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Monday, 6 May, 2024
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भारतीय स्कूलों में ट्रांसजेंडर और नॉन-बाइनरी टीचर्स के साथ कैसा होता है बर्ताव- ‘स्वीकार्यता सिर्फ दिखावटी’

इस महीने ट्रांसजेंडर टीचर जेन कौशिक ने कहा कि यूपी के एक स्कूल ने उनकी लैंगिक पहचान के कारण उन्हें निकाल दिया. अन्य नॉन-जेंडर-कंफर्मिंग टीचर को भी संघर्ष करना पड़ता है.

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नई दिल्ली: देश के तमाम स्कूलों में ट्रांसजेंडर और अपनी लैंगिक पहचान छिपाने से जूझ रहे टीचर्स के लिए सम्मानजनक तरीके से काम करना किसी कड़े संघर्ष से कम नहीं है. आमतौर पर क्लासरूम में कोई समस्या नहीं होती है, लेकिन स्टाफरूम में उन्हें भेदभाव का शिकार होना पड़ता है.

‘तुम आदमी की तरह क्यों कपड़े पहनते हो? तुम कब शादी करोगे? तुम प्राइड परेड में क्यों थे?’ ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिन्हें पूछकर कोलकाता के निजी स्कूलों के सहयोगी 32-वर्षीय अंग्रेज़ी और थिएटर के शिक्षक कोयल घोष को असहज महसूस करवाते रहे हैं.

घोष, जिन्हें आमतौर पर वे/उन्हें कहकर संबोधित किया जाता है, उनकी पहचान एक नॉन-बाइनरी और ट्रांसमैस्कुलिन की है. जन्म के समय उनका लिंग महिला के तौर पर निर्धारित किया गया, लेकिन उनकी लिंग अभिव्यक्ति पुल्लिंग है.

अपने सात साल के करियर में घोष ने पांच स्कूलों में काम किया है, लेकिन अपने साथियों की असंवेदनशीलता के कारण लंबे समय तक कहीं भी टिक पाना मुश्किल हो गया. घोष ने बताया कि एक बार तो उन्हें स्कूल प्रशासन की तरफ से एक मुश्किल विकल्प चुनने को कहा गया, स्वतंत्रता दिवस समारोह जैसे आयोजनों पर साड़ी पहनें या इस्तीफा दें. और घोष ने इस्तीफा दे दिया.

इस महीने के शुरुआत में 29-वर्षीय ट्रांसजेंडर महिला सामाजिक विज्ञान की शिक्षिका जेन कौशिक ने एक सोशल मीडिया वीडियो में दावा किया कि लिंग पहचान के कारण उन्हें उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी स्थित एक स्कूल से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया. उन्हें वहां पर काम शुरू किए सिर्फ एक सप्ताह ही बीता था.

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कौशिक ने दिप्रिंट को बताया, ‘मैं इस पद के लिए योग्य थी. स्कूल ने पूरी जांच-पड़ताल के बाद मुझे इस शर्त पर नौकरी दी थी कि मैं अपनी पहचान उजागर नहीं करूंगी.’

कौशिक ने कहा, उन्हें नौकरी की जरूरत थी इसलिए मजबूरी में यह शर्त मान ली. हालांकि, उन्हें जल्द ही ‘इस्तीफा’ देना पड़ा.

उन्होंने कहा, ‘मैं चौड़े कंधों वाली 6 फीट लंबी महिला हूं. साड़ी पहन सकती हूं और परंपरागत कपड़े भी पहन सकती हूं, लेकिन मैं अपने शरीर को कैसे बदलूं?’

कौशिक ने आरोप लगाया कि न केवल उन्होंने छात्रों को अपमानजनक ढंग से उसे ‘हिजड़ा’ कहते सुना, बल्कि एक पुरुष शिक्षक ने छात्रावास में रहने वाली छात्राओं से उनके ‘व्यवहार’ के बारे में पूछताछ की.

कौशिक ने दावा किया कि उन्होंने स्टूडेंट्स को समझाने की कोशिश की, उन्हें बताया कि वह एक ‘अल्पसंख्यक’ समुदाय से हैं. उनके जैसे लोगों की मदद के लिए कानून हैं, लेकिन वह अपने आसपास मौजूद वयस्क लोगों से निराश थीं.

कौशिक ने कहा, ‘केवल जागरूक छात्र ही आगे चलकर एक जागरूक व्यस्क बन सकते हैं, लेकिन जब वयस्क ही इस तरह की सोच को बढ़ावा देते रहेंगे तो बच्चों का नजरिया कैसे बदलेगा? एक ट्रांस व्यक्ति होना अपने आप में चुनौती है. जब पढ़े-लिखे लोगों के बीच इस तरह की बातें की जाती हो तो हमसे सामान्य तौर पर काम करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?’

पिछले हफ्ते, राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव से लैंगिक भेदभाव को लेकर कौशिक के आरोपों की जांच करने को कहा था. इस बीच, स्कूल अधिकारियों का दावा है कि उन्हें ‘अक्षमता’ के कारण निकाला गया था.

कौशिक अब न केवल उन्हें दोबारा काम पर रखने की मांग कर रही हैं बल्कि स्कूल की तरफ से माफी मांगे जाने और लिंग-संवेदनशीलता कार्यशालाएं आयोजित करने की भी मांग कर रही हैं.

विडंबना यह है कि घोष और कौशिक जैसे टीचर अपनी तमाम चुनौतियों के बावजूद अपेक्षाकृत ‘प्रिविलेज्ड’ हैं. वे अंग्रेज़ी में बातचीत करते हैं, शिक्षित हैं और निजी स्कूलों के हायरिंग राउंड में सफल होकर नौकरी पाने में सक्षम हैं.

सरकारी स्कूलों में तो मुश्किलें और भी अधिक हैं. हालांकि, इस साल कर्नाटक ट्रांस कैंडिडेट को एक प्रतिशत आरक्षण देने वाला पहला राज्य बन गया है. नवंबर में 10 आवेदकों में से इस समुदाय के तीन शिक्षकों को भर्ती किया गया है.

हालांकि, जब दिप्रिंट ने दिल्ली के कई निजी और सरकारी स्कूलों से बात की, तो उनमें से किसी में कोई ट्रांस शिक्षक नहीं मिला और न ही उन्हें उन कानूनी प्रावधानों के बारे में ही कोई जानकारी थी, जो ट्रांस वर्कर्स के लिए समान अवसर रोजगार के साथ-साथ उन्हें मिलने वाली बुनियादी सुविधाओं से जुड़े हैं.


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‘सफलता’ को लेकर अलग-अलग अनुभव

पीएचडी डिग्री धारक मानबी बंद्योपाध्याय को 2015 में जब पश्चिम बंगाल के कृष्णनगर महिला कॉलेज के बतौर प्रिंसिपल नियुक्त किया गया तो उन्हें किसी उच्च शिक्षण संस्थान में इतने उच्च पद पर पहुंचने में सफल रही देश की पहली ट्रांसजेंडर महिला बनने पर काफी सराहा गया था.

हालांकि, यह मुकाम उनके संघर्षों का अंत नहीं था. बंद्योपाध्याय ने दिप्रिंट को बताया कि उन्होंने 2016 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. चूंकि स्टाफ वर्कर्स और छात्र उनके खिलाफ हो गए थे और उन्होंने ‘घेराव’ किया था. उन्हें लग रहा था, ‘शीर्ष आधिकारिक पद पर किसी ट्रांस व्यक्ति को स्वीकार नहीं किया जा सकता.’

हालांकि, राज्य के तत्कालीन शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी ने उनका इस्तीफा स्वीकारने से साफ इनकार कर दिया और उन्होंने बतौर प्रिंसिपल अपना काम दोबारा से शुरू कर दिया. 2019 में उनका ट्रांसफर ढोला महाविद्यालय, कलकत्ता यूनिवर्सिटी में कर दिया गया. यहां तक कि उस कदम ने भी विवाद खड़ा कर दिया क्योंकि सरकारी आदेश में उनकी लिंग पहचान एक ‘पुरुष’ के तौर पर की गई थी.

अब भी, बंद्योपाध्याय को लैंगिक आधार पर सही मायने में स्वीकार्यता हासिल नहीं हुई है.

उन्होंने कहा, ‘ढके-छिपे तौर पर की जाने वाली ऐसी बातें मुझे सालों से परेशान करती रही हैं और मुझे लगता है कि लोगों को संवेदनशील बनाने का कोई तरीका नहीं है.’

मनाबी बंद्योपाध्याय, भारत की पहली ट्रांस कॉलेज प्रिंसिपल | स्पेशल अरेंजमेंट

सिर्फ स्कूल या कॉलेज ही नहीं, तमाम अन्य कार्यस्थलों में भी ट्रांस लोगों के लिए व्यावहारिक समस्याएं सामने आती हैं.

शिक्षिका कोयल घोष ट्रांसजेंडर लोगों और यौन पहचान को लेकर हाशिए पर रहने वाले अन्य समूहों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था सैप्पो फॉर इक्वैलिटी की मैनेजिंग ट्रस्टी भी हैं.

सामूहिक तौर पर संगठन ऐसी एजेंसियों को खोजने की कोशिश कर रहा है जो क्वियर और ट्रांस लोगों को नौकरी में मदद करें. वे जिन चीजों को लेकर जागरूकता बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, उनमें जेंडर न्यूट्रल टॉयलेट/वॉशरूम की आवश्यकता भी एक है.

घोष ने बताया, ‘हमारे पास ऐसे मामले आए हैं जहां समलैंगिक समुदाय के लोगों ने टॉयलेट का उपयोग किए बिना सीधे 12 घंटे काम किया.’

इसके अलावा, कई ट्रांसजेंडर को उनके कार्यस्थल में गलत लैंगिक पहचान की समस्या झेलनी पड़ती है. इसमें उनकी तरफ से इस्तेमाल सर्वनाम की अनदेखी करने से लेकर उनके ‘डेड नेम’ के उपयोग तक शामिल है. डेड नेम का आशय उनके जन्म के समय निर्धारित लिंग से है जिसे ट्रांस व्यक्ति अब अपनी पहचान नहीं मानता है.

ऐसे लोगों के लिए शिक्षण पेशा खासतौर पर अधिक चुनौतीपूर्ण हो सकता है क्योंकि इसमें काफी ज्यादा मेलजोल करना शामिल होता है.

यही कारण है कि पंजाब में पले-बढ़े 32 वर्षीय एक ट्रांस व्यक्ति ने अपनी बीएड डिग्री छोड़ने का फैसला किया.

नाम न छापने की शर्त पर उन्होंने दिप्रिंट से कहा कि वह हमेशा एक शिक्षक बनने की ख्वाहिश रखते थे, लेकिन भेदभाव के डर से वह पीछे हट गए.

उन्होंने कहा, ‘मैं अपने पैरों पर खड़े होने के लिए खुद को नौकरी के काबिल बनाना चाहता था. मुझे पता था कि अगर मेरी पहचान उजागर हुई तो कोई स्कूल मुझे नौकरी पर नहीं रखेगा. यहां तक कि जब मैंने अपनी स्ट्रीम बदली और एक बैंक ज्वाइन किया, तो मुझे पता था कि जैसे ही मेरी लैंगिक पहचान पता चलेगी, मुझे बाहर कर दिया जाएगा.’

वर्षों तक अपनी पहचान छिपाने की कोशिश के बाद महामारी के कारण अपनी बैंकिंग नौकरी खो देने के बाद आखिरकार वह 2020 में बाहर आ ही गई.


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कानून बदल गए, लेकिन समाज नहीं

दिप्रिंट ने समलैंगिक यानी LGBTQI+ समुदाय के जिन सदस्यों से बात की, उन्होंने कहा कि वे कार्यस्थलों पर भेदभाव के खिलाफ अधिक कठोर कानूनी सुरक्षा को लेकर पूरी मुखरता के साथ अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं.

हालांकि, इस दिशा में कुछ सफलता भी मिली है. 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में ट्रांसजेंडर लोगों को ‘तीसरे लिंग’ के तौर पर मान्यता दी और सरकार से उनके अधिकारों की रक्षा के लिए नीतियां बनाने को कहा था.

और अंततः 2019 में यह एक कानून के तौर पर सामने आया, जब ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम पारित हुआ. हालांकि, इसने शिक्षा, कार्य, स्वास्थ्य देखभाल आदि में भेदभाव को प्रतिबंधित तो किया, लेकिन रोजगार और स्वास्थ्य सेवाओं में बाधाएं दूर करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली शब्दावली पर पूरी तरह ध्यान न देने की वजह से इसकी आलोचना भी हुई.

केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने इस वर्ष फरवरी में एक अहम पहल की और सपोर्ट फॉर मार्जिनलाइज्ड इंटीविजुअल्स एंड लाइवलीहुड एंड इंटरप्राइजेज (स्माइल) स्कीम शुरू की. इस योजना का एक हिस्सा स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और कौशल विकास के प्रावधान जैसे क्षेत्रों में ट्रांसजेंडर लोगों के कल्याण पर केंद्रित है.

LGBTQI+ समुदाय के अधिकारों के लिए काम कर रहे मुंबई स्थित एक गैर-सरकारी संगठन हमसफर ट्रस्ट के एडवोकेसी मैनेजर तिनेश चोपड़े ने कहा कि नया कानून और स्माइल योजना स्वागत योग्य बदलाव हैं, लेकिन अभी भी ट्रांस लोगों के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है.

उन्होंने कहा जब रोजगार की बात आती है, तो कई ट्रांस लोगों के सेक्स वर्कर के तौर पर काम करने और भीख मांगने के अपने ‘पारंपरिक’ पेशे से बाहर निकलना काफी मुश्किल होता है.

चोपड़े ने कहा, ‘ट्रांसजेंडर और क्वीर बच्चों के सामने अच्छी डिग्री पाना सबसे बड़ी चुनौती है. सही दस्तावेज़ हासिल करना उनके लिए दूसरी बड़ी समस्या है. यह प्रक्रिया लंबी और थकाऊ है और उनमें से ज्यादातर इस प्रक्रिया को समझने के लिए पर्याप्त रूप से शिक्षित नहीं होते.’

भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय के बारे में बहुत कम डेटा उपलब्ध है, और ट्रांसजेंडर, इंटरसेक्स, नॉन-बाइनरी आदि जैसे शब्दों की परिभाषा को लेकर स्पष्टता का अभाव और भी ज्यादा है.

2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में 4.87 लाख ट्रांस नागरिक हैं.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) की तरफ से ट्रांसजेंडर अधिकारों पर 2017 में किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि देश में कम से कम 92 प्रतिशत ट्रांसजेंडर आर्थिक अवसरों से वंचित हैं और 96 प्रतिशत भीख मांगकर या सेक्स वर्कर के तौर पर अपना जीवन यापन करते हैं. अधिकांश स्कूल के समय ही अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं.

चोपड़े ने बताया कि यहां तक जो शिक्षित हैं और मुख्यधारा में शामिल होने के लिए काम की तलाश में जुटे हैं, उन्हें भी तमाम बड़ी बाधाओं को पार करना पड़ता है.

LGBTQI+ समुदाय के सदस्यों को प्रशिक्षित करना और उनके लिए अवसरों की तलाश में कॉरपोरेशन से संपर्क साधना उनके काम का ही एक हिस्सा है. उन्होंने कहा, हालांकि कुछ कंपनियां ट्रांस लोगों को रोजगार देने को तैयार हैं, लेकिन उनकी आवश्यकताएं अवास्तविक होती हैं.

उन्होंने कहा, ‘कभी-कभी वे हमसे संपर्क करते हैं और पांच-सात साल के कार्य अनुभव वाले ट्रांस व्यक्ति के बारे में पूछते हैं. किसी ट्रांस व्यक्ति को इस तरह का अनुभव कैसे होगा? (जब कंपनियों में) प्रवेश स्तर पर ही उनके लिए जगह खत्म कर दी जाती है.’

उन्होंने कहा, ‘ऐसे समय में हम अपने मौजूदा उम्मीदवारों को इन नौकरियों के लिए आगे बढ़ाते हैं. कोई सेक्स वर्कर अच्छे जीवन यापन के लिए तैयार होती है तो हम उसके कौशल को निखारने में उसकी मदद करते हैं और उसे सेल्स रोल में आगे बढ़ाते हैं. हम कार्य अनुभव वाले व्यक्ति की जगह अपने कुशल कर्मियों को आगे बढ़ाने की कोशिश करते हैं.’

हालांकि, कानूनी अधिकार मिलने के बावजूद सामाजिक दृष्टिकोण नहीं बदला है.

उदाहरण के तौर पर, केरल सरकार ने 2017 में काफी धूमधाम के साथ कोच्चि मेट्रो के लिए 21 ट्रांसजेंडर कर्मचारियों को काम पर रखा. हालांकि, इनमें से नौ कर्मचारियों ने एक महीने के भीतर ही इस्तीफा दे दिया. कारण यह था कि इलाके का कोई मकान मालिक उन्हें किराए पर घर देने को तैयार नहीं था.

फिर भारत के पहले ट्रांस पायलट एडम हैरी का मामला ही ले लीजिए. नागरिक उड्डयन महानिदेशालय (डीजीसीए) ने उन्हें उड़ान भरने के अयोग्य घोषित कर दिया गया था क्योंकि वह हार्मोन ट्रीटमेंट पर थे जो जीवनभर चलता रहेगा. हैरी अब जोमैटो के लिए एक डिलीवरी पर्सन के तौर पर काम कर रहे हैं.

इस साल सितंबर में, सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को एक ऐसी नीति लाने का आदेश दिया, जो तीन महीने के भीतर ट्रांस व्यक्तियों के लिए नौकरी के अवसर खोले. यह आदेश एक ट्रांस महिला शनावी पोन्नुसामी की तरफ से दायर एक याचिका पर सुनवाई के बाद दिया गया, जिसमें दावा किया गया था कि उन्हें लिंग पहचान के कारण केबिन क्रू सदस्य के तौर पर नौकरी देने से इनकार कर दिया गया था.

अदालत ने कहा कि भारत का ट्रांसजेंडर कानून एक ‘वाटरशेड मोमेंट’ था, लेकिन इस पर इसकी ‘मूल भावना’ के साथ अमल करने की जरूरत है.

(अनुवादः रावी द्विवेदी | संपादनः फाल्गुनी शर्मा)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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