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Saturday, 4 May, 2024
होमफीचरपहले कभी इतना बड़ा नहीं था भारत का ट्यूशन बाजार, कोचिंग कल्चर नई महामारी बनकर उभर रहा

पहले कभी इतना बड़ा नहीं था भारत का ट्यूशन बाजार, कोचिंग कल्चर नई महामारी बनकर उभर रहा

भारत में कोचिंग उद्योग की मौजूदा बाजार में हिस्सेदारी 58,088 करोड़ रुपये की है. 2028 तक इसके 1,33,995 करोड़ रुपए तक पहुंचने का अनुमान है.

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कनिष्क सिर्फ पांच साल का है. वह ठीक से 30 तक गिनती भी नहीं कर पाता है और ए, बी, सी, डी पढ़ते समय ‘क्यू’ पर अटक जाता है. लेकिन उसकी मां ने अभी से तय कर लिया है कि वह बड़ा होकर डॉक्टर बनेगा. वह रोजाना जयपुर के एक प्राइवेट स्कूल पांच घंटे पढ़ाई करता है और उसके बाद अपने प्यारे से लाल बैग में 11 किताबें भरकर दो घंटे की ट्यूशन क्लास के लिए निकल पड़ता है. घर से स्कूल, स्कूल से घर और फिर ट्यूशन. उसके जीवन का ये बिजी शेड्यूल तब तक बना रहेगा, जब तक कि वह 12वीं पास करने के बाद नीट का एंट्रेंस टेस्ट नहीं दे देता. हर बीतते साल के साथ उसकी पढ़ाई के पीछे की ये मारामारी और ज्यादा उन्मादी और उन्मत्त होती चली जाएगी.

कनिष्क अकेला नहीं हैं. उनके जैसे अनगिनत बच्चे ‘ट्यूशन रिपब्लिक’ के इस फलते-फूलते उद्योग का हिस्सा है, जो एक उदासीन रटने वाली स्कूली शिक्षा, माता-पिता की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं और सिकुड़ते नौकरी बाजार से पैदा हुआ है.

मध्य प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र, बिहार से लेकर केरल तक, भारत के ट्यूशन रिपब्लिक ने पड़ोस के ट्यूटर्स के साथ-साथ, सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स और कोचिंग क्लासेस ने डिजिटल दुनिया में अपना जाल फैला लिया है. दो साल की महामारी के बाद, यह उद्योग अब पहले से कहीं ज्यादा बड़ा हो गया है. दरअसल यह शहरी भारत में आगे बढ़ने एक जरूरत बन गई है. नेशनल सैंपल सर्वे द्वारा 2016 में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, 7.1 करोड़ छात्र ट्यूशन में नामांकित हैं.

मनोवैज्ञानिक अंतहीन ट्यूशन की दौड़ से उपजे तनाव और खोए हुए बचपन पर लंबे समय तक पड़ने वाले असर का अध्ययन करने की बात कह रहे हैं.

बाल मनोवैज्ञानिक डॉ निमेश देसाई ने बताया, ‘एक समय था जब कुछ ही बच्चे ट्यूशन के लिए जाया करते थे. लेकिन 2022 में यह एक जीवन शैली बन गया हैं.’ उन्होंने आगे कहा, ‘ पांच साल की उम्र से शुरू हुई टयूशन की यह दौड़, अगले दो दशकों तक बच्चों के साथ बनी रहती है. और जब वह बच्चा बड़ा होकर खुद माता-पिता बनता है, तो वह अपने बच्चों को ट्यूशन भेजना शुरू कर देता है.’

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कनिष्क की मां प्रियंका (28) के मुताबिक, अगर आपके पास ज्यादा पैसा नहीं है तो सम्मान और प्रतिष्ठा पाने का यही एकमात्र रास्ता है. उनके पति ने बमुश्किल स्कूल की पढ़ाई पूरी की और एक मालिश करने वाले बनकर रह गए. वह हर महीने 10 से 15 हजार रुपए कमा पाते हैं. अब उनकी सारी उम्मीदें कनिष्क के छोटे से कंधों पर सवार हैं.

प्रियंका ने कहा, ‘हम चाहते हैं कि हमारे बेटे का जीवन हमसे बेहतर हो. लेकिन इन दिनों पढ़ाई को लेकर भी कड़ा मुकाबला है. अगर वह अभी से ट्यूशन जाना शुरू कर देगा, तो 9वीं या 10वीं क्लास तक पहुंचते-पहुंचते इसका आदि हो जाएगा. उसे पता होगा कि प्रतियोगिता में अव्वल आने के लिए उसे हर दिन इस कठोर प्रक्रिया से गुजरना है.’


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स्कूल से घर, घर से ट्यूशन..

हालांकि सरकार, मौजूदा शिक्षा प्रणाली में सुधार और ट्यूशन शिक्षकों व कोचिंग क्लासेस पर बच्चों के झुकाव को कम करने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर निर्भर है. लेकिन इस समानांतर उद्योग की बढ़ती पहुंच को रोकने के लिए कानून ने भी ज्यादा कुछ नहीं किया है.

शिक्षा मंत्रालय के स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग के एक वरिष्ठ नौकरशाह ने कहा, ‘यह हमारी मुख्यधारा की शिक्षा की विफलता है जिसने माता-पिता को इस बाजार की ओर मोड़ दिया. आप कनिष्क के माता-पिता से कैसे कह सकते हैं कि उसे पांच साल की उम्र में ट्यूशन न भेजें?’

शिक्षा मंत्रालय (तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय) द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समिति के 2015 के अनुमान के अनुसार, कोचिंग संस्थानों का वार्षिक राजस्व 24,000 करोड़ रुपये था. पुणे स्थित कंसल्टेंसी फर्म इंफिनियम ग्लोबल रिसर्च की मानें तो मौजूदा समय में भारत के कोचिंग उद्योग का बाजार राजस्व 58,088 करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है. इस इंडस्ट्री के 2028 तक 1,33,955 करोड़ रुपये तक पहुंच जाने का अनुमान है.

शिक्षाविद् और मनोवैज्ञानिक चिंतित हैं. वो इस इंडस्ट्री का अध्ययन करने के लिए बड़े पैमाने पर सर्वेक्षण की मांग कर रहे हैं, खासकर स्कूल स्तर पर जहां किंडरगार्टन के बच्चे निजी ट्यूशन पर निर्भर हैं.

पूनम थरवान के ट्यूशन क्लास में आने वाले 15 छात्रों में से कनिष्क सबसे छोटा है. लेकिन वह पढ़ाई में ‘कमजोर’ नहीं है. थरवान ने बताया, ‘कनिष्क उन अच्छे बच्चों में से है जो अपना होमवर्क और अपना रिवीजन समय पर पूरा करते हैं’. कनिष्क ट्यूशन होमवर्क के साथ शाम को 5 बजे घर लौटता है.

उसे अगले 15 साल तक उसे इसी रास्ते पर चलना है. स्कूल, ट्यूशन, रिविजन, होमवर्क, बस यही उसकी दिनचर्या है. और फिर जब वह बड़ा हो जाएगा तो प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कोचिंग सेंटर की तरफ उसके कदम बढ़ जाएंगे.

ट्यूशन की दुनिया में जिंदगी

सोमवार का दिन है. दोपहर के दो बजे हैं. स्कूल की घंटी बजते ही अमूमन शांत रहने वाली सड़क बच्चों की आवाज से गूंज उठती है. एमवीजी पब्लिक स्कूल के गेट से बच्चों का झुंड हल्ला मचाते हुए बाहर निकलता है. कनिष्क भी इसी स्कूल में पढ़ता है.  उसके कंधों पर भारी बैग लटका हुआ है.

कुछ बच्चे सीधे ट्यूशन के लिए भाग रहें हैं, तो कुछ छोटे से लंच ब्रेक या कुछ देर आराम करने के लिए घर की ओर निकल पड़ते हैं. कनिष्क के चचेरे भाई, सहपाठी और पड़ोसी सभी की ऐसी ही दिनचर्या हैं.

अब भले ही उन्हें इसका एहसास हो या न हो कि वे मेडिकल, इंजीनियरिंग, लॉ और टीचिंग कॉलेजों में सीमित सीटों या सिविल सेवाओं, रेलवे आदि में नौकरियों की दौड़ में हैं. लेकिन वो लगातार भाग रहे हैं.

इस साल यूपीएससी 2022 प्रारंभिक परीक्षा में 1,011 सीटों के लिए 11 लाख से ज्यादा उम्मीदवारों ने अपनी किस्मत आजमाई थी. और देश भर के 612 सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों में 91,927 एमबीबीएस सीटों के लिए 18 लाख से अधिक छात्रों ने नीट का प्रयास किया था.

इन आंकड़ों की परवाह किए बिना प्रताप नगर के एक मोहल्ले में रहने वाली 37 साल की नीलम टिक्कीवाल चाहती हैं कि उनका नौ साल का बेटा और ढाई साल की बेटी टॉपर बने.

नीलम ने कहा, ‘लेकिन पिछले हॉफ ईयरली में  मेरे बेटे को 80 में से सिर्फ 35 अंक मिले थे. मुझे लगता था कि वह कम से कम 60 नंबर तो ले ही आएगा. लेकिन स्कूल, ट्यूशन और घर पर दो घंटे पढ़ने के बाद उसका ये हाल है. हर मां-बाप की तरह मैं भी अपने बच्चे को 90 प्रतिशत स्कोर करते हुए देखना चाहती हूं.’

नीलम ने अपनी आर्थिक स्थितियों के चलते दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से अपनी स्नातक की डिग्री ली थी. उनके पति, जो फिलहाल ई-मित्रा शॉप चलाते हैं, प्रति माह लगभग 60,000 रुपये कमा लेते हैं. वह कहती हैं, ‘ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जिन्हें पाने के लिए हमें आज भी पैसों का मूहं देखना पड़ता है. मैं नहीं चाहती कि मेरे बच्चों को भी बड़े होकर ये सब देखना पड़े. ट्यूशन की मदद से हमारे बच्चे जिंदगी के हर मैदान में आगे निकल जाएंगे.’

छोटे शहरों और गांवों में, ऐसा लगता है मानो हर तीसरा घर एक पर्सनल ट्यूशन सेंटर में बदल गया है. लिविंग रूम क्लासरूम बन गए हैं और पड़ोस की आंटी या युवा कॉलेज ग्रेजुएट शिक्षक बन गए हैं.

कनिष्क के ट्यूशन शिक्षक थरवान के पास भी कई डिग्रियां हैं. वह कॉमर्स में ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट है. इसके अलावा उनके पास बी.एड की डिग्री भी है. लेकिन 30 साल की इस लड़की को प्राइवेट ट्यूटरिंग उन तमाम जॉब्स से ज्यादा आकर्षक लगती है, जिनके लिए वह योग्य है. वह पिछले 10 साल से पढ़ा रही है और खुद इसी तरह से पढ़कर यहां तक पहुंची हैं. लेकिन आज के बच्चों और उनमें अंतर सिर्फ इतना है कि उन्होंने छोटी उम्र के बजाए 12वीं कक्षा में निजी ट्यूशन लेना शुरू किया था.

थरवान के ट्यूटर पुलकित जैन कहते हैं, ‘2012 तक जो भी छात्र साइंस और कॉमर्स लेता था, उसे ही ट्यूशन की जरूरत पड़ती थी.’ जब वे राजस्थान विश्वविद्यालय में पढ़ते थे, तब उन्हें भी ट्यूशन लिया था.

हालांकि अब माता-पिता इस उम्मीद में जल्द से जल्द शुरुआत कर देते हैं कि उनके बच्चे पहले ही काफी कुछ जान जाएंगे. यह होड़ बाकी बच्चों के साथ बराबरी पर आने से भी जुड़ी है.

बड़े शहरों में STEM, कोडिंग और KUMON का बोलबाला है. छोटे शहरों में भी निजी ट्यूटर्स या कोचिंग सेंटर  हैं, जो कोडिंग सिखा रहे हैं.  उनकी काफी मांग है. और जहां ऐसे शिक्षक या सेंटर मौजूद नहीं हैं वहां ई-लर्निंग उनकी कमी को पूरा कर देता है. आठ साल से कम उम्र के बच्चे पायथन सीखने के लिए साइन अप कर रहे हैं. उडेमी, व्हाइट हैट जूनियर, कोडिंग निन्जा और लीप लर्नर बेहद लोकप्रिय हैं. कोडिंग निन्जा ने अपने सिग्नेचर कोर्स के जरिए 50,000 छात्रों को ‘ट्रांसफोर्म्ड’ करने का दावा किया है.

एजुकेशन सिस्टम में भीड़ बढ़ती जा रही है और कड़ा मुकाबला भी. लेकिन बुनियादी ढांचे पर किसी का ध्यान नहीं है. प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन की सीईओ रुक्मिणी बनर्जी कहती हैं, ‘माता-पिता की उम्मीदें, बच्चों की आकांक्षाएं और नौकरी के अवसर- ये सभी मिलकर इसके लिए जमीन तैयार कर रहे हैं. परीक्षा ही एक ऐसी विश्वसनीयता है जो बच्चे का भविष्य तय करती है. बाजार बढ़ रहा है क्योंकि इन संस्थानों की मांग बढ़ रही है.’

बढ़ती मांग

माता-पिता ट्यूशन को अपने बच्चों के लिए प्रतिस्पर्धा में खड़े होने, परिवार की सामाजिक स्थिति को सुधारने और नौकरियों के खेल में महारत हासिल करने के एकमात्र तरीके के रूप में देखते हैं. शिक्षकों के लिए भी प्राइवेट ट्यूशन लेना एक लुभावने बिजनेस में बदलता जा रहा है.

थरवान ने बताया ‘यह अब एक वैकल्पिक सफल करियर है. अगर आप प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल नहीं पाए हैं, तो आप बाकी छात्रों सफल बनाने के लिए पढ़ाने लग जाइए.’  वह अपने प्रत्येक छात्र से हर महीने 1,000 रुपये ट्यूशन फीस लेती हैं.

महामारी के बाद प्रताप नगर इलाके में उनकी पहले से कहीं ज्यादा जरूरत है. वह कहती हैं, ‘कोविड से पहले मेरे पास 10 छात्र पढ़ने के लिए आते थे. अब पांच और बढ़ गए हैं. महामारी के दौरान होम ट्यूशन एक तरह से बंद हो गया था लेकिन फिर भी कुछ माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेज देते थे क्योंकि उन्हें ऑनलाइन सिस्टम में विश्वास नहीं था.’

प्राइवेट ट्यूशन बाजार को तीन हिस्सों में बांटा गया है- ग्रुप ट्यूशन, प्राइवेट ट्यूशन और कोचिंग सेंटर.

फ्लेम यूनिवर्सिटी, पुणे में पब्लिक पॉलिसी के एसोसिएट प्रोफेसर युगांक गोयल कहते हैं, ‘हम वास्तव में नहीं जानते कि स्कूली शिक्षा कब ट्यूशन और कोचिंग के सामने गौण हो गई.’

कामकाजी वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग के परिवार अपने बच्चों को ग्रुप ट्यूशन के लिए भेजते हैं, जहां 500 रुपये से लेकर 1,000 रुपये तक एक महीने की फीस होती है. उच्च मध्यम वर्ग प्राइवेट ट्यूटर रखना पसंद करते हैं. प्राइवेट ट्यूशन लेने वाले ज्यादातर टीचर यूनिवर्सिटी के छात्र और स्कॉलर्स होते हैं, जो हर छात्र से 4,000 से 8,000 रुपये तक चार्ज करते हैं.

मध्यम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा कोचिंग सेंटरों का विकल्प चुनता है. बायजू, एलन करियर इंस्टीट्यूट और रेजोनेंस जैसे दिग्गज ब्रांडों के वर्चस्व वाले क्षेत्र इस तस्वीर में फिट बैठते हैं.

उदाहरण के लिए, बायजू के पूरे भारत में 4,000 से अधिक ट्यूशन सेंटर हैं. अक्टूबर 2021 में जयपुर में लॉन्च होने के एक साल के भीतर इसके शहर में छह सेंटर खुल गए हैं. यहां कक्षा एक से तीन तक के छात्रों को ऑनलाइन पढ़ाया जाता है, जबकि 10वीं कक्षा तक के छात्रों को ऑफलाइन क्लास दी जाती हैं.

प्रथम फाउंडेशन के बनर्जी कहते हैं, ‘यह वह जगह है जहां पूरक शिक्षा जटिल, प्रतिस्पर्धी और विशिष्ट हो जाती है.’ वह खासकर स्कूल स्तर पर इस उद्योग की स्टडी करने के लिए बड़े पैमाने पर सर्वे की जरूरत को रेखांकित करती हैं.

बनर्जी 2012 की एएसईआर रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहती हैं, ‘भारत में अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग पैटर्न काम करते हैं. उदाहरण के लिए, ग्रामीण ओडिशा और पश्चिम बंगाल में ट्यूशन लेने वाले बच्चों की संख्या काफी ज्यादा है. लेकिन राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों में बड़े प्राइवेट स्कूल काफी ज्यादा हैं. ट्यूशन संस्कृति के लिए कोई मानक संचालन प्रक्रिया नहीं है.’

लगभग एक दशक बाद, 2021 एएसईआर की रिपोर्ट से पता चला कि 25 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों में किए गए सर्वेक्षण में पाया कि 40 प्रतिशत स्कूली बच्चों (5-16 आयु वर्ग) ने प्राइवेट ट्यूशन को अपनाया हुआ था. 2018 में यह 30 फीसदी थी. यह प्रवृत्ति केरल को छोड़कर सभी राज्यों में बढ़ी है. प्राइवेट ट्यूशन का विकल्प चुनने वाले अधिकांश परिवार उच्च आय वर्ग से थे.


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ट्यूटर्स बनाम एनईपी

एक के बाद एक आने वाली सरकारों और संसद सदस्यों ने सालों से इस ‘ट्यूशन संकट’ से निपटने की कोशिश की है.

उत्तर प्रदेश के पूर्व सांसद, महेंद्र मोहन ने राज्यसभा में एक प्राइवेट मेंबर्स बिल – कोचिंग सेंटर (विनियमन और नियंत्रण) विधेयक, 2007 पेश किया था. बिल में कहा गया था, ‘….कोचिंग सेंटर लाखों छात्रों के भाग्य के साथ खेल रहे हैं और इसलिए उनकी गतिविधियों को विनियमित और नियंत्रित करने का समय आ गया है.’

2012 में, तत्कालीन शिक्षा राज्य मंत्री, डी पुरंदेश्वरी ने संसद में घोषणा की थी कि सरकार कोचिंग सेंटरों के बढ़ते खतरे को रोकने के लिए एक कानून लेकर आएगी. उन्होंने कोचिंग इंडस्ट्री को एक राक्षस कहा था. लेकिन उनका पूरा फोकस छात्रों से ली जाने वाली उच्च फीस पर था.

जब भी कोचिंग सेंटर में पढ़ रहे छात्र आत्महत्या करते हैं, राज्य सरकारें इंडस्ट्री पर नजर रखने का वादा करती है.

2015 में, कोटा के ट्यूशन हब में छात्रों की आत्महत्या करने की बढ़ती घटनाओं के बाद राजस्थान सरकार ने कोचिंग केंद्रों को विनियमित करने की योजना बनाई थी. लेकिन नए कानून का मसौदा तैयार करने के लिए एक राज्य स्तरीय समिति का गठन करने में ही चार साल लग गए. 2022 में, ऐसी खबरें थीं कि सरकार न सिर्फ कोचिंग सेंटरों को रेग्युलेट करने के लिए बल्कि छात्रों की सुरक्षा के लिए भी एक कानून लेकर आएगी. टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में लिखा था कि टॉपर्स का महिमामंडन करने के खिलाफ कानून लाया जाएगा. लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ है.

बिहार भारत का एकमात्र राज्य है जिसने कोचिंग संस्थानों के लिए बिहार कोचिंग संस्थान (नियंत्रण और विनियमन) अधिनियम, 2010 के तहत खुद को पंजीकृत करना अनिवार्य बनाया हुआ है. लेकिन इसके अच्छे इरादों को लालफीताशाही और ‘इंस्पेक्टर राज’ ने कमजोर कर दिया.

कोचिंग एसोसिएशन ऑफ भारत के राष्ट्रीय सचिव सुधीर कुमार ने कहा, ‘अगर कोचिंग सेंटरों की बढ़ती संख्या को नियंत्रित करने में कानून का कोई प्रभाव होता, तो उनकी संख्या 2010 में 1,700 से बढ़कर 2022 में 4,200 नहीं होती. 10 सालों से रजिस्ट्रेशन में कोई प्रगति नहीं हुई है.’

जनवरी 2022 में बिहार में कोचिंग सेंटरों के लिए रेलवे की भर्ती पर हिंसक विरोध को एक साथ लाने का काम किया. कुमार ने बताया, ‘विरोध के बाद करीब 400 कोचिंग सेंटरों ने खुद को पंजीकृत कराया था.’

केरल में बाल अधिकारों के संरक्षण के लिए राज्य आयोग ने सरकार को एक निर्देश जारी किया था. इस निर्देश के मुताबिक, या तो केरल पंचायत राज-नगरपालिका अधिनियमों का विस्तार करे या प्राइवेट कोचिंग सेंटरों में नामांकित बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए नए नियम बनाएं.

कुमार कहते हैं, ‘इस क्षेत्र को एक इंडस्ट्री के तौर पर स्वीकार करना और फिर इसे रेग्युलेट करने के लिए कानून बनाना, समय की जरूरत है. यह क्षेत्र राजस्व और रोजगार लाता है और शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाता है. नौकरशाह, एमबीबीएस डॉक्टर और आईआईटियन- सभी ने पिछले 10-15 सालों में इस क्षेत्र में अपना योगदान दिया है.’

वरिष्ठ शिक्षा अधिकारी नई शिक्षा नीति (एनईपी) पर भरोसा कर रहे हैं ताकि शिक्षा व्यवस्था पर प्राइवेट ट्यूशन सेंटरों के दबदबे को तोड़ा जा सके. एनईपी के उद्देश्यों में से एक ‘आज के कोचिंग कल्चर को कमजोर करने के लिए योगात्मक मूल्यांकन के बजाय लर्निंग के नियमित रचनात्मक मूल्यांकन’ पर ध्यान केंद्रित करना शामिल है.

शिक्षा विभाग के एक अधिकारी ने कहा, ‘एनईपी एक बच्चे के समग्र विकास पर ध्यान देने के साथ स्कूल पाठ्यक्रम में क्षेत्रीय भाषाओं को प्रोत्साहित कर रही है. जब हम इस तरह की समग्र शिक्षा प्रदान करते हैं, तो पूरक शिक्षा की मांग कम हो जाएगी. इसे ठीक करने के लिए पाठ्यक्रम और परीक्षा प्रणाली में सुधार किए जाएंगे.’

लेकिन कुमार का मानना है कि एनईपी सिर्फ कोचिंग सेंटरों की मांग को बढ़ावा देगी. वह कहते हैं, ‘बच्चे को 6ठीं कक्षा में ही करियर की राह तय करनी होगी, इससे कोचिंग सेंटरों की मांग और बढ़ जाएगी.’

कई प्राइवेट ट्यूशन टीचर और कोचिंग क्लास चलाने वाले प्रबंधकों का कहना है कि उन्हें गलत तरीके से खलनायक के रूप में चित्रित किया जा रहा है, जबकि वे शिक्षा प्रणाली में आई कमी को पूरा करने का काम कर रहे हैं. न सिर्फ मेट्रो शहरों में बल्कि छोटे शहरों में भी बड़े और लोकप्रिय ब्रांड व कोचिंग सेंटर पूनम थरवान जैसे स्थानीय शिक्षकों को इस इंडस्ट्री से बाहर कर रहे हैं.

एक बड़ी समस्या यह है कि स्कूल का पाठ्यक्रम और उसके शिक्षक पुरानी दुनिया में अटके हुए हैं. उन्हें जॉबलेस ग्रोथ के नए हाइपर-कंपटेटिव युग के लिए अपस्किल नहीं किया गया है.

बढ़ती मांग के बारे में समझाते हुए बायजू के जयपुर ट्यूशन सेंटर के मैनेजर कहते हैं, ‘बड़ी क्लास में शिक्षक समय और तकनीक के साथ आगे नहीं बढ़ रहे हैं. 35 साल से कम उम्र के युवा माता-पिता अपने बच्चों के लिए ट्यूशन की जरूरत महसूस करते हैं क्योंकि वे अनुभव से जानते हैं कि उद्योग कितना प्रतिस्पर्धी बन गया है.’

एक दशक पहले, स्कूल के जाने-पहचाने सीनियर टीचर ही ट्यूशन देने के लिए भरोसेमंद थे. लेकिन बड़े निजी खिलाड़ियों ने महानगरों के बाजार पर कब्जा कर लिया है और अब देश भर के छोटे शहरों में भी अपने कारोबार का विस्तार करने में लगे हैं. राजस्थान के सीकर में लगा बायजू का एक पोस्टर इसी ट्रेंड की ओर इशारा कर रहा है.


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माता-पिता की उम्मीदों का भार

आजकल के मां-बाप अपने बच्चों से ज्यादा प्रतिस्पर्धी हैं. वह बच्चों को कोचिंग क्लास जाने पर जोर दे रहे हैं क्योंकि वे खुद स्कूल के काम में बच्चों की मदद कर पाने में असमर्थ हैं. मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चे अपने माता-पिता की आशाओं और सपनों को ढोने के लिए नहीं बने हैं और न ही उन्हें बनना चाहिए.

डॉ. देसाई चेतावनी देते हुए कहते हैं, ‘सामाजिक प्रतिष्ठा, माता-पिता की चिंताएं और हताशा शिक्षा को एक निराशाजनक प्रतिस्पर्धा में बदल रही है. इसके गंभीर परिणाम सामने आए हैं. बच्चों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने से बड़े होने पर उनके आत्म-सम्मान में कमी आ सकती है.’

कुछ इसी तरह की चिंता फ्लेम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर गोयल ने बच्चे के सर्वांगीण विकास को लेकर की. उन्होंने कहा, ‘बच्चे उन घंटों का इस्तेमाल अपने आपको ‘योग्य’ बनाने में कर सकते हैं. एग्जाम याद करने की क्षमता का टेस्ट है. वे छात्रों का मूल्यांकन करते हैं, उनका आकलन(असेस) नहीं करते हैं.’

छात्र पढ़ाई के बोझ तले दबे हुए हैं. इससे उनकी सेहत पर भी असर पड़ रहा है. नई दिल्ली के मदर डिवाइन पब्लिक स्कूल में 9वीं कक्षा में पढ़ने वाले पंद्रह साल के रक्षित बल्हारा को याद नहीं कि उसने आखिरी बार फुटबॉल कब खेला था.

उन्होंने कहा, ‘मैं अपना खाली समय सोशल मीडिया पर बिताता हूं क्योंकि इसके लिए मुझे कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं पड़ती है.’

शहर के संस्कृति स्कूल की 12वीं कक्षा की एक छात्रा ने आकाश इंस्टीट्यूट से तब पढ़ाई छोड़ दी जब वह 10वीं कक्षा में थी.

छात्रा ने बताया, ‘आकाश में मेरे ऊपर पढ़ाई का काफी दबाव था. मेरे पास इंस्टीट्यूट छोड़ने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा. रोजाना पढ़ाई के घंटे बेहद थकाने वाले थे.’ उन्होंने बाद में एक ग्रुप ट्यूशन ज्वाइन कर लिया.

कनिष्क के मामले में भी सेहत को दरकिनार करने के संकेत साफतौर पर दिखाई दे रहे हैं. वह स्कूल जाने से डरता है और उसका एकमात्र दोस्त उसके माता-पिता का मोबाइल फोन हैं. जब वह पढ़ाई नहीं कर रहा होता है तो फोन पर गेम खेल रहा होता है या यूट्यूब पर कार्टून देख रहा होता है.

अपने ट्यूशन में चौथी कक्षा में पढ़ने वाला प्रखर को हमेशा कक्षा के टॉपर निमेश के बराबर आने के लिए कहा जाता है. लेकिन वह निमेश की तरह नहीं है. वह ‘जिज्ञासु और बातूनी’ है.

उनकी मां पूनम कहती हैं, ‘मैंने निमेश को ऑनलाइन क्लास में काफी सवाल पूछते हुए देखा है. इसलिए मैं चाहती हूं कि वह प्रखर की तरह हो जाए.’

पूनम और प्रियंका दोनों ही परेशान हैं कि वे अपने बच्चों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पा रही हैं. उनके पति ओवरटाइम काम करते हैं और ट्यूशन फीस भरने के लिए अतिरिक्त काम करते हैं. पूनम का ध्यान कनिष्क और उसकी छोटी बहन के बीच बंटा हुआ है. इसलिए, वह उसे बिना अपनी निगरानी के लगातार घंटों तक अध्ययन करने के लिए तैयार कर रही है.

डब्ल्यूएचओ के 2021 में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक, भारतीय महिलाएं अपने बच्चों की देखभाल में हर सप्ताह 7.5 घंटे और बाल विकास गतिविधियों पर 1.3 घंटे बिताती है. कुल मिलाकर पूरे सप्ताह में वह लगभग नौ घंटे बच्चों के साथ बिताती हैं. जबकि उसकी तुलना में अमेरिकी महिलाएं अपने बच्चों के साथ सप्ताह में 12.3 घंटे बिताती हैं.

डॉ देसाई ने कहा, ‘दोहरी आय वाले परिवारों में अपराध बोध काफी ज्यादा है, और कोचिंग सेंटर माता-पिता के इस डर का फायदा उठा रहे हैं.’

सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनने के लिए बल्हारा फुटबॉल छोड़ने को तैयार हैं. वह आईआईटी, दिल्ली में जाना चाहता है. लेकिन वह गणित में कमजोर है. इस विषय पर अपनी पकड़ बनाने के लिए वह स्कूल के बाद दो से तीन घंटे प्राइवेट ट्यूशन में बिताता है.

बल्हारा ने कहा, ‘स्कूल मुझे मेरे लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सकता है. मेरी मां को आईआईटी-दिल्ली के बारे में शायद ही कुछ पता हो और मेरे पिता बिजी रहते हैं.’

संस्कृति स्कूल की 12वीं कक्षा की छात्रा कहती है, ‘माता-पिता का दबाव, थका देने वाला स्कूल और ट्यूशन क्लास आप पर भारी पड़ते हैं.’

वह कहती हैं, ‘शुरुआत में आप शिकायत करते हैं, लेकिन फिर आपको यही अच्छा लगने लगता है. आईआईटी या मेडिकल कॉलेज में सीट पाने का यही एकमात्र तरीका है.’

दिप्रिंट ने जिन छात्रों से बात की उनमें से अधिकांश स्कूली समय को अपने करियर के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं. उन्हें लगता है कि नौकरी मिलने के बाद पढ़ाई का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला खत्म हो जाएगा. लेकिन कोचिंग इंडस्ट्री ने पहले ही वयस्कों को फिर से शामिल करने के लिए अपनी पहुंच का विस्तार कर लिया है. सेवा क्षेत्र की नौकरियों और एआई-संचालित अर्थव्यवस्था के निर्माण के बाद के युग में फलने-फूलने के लिए तैयार होने के लिए लगातार हम्सटर व्हील-स्टाइल अपग्रेड की जरूरत होती है. अपस्किलिंग और रीस्किलिंग नए प्रचलित शब्द हैं.

कोचिंग संस्कृति की महामारी सिर्फ स्कूली छात्रों तक ही सीमित नहीं है. नौकरी पा लेने पर भी यह खत्म नहीं होती है. क्योंकि दुनिया अब पलक झपकते ही बदल रही है.

फाइनेंशियल एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, जून 2022 तक, भारत में 150 कंपनियां, बिजनेस के लिए ऑनलाइन कोर्स कराने वाले कोर्सेरा इस्तेमाल कर रही थीं. जबकि पिछले साल यह संख्या 98 थी. UpGrad ने दावा किया कि वित्तीय वर्ष 2023 की पहली तिमाही में, इसने ‘एमबीए डोमेन में अपने शिक्षार्थियों के लिए 450 से अधिक करियर बदलाव की सुविधा प्रदान की थी.’

ऐसे ही एक ऑनलाइन प्लेटफार्म ने भारत को ‘विश्व गुरु’ बनाने का वादा करते हुए एक लोकप्रिय राष्ट्रीय दैनिक में पूरे पहले पन्ने पर एक बड़ा सा विज्ञापन निकाला- ‘हमारा जीवन भर सीखने वाला क्लासरूम बढ़ रहा है और हम तब तक नहीं रुकेंगे जब तक हम इसे 1.4 बिलियन तक मजबूत नहीं बना लेते.’

आगे बढ़ने के लिए दौड़ रहे भारतीयों के लिए जीवन कभी न खत्म होने वाली क्लास है जहां कभी छुट्टी की घंटी बजती ही नहीं है.

(अनुवाद: संघप्रिया मौर्या | संपादन: ऋषभ राज)

(इस फ़ीचर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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