, जो अक्टूबर में घट कर दो रह गए. यह लगभग दो साल पहले तक हर महीने भर्ती होने वाले कम से कम 15-20 बच्चों की तुलना में भारी गिरावट है. पोषण विशेषज्ञ रश्मिता माहेश्वरी के अनुसार, प्राथमिक कारण, खिलखिलाहट नामक निःशुल्क राज्य-प्रायोजित परिवहन सेवा का बंद होना है.

माहेश्वरी ने कहा, “डेढ़ साल पहले खिलखिलाहाट वैन सेवा बंद होने के बाद से केंद्र में संख्या घट रही है. खिलखिलाहट के तहत, एक मां अपने बच्चे को सुबह ला सकती थी और शाम को वापस घर ले जा सकती थी. दिन भर हम बच्चे को खाना खिला सकते थे. अब साधन नहीं होने से महिलाएं दूर-दराज के गांवों से नहीं आ सकतीं.”

सेवाओं में इसी तरह की रुकावट भुज के जिला अस्पताल में 20 बिस्तरों वाले एनआरसी में भी देखी जाती है, जहां गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों को भर्ती किया जाता है. अप्रैल 2023 में केंद्र में 25 बच्चों को प्रवेश दिया गया था. नवंबर में यह संख्या घटकर चार हो गई और दिसंबर के पहले सप्ताह तक केवल एक बच्चा था. कर्मचारियों ने कहा कि एनआरसी को कथित तौर पर वहां भर्ती बच्चों के लिए भोजन खरीदने के लिए फंड नहीं मिला है.

एनआरसी में स्टाफ नर्स नेहा जडेजा ने कहा, “कर्मचारी अपने घरों से भोजन लाते हैं या बच्चों के लिए दूध, सब्जियां, फल खरीदने के लिए अपने पैसे लगाते हैं. हमने जिला अधिकारियों से अनुरोध किया है, लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ है.”

दिसंबर में जब दिप्रिंट ने केंद्र का दौरा किया था, तब ग्यारह महीने की अवनि कोहली एनआरसी में एकमात्र बच्ची थी. एनआरसी में 10 दिन में उसका वजन 500 ग्राम बढ़ गया | फोटो: सोनल मथारू/दिप्रिंट

नाम न छापने की शर्त पर जिला स्वास्थ्य अधिकारी ने कहा कि खिलखिलाहट की सेवाओं का लाभ उठाने के लिए बच्चों और उनकी माताओं को 15 दिनों के लिए एनआरसी में रहना होगा.

अधिकारी ने कहा, “खिलखिलाहट परिवार को पहले दिन केवल एक बार केंद्र में ला सकता है और फिर 15वें दिन उन्हें वापस गांव छोड़ सकता है. दैनिक सेवा की अनुमति नहीं है. यही कारण है कि एनआरसी और सीएमटीसी में संख्या में मामूली गिरावट आई है.” उन्होंने कहा कि एनआरसी के लिए धनराशि प्रशासनिक बाधाओं के कारण अटकी हुई है.


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दीवार पर एक तस्वीर

दाहोद के कुपड़ा गांव में 22-वर्षीय सोनल डामोर की एक फ्रेमयुक्त तस्वीर उसके मिट्टी के घर की दीवार पर लटकी हुई है. उसके चारों ओर प्लास्टिक के फूलों की माला लिपटी है. सितंबर में जब सोनल को उसके दूसरे बच्चे के जन्म के लिए एम्बुलेंस में ले जाया गया, तो परिवार बच्चे के आने की खबर का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था, लेकिन सोनल की मौत हो गई.

दाहोद में युवा महिलाएं या तो प्रसव के दौरान या प्रसव के बाद की मुश्किलों के कारण जान गंवा रही हैं. कच्छ की तरह, दाहोद के गांवों में दवाओं और उपकरणों से भरे स्वास्थ्य केंद्र जीवन की सेवा करने में असमर्थ हैं.

सोनल के घर से 1.5 किमी दूर सालरा पीएचसी में प्रसव बिस्तर को दीवार से सटा दिया गया है. स्टाफ नर्स के चले जाने के बाद से कमरा दो महीने (अक्टूबर-नवंबर) तक खाली पड़ा है. नई नर्स के पास प्रसव कराने की ट्रेनिंग नहीं है. जब दिप्रिंट ने पीएचसी का दौरा किया, तो ड्यूटी पर मौजूद डॉक्टर फतहपुरा ब्लॉक में एक परिवार नियोजन कैंप में भाग ले रहे थे. केंद्र में एक मरीज आया था जिसके घाव को नर्स नहीं बल्कि सफाई करने वाली महिला साफ कर रही थी.

वहां मौजूद स्वास्थ्य कर्मियों ने कहा कि देवगढ़ बैरिया का ब्लॉक अस्पताल, जो तीन ब्लॉकों में फैली तीन लाख से अधिक की आबादी को सेवा प्रदान करता है, वहां लगभग दो महीने पहले तक स्त्री रोग विशेषज्ञ और बाल रोग विशेषज्ञ नहीं थे.

दाहोद में बड़ी संख्या में खाली पड़े पदों की नवंबर में भी खबर बनीं जब कहा गया कि सितंबर में गुजरात विधानसभा में प्रस्तुत आंकड़ों से पता चला कि 95 प्रतिशत जिले में राज्य में डॉक्टरों की सबसे अधिक खाली पद हैं. इसके बाद बनासकांठा 93 फीसदी और कच्छ 77 फीसदी के साथ आते हैं.

वडगाम विधायक जिग्नेश मेवाणी ने कहा कि खाली पड़े मेडिकल पदों का मुद्दा लगभग हर विधानसभा सत्र में उठाया जाता है. कांग्रेस राजनेता ने कहा, लेकिन ज़मीन पर कुछ भी नहीं बदलता है.

उन्होंने कहा, “पूरे गुजरात में आपको पीएचसी और सीएचसी मिलेंगी, लेकिन आपको अंदर शायद ही कोई मेडिकल सुविधा और स्टाफ दिखाई देगा. राज्य के स्वास्थ्य मंत्री और गुजरात के मुख्यमंत्री के निर्वाचन क्षेत्रों में भी यही स्थिति है. स्वास्थ्य राज्य की प्राथमिकता नहीं है. विकासशील गुजरात की चकाचौंध में ये मुद्दे छिप जाते हैं.”

सरकारी रडार से गिरना

दाहोद जिला कार्यालय में मुख्य जिला स्वास्थ्य अधिकारी उदय कुमार तिलावत की डेटा शीट एक आदर्श तस्वीर बताती है. तिलावत ने दिप्रिंट को डेटा चार्ट दिखाते हुए बताया कि कैसे सेवाओं की डिलीवरी 90 फीसदी के आंकड़े को पार कर रही है. उन्होंने कहा, कुछ अपवाद लोगों की इनका उपयोग करने में अनिच्छा के कारण हैं.

उन्होंने कहा, “हमारी आशा कार्यकर्ता रात में भी प्रसव के लिए महिलाओं के साथ जाती हैं, 108 एम्बुलेंस काम कर रही हैं, हम सभी ज़मीन पर काम कर रहे हैं, लेकिन अगर ये (सेवाएं) उपलब्ध कराई जा रही हैं, तो क्या इन्हें लिया जा रहा है? लोगों को बदलाव स्वीकार करने में समय लगता है.” उन्होंने कहा कि महिलाओं की कम शिक्षा और कई गर्भधारण जिले में एनीमिया की उच्च घटनाओं का कारण हैं.

लेकिन स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच न पाने के लिए परिवारों को दोषी ठहराना गंभीर संख्याओं की व्याख्या नहीं करता है.

दीपा सिन्हा ने एक संकेतक की ओर इशारा किया जिसे तिलावत की एक्सेल शीट में नहीं रखा गया. सिन्हा ने कहा, “सिस्टम पर कोई भरोसा नहीं है क्योंकि सिस्टम ने अब तक लोगों के लिए काम नहीं किया है. प्राथमिक स्तर पर आवश्यक अधिकांश मानव संसाधनों के लिए एमबीबीएस डॉक्टर होना ज़रूरी नहीं है. अच्छी तरह से ट्रेनिंग लिए हुए डॉक्टर्स ग्रामीण क्षेत्रों की ज़रूरतों को पूरा कर सकते हैं. लोग सेवाओं तक तब पहुंचते हैं जब उन्हें लगता है कि उन्हें स्वास्थ्य केंद्र से कोई लाभ मिल रहा है.”

जब सोनल को प्रसव पीड़ा शुरू हुई तो परिजन उसे छह किलोमीटर दूर फतहपुरा सीएचसी ले गए, लेकिन कथित तौर पर सीएचसी के डॉक्टरों ने उसे दाहोद जिला अस्पताल रेफर कर दिया, जो उसके गांव से 70 किमी दूर है.

सोनल के पति शैलेश डामोर ने कहा, “कोई भी अस्पताल उसे भर्ती करने का जोखिम नहीं उठाना चाहता था क्योंकि वह एनीमिया से पीड़ित थी.”

दाहोद, मध्य प्रदेश की सीमा से लगा एक आदिवासी जिला, अहमदाबाद से केवल 200 किलोमीटर दूर है और एक सुगम राजमार्ग से जुड़ा हुआ है. यह गुजरात के दो अविकसित जिलों में से एक है जो 2018 में प्रधानमंत्री द्वारा शुरू किए गए आकांक्षी जिला कार्यक्रम के तहत है. कार्यक्रम का उद्देश्य राज्य और केंद्रीय योजनाओं का अभिसरण सुनिश्चित करना और जिले में सामाजिक-आर्थिक संकेतकों की प्रगति को मापना है, जिसमें स्वास्थ्य और पोषण भी शामिल है.

लेकिन ऐसे जिले में जहां पलायन अधिक है, कई युवा गर्भवती महिलाएं सरकार के रडार से दूर हो रही हैं.

आनंदी एनजीओ की कार्यकारी निदेशक नीता हार्डिकर ने कहा, “महिलाएं अपनी गर्भावस्था के आखिरी दिन तक भारी श्रम करती हैं. गर्भावस्था के दौरान उनके आहार में सुधार नहीं होता है और जब वे पलायन करती हैं, तो सेवाएं उन तक नहीं पहुंचती हैं.”

जब पांच महीने की गर्भवती सोनल शहर में निर्माण स्थलों पर मजदूर बनने के लिए अहमदाबाद जाने वाली बस में चढ़ गई. उन्हें राज्य योजना, मुख्यमंत्री मातृ शक्ति योजना के तहत कभी भी गर्म पका हुआ भोजन, घर ले जाने वाला राशन या तेल, दाल और आटे के मासिक पैकेट नहीं मिले.

चूंकि यह उनकी दूसरी डिलीवरी थी, इसलिए वह केंद्र की मातृत्व पात्रता योजना, प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना के लिए पात्र नहीं थी, जो गर्भावस्था और स्तनपान अवधि के दौरान गर्भवती महिलाओं को उनकी पोषण संबंधी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए तीन किस्तों में 5,000 रुपये देती है.

सोनल के घर से कुछ मीटर की दूरी पर आंगनवाड़ी केंद्र में रजिस्टर में गर्भवती महिलाओं या गांव के बच्चों के विकास चार्ट का कोई रिकॉर्ड नहीं है.

अपने घर पर खाना बनाने वाली आंगनवाड़ी कार्यकर्ता रमा दामोर ने कहा, “महिलाएं आंगनवाड़ी में खाना खाने नहीं आती हैं. अगर उनमें खून की कमी है, तो मैं उन्हें ड्रिप के माध्यम से आयरन लेने के लिए पीएचसी में भेजती हूं.”

जिला आईसीडीएस प्रभारी अधिकारी इरा चौहान से कॉल के जरिए से और उनके कार्यालय में संपर्क करने के प्रयास विफल रहे.

इस बीच, तिलावत ने इसके लिए सामाजिक और भौगोलिक कारकों को जिम्मेदार ठहराया.

उन्होंने कहा, “आदिवासी आबादी की खान-पान की आदतें अभी भी विकसित नहीं हुई हैं. भौगोलिक कारक भी मायने रखते हैं. इस क्षेत्र में मिट्टी पतली है. परिणामस्वरूप भोजन में पोषण कम हो जाता है. हम कितनी भी कोशिश कर लें, हम अन्य समृद्ध क्षेत्रों के मानकों की बराबरी नहीं कर सकते.”

तिलावत ने कहा कि अधिकारी एनीमिया और कुपोषण की समस्या से निपटने की कोशिश कर रहे हैं. वह माप के आंकड़ों को कम करने का सुझाव देते हैं. “तब यह क्षेत्र उतना एनीमियाग्रस्त या कुपोषित नहीं होगा जितना अब है.”

कुपड़ा आंगनवाड़ी केंद्र जिसके अंतर्गत सोनल डामोर का घर आता है | फोटो: सोनल मथारू/दिप्रिंट

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अज्ञानता और उपेक्षा का चक्र

आनंदी एनजीओ की सामुदायिक प्रेरक और प्रशिक्षक शिलाबेन खांट के लिए दिसंबर की शुरुआत निराशाजनक रही. उनके व्हाट्सएप ग्रुप पर दाहोद के देवगढ़ बारिया में पिछले दो दिनों में तीन मातृ मृत्यु की खबरें आ रही हैं. 12 दिनों की शोक अवधि समाप्त होने के बाद, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की टीमें सामाजिक शव परीक्षण रिपोर्ट के लिए उन घरों का दौरा करेंगी जहां मौतें हुई हैं, जो एनजीओ 16 वर्षों से अधिक समय से आयोजित कर रहा है.

खांट ने कहा, “सामाजिक शव परीक्षण के माध्यम से, हम यह देखने की कोशिश करते हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं के अलावा, अन्य सामाजिक संकेतक क्या हैं जो सुरक्षित प्रसव के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण हैं और कौन से महिलाओं के लिए पर्याप्त रूप से उपलब्ध नहीं थे.”

उनके निष्कर्षों से पता चलता है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में अक्सर देरी होती है और सामाजिक कारक प्रसव में जटिलताओं को बढ़ाते हैं.

दिप्रिंट ने दो जिलों के पांच घरों का दौरा किया जहां गर्भवती महिलाओं की मृत्यु हो गई थी और पाया कि गर्भवती होने के बाद महिला के भोजन में कोई पौष्टिक भोजन नहीं जोड़ा गया था.

हार्डिकर ने कहा, “आंगनवाड़ी केंद्रों पर काउंसलिंग होती है जहां महिलाओं को गाजर, हरी सब्जियां, सेब और केला खाने के लिए कहा जाता है, लेकिन कोई यह समझने की कोशिश भी नहीं कर रहा है कि क्या ये उनके घरों पर उपलब्ध हैं.”

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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