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Sunday, 3 November, 2024
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जिला कलेक्टर, जिला मजिस्ट्रेट या डेवलपमेंट कमिश्नर- IAS अधिकारी को आखिर किस नाम से बुलाया जाना चाहिए

अब एक नई बहस शुरू हो गई है कि किसी जिले में तैनात आईएएस अधिकारी की जिम्मेदारियां स्पष्ट तौर पर बताने के लिए आखिर उसका पदनाम क्या होना चाहिए. वैसे नाम में क्या रखा है? जाहिर तौर पर, औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर आने की कोशिश...

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मोदी के नए भारत में सिर्फ शहरों और गलियों के नाम ही नहीं बदले गए हैं. उपनिवेशकालीन यानी गुलामी की मानसिकता से बाहर आने की यह कवायद अब सिविल सेवकों के पदनाम तक भी पहुंच गई है. जिला स्तर पर किसी आईएएस अधिकारी की पहली पोस्टिंग अब प्रशासनिक सुधारों को लेकर एक नई बहस का हिस्सा है.

जिला कलेक्टर? जिलाधिकारी? या डेवलपमेंट कमिश्नर? आईएएस अधिकारी के लिए कौन-सा संबोधन, स्पष्ट तौर पर बताता है कि उसकी भूमिका आखिर क्या है, भारत ब्रिटिश औपनिवेशिककालीन व्यवस्था से कितनी दूर पहुंचा है, और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि कौन-सा संबोधन पूरे देश में एकरूपता लाता है.

विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी ने हाल ही में एक किताब रिलीज की है जिसका नाम है—फ्रॉम रूल बाई लॉ टू द रूल ऑफ लॉ—25 रिफॉर्म्स टू डिकोलोनाइज इंडियाज लीगल सिस्टम. यह भारत के सामने पेश आने वाली प्रशासनिक चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य को दर्शाती है.

किताब में बताया गया है, ‘जिला स्तर पर सेवाएं और जिला अधिकारी के हाथों में काफी शक्तियां प्रदान करना भारतीय ब्रिटिश प्रशासन का एक महत्वपूर्ण इनोवेशन था और इस व्यवस्था पर निरंतर निर्भरता मौजूदा प्रशासनिक सेवाओं में औपनिवेशिककाल की एक बड़ी छाया है. तथ्य यह भी है कि जिले में इस संस्था के प्रति भावनाएं जनता के मन में इस कदर बैठ चुकी हैं कि उस स्तर पर किसी भी अन्य स्थानीय प्राधिकरण के लिए कोई जगह नहीं बचती है.’

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय इस मुद्दे पर काफी मुखर हैं. उन्होंने कम से कम 248 निरर्थक और प्रचलन से बाहर हो चुके औपनिवेशिक कानूनों को खत्म करने दिशा में अहम भूमिका निभाई है. द इंडियन एक्सप्रेस में अपने एक लेख में देबरॉय लिखते हैं कि, देशभर में सभी नीतियों को एकीकृत किया जा रहा है, इसलिए जिला कलेक्टर का पदनाम और भूमिका को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए.

अपने लेख में देबराय ने कहा ‘कई नीतियों को अब पूरे भारत में एकीकृत किया जा रहा है. यह एक देश है. डीसी/डीएम के कामकाज को भी क्यों नहीं एकीकृत और मानकीकृत कर दिया जाना चाहिए? जो लोग जानते हैं कि उन्हें पता है कि इसका संबंध 1772 से है, इसलिए ये सवाल एक औपनिवेशिक विरासत से जुड़े हैं.’

हालांकि, हर कोई इस बात से सहमत नहीं है कि केवल नाम बदलने से ही मानसिकता बदल सकती है.

एक पद, कई जिम्मेदारियां

एक डीएम के जिम्मे कई काम होते हैं. वे कई विभागों—स्वास्थ्य, राजस्व, शिक्षा आदि के साथ समन्वय करते हैं. नाम के साथ-साथ दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के तहत शक्तियां अनिवार्य हैं. उनकी मौजूदा भूमिका विकास, राजस्व, प्रोटोकॉल और अंतर्विभागीय मुद्दों का समाधान करने में मददगार है.

लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी (एलबीएसएनएए) के पूर्व निदेशक और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल डायरेक्टर संजीव चोपड़ा कहते हैं, ‘डीएम की जगह नाम बदलकर डेवलपमेंट कमिश्नर करना काफी सरल है लेकिन वांछनीय नहीं है. कोविड से निपटने के उपाय कारगर रहे क्योंकि एनडीएमए के तहत, वे डीएम ही थे जिनके पास शक्तियां निहित थी. चुनावों और जिले में अन्य तमाम तरह के कार्यों के लिए भी यह सही स्तर रहेगा.’

किताबों से लेकर फिल्मों और नेटफ्लिक्स सीरीज तक आईएएस अधिकारियों का जीवन कई वजहों से लुभाता रहा है. आम तौर पर माना जाता है कि आईएएस अधिकारी किसी जिले में राजा या रानी के जैसा रुतबा रखते है. आईएएस उपमन्यु चटर्जी का उपन्यास इंग्लिश अगस्त एक जिला मजिस्ट्रेट के जीवन और उसके कामकाज के अच्छे-बुरे पहलुओं का सामने लाता है.

फिर, बॉलीवुड फिल्म इंसाफ-द जस्टिस भी सामने है. इसमें विश्वनाथ प्रसाद—जिसकी भूमिका संजय सूरी ने निभाई है—एक आईएएस अधिकारी है जो बॉम्बे में रहता है और न्याय के लिए लड़ता है. फिल्म राजनीति और सत्ता के स्याह पक्ष को चित्रित करती है. राज्य, राजनेताओं और उनके गुंडों के हाथों उत्पीड़न से निपटने में असमर्थ होने पर प्रसाद आत्महत्या कर लेता है.


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प्रशासनिक जिम्मेदारियों की ओवरलैपिंग

कई सेवानिवृत्त सिविल सेवकों का मानना है कि डीएम के पदनाम में बदलाव से उनकी भूमिका और उनकी शक्तियों को लेकर भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो सकती है.

एक जिला कलेक्टर जिले में राजस्व प्रशासन के मामले देखता है और जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) सामान्य प्रशासन का मुख्य प्रभारी होता है, और कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए भी जिम्मेदार होता है. भारत के लगभग हर जिले में डीएम के पास जिला कलेक्टर की शक्ति भी होती है.

कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में जिला कलेक्टर और जिला परिषद के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के पद अलग-अलग होते हैं. यदि कलेक्टर को डेवलपमेंट कमिश्नर नाम किया जाता है तो कलेक्टर और मुख्य कार्यकारी अधिकारी की भूमिकाओं के बीच भ्रम होगा.

सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी वी. रमानी ने कहा, ‘यदि कलेक्टर को डेवलपमेंट कमिश्नर के तौर पर नामित किया जाता है तो उनके कामकाज पर जिला परिषद और राज्य सरकार के दोहरे नियंत्रण की समस्या को हल करना आवश्यक होगा. साथ ही ग्रामीण और शहरी दोनों स्थानीय निकायों को अधिक वित्तीय और प्रशासनिक स्वायत्तता देने का मुद्दा भी अभी अनसुलझा है.’

जिला प्रशासन राज्य सरकारों का कार्यक्षेत्र है. पंजाब, हरियाणा और रेग्युलेशन डिस्ट्रिक्ट में उपायुक्त पद को तरजीह दी जाती है. हालांकि कानूनी शब्दावली में यह हमेशा जिला मजिस्ट्रेट होता है. संजीव चोपड़ा कहते हैं कि सीआरपीसी ही किसी डीएम को परिभाषित करती है. अधिसूचना गृह विभाग की तरफ से जारी की जाती है.

ज्यादातर मामलों में किसी एक ही अधिकारी को भू-राजस्व विभाग की तरफ से राजस्व शक्तियां प्रदान की जाती हैं.

कुछ पूर्व अधिकारियों का मानना है कि यदि भारत को औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर आना है तो सिर्फ नाम बदलने से काम नहीं चलेगा और भी बहुत कुछ बदलने की जरूरत पड़ेगी.

औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकलने के लिए हमें जिला परिषद और जिला पंचायत के बीच की व्यवस्था को सुदृढ़ करना होगा.

सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी टी.आर. रघुनंदन ने कहा, ‘नाम बदलने से कुछ नहीं होगा. जिला अधिकारी, डीएम, कलेक्टर कुछ भी कहा जाए, लेकिन अपने पद को लेकर उनकी मानसिकता वही रहेगी. वे खुद को जिले का राजा मानते हैं. जिले में पंचायत के लोग काम करते हैं, और ये अधिकारी श्रेय लेते हैं. इसलिए नाम बदलना कोई विकल्प नहीं है, यह एक संस्थागत समस्या है, जिसे ठीक से सुलझाना होगा.’

पश्चिम बंगाल कैडर के 2016 बैच के आईएएस अधिकारी जितिन यादव कहते हैं, ‘मैं समान नामों से सहमत हूं. अधिक शहरीकरण और लोगों के विभिन्न राज्यों में जाने से इसे लेकर भ्रम की स्थिति पैदा होती है. नाम समान होना चाहिए, हालांकि यह नहीं कह सकता कि डेवलपमेंट कमिश्नर सही शब्द है या नहीं.’

उपनिवेशवाद की छाया से बाहर आ रही भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था

नरेंद्र मोदी सरकार ने बिना सोचे-समझे अपनाए जाते रहे दशकों पुराने रीति-रिवाजों को खत्म करने की एक महत्वाकांक्षी परियोजना शुरू की है. यह एक राजनीतिक कवायद के साथ-साथ राष्ट्र निर्माण का प्रयास भी है.

गौरतलब है कि इस साल के शुरुआत में बीटिंग रिट्रीट समारोह से पारंपरिक ईसाई धुन एबाइड बाई मी को हटाकर ऐ मेरे वतन के लोगों को शुरू किया गया था. कुछ महीने पहले, भारतीय नौसेना के झंडे पर बने सेंट जॉर्ज के क्रॉस को मराठा योद्धा राजा शिवाजी के प्रतीक चिन्ह वाली मुहर से बदला गया.

स्वतंत्रता दिवस पर अपने संबोधन में पीएम मोदी ने देश से उपनिवेशवाद के सभी अवशेषों को हटाने का आग्रह किया था. मोदी ने अपने भाषण में कहा था, ‘हम बड़े संकल्पों और विकसित भारत की प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ेंगे और हम अपने भीतर और अपने आसपास से गुलामी के सभी निशान मिटा देंगे.’ पीएम ने राष्ट्रीय राजधानी में ‘कर्तव्य पथ’ का उद्घाटन किया. इंडिया गेट पर ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम की प्रतिमा की जगह नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा लगाई गई.

इस साल के शुरू में अमर जवान ज्योति को राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में ज्योति के साथ विलीन कर दिया गया था.

इससे पूर्व, 2019 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने उस समय राष्ट्र का ध्यान आकर्षित किया जब वह ब्रीफकेस में बजट लाने की औपनिवेशिक परंपरा की जगह बही खाता लेकर संसद पहुंचीं. मोदी सरकार रेस कोर्स रोड का नाम बदलकर लोक कल्याण मार्ग भी कर चुकी है. 2014 में सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार ने 1,500 से अधिक पुराने और अप्रचलित कानूनों को निरस्त किया है. इनमें से अधिकांश ब्रिटिशकालीन कानूनों इस्तेमाल में नहीं आते थे.

लेकिन केवल पदनाम में बदलाव से इतर जरूरी यह है कि भारत का स्टील फ्रेम कहे जाने वाले सिविल सेवकों के व्यवहार और कार्य संस्कृति में बदलाव आए. और सोशल मीडिया से शुरू होकर कुछ बदलाव नजर भी आ रहा है.

यादव कहते हैं, ‘सोशल मीडिया और कुछ अन्य बदलावों के साथ डीएम अधिक सुलभ और भरोसेमंद हो गए हैं. पहले तो लोग शायद ही कभी अधिकारियों के बारे जानते थे. लेकिन अब बाबूगिरी वाली मानसिकता धीरे-धीरे खत्म हो रही है.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवादः रावी द्विवेदी)


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