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Friday, 19 April, 2024
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मंदिर और कला प्रदर्शकों को बाहर रखने की संस्कृति- येसुदास से लेकर इस मुस्लिम डांसर की ये है कहानी

भरतनाट्यम नृत्यांगना मानसिया, जिन्हें केरल के एक मंदिर में अपनी कला के प्रदर्शन से वंचित कर दिया गया था, ने इस बात पर जोर देकर कहा कि उन्होंने उनका निमंत्रण वापस लिए जाने का मुद्दा इसलिए उठाया क्योंकि वह एक बड़ा सवाल उठा रही थीं.

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जब भरतनाट्यम नृत्यांगना मानसिया ने 27 मार्च को फेसबुक पर केरल के इरिंजालकुडा स्थित प्रसिद्ध कूडलमानिक्यम मंदिर में उनके हिन्दू न होने के कारण अपनी कला का प्रदर्शन करने से मना किए जाने के बारे में लिखा, तो उन्हें नहीं पता था कि उनकी यह पोस्ट वायरल हो जाएगी. लेकिन मानसिया ने एक संवेदनशील रग को छु दिया था और यह है कला प्रदर्शन के माध्यम से चलने वाला धार्मिक एजेंडा.

एक ओर जहां विश्व हिंदू परिषद ने तुरंत केरल की कम्युनिस्ट सरकार द्वारा हिंदू समुदाय को खलनायक बनाने के लिए एक चाल का आरोप लगाया, वहीं सीपीआई (एम) समर्थक एक सांस्कृतिक समूह ने इस नृत्यांगना को मंच प्रदान किये जाने से वंचित करने के लिए मंदिर प्रबंधन की निंदा की.

सोमवार को, मानसिया ने मंदिर, जहां वह मूल रूप से अपनी कला का प्रदर्शन करने वाली थी, से सिर्फ 2 किमी दूर इरिंजालकुडा टाउन हॉल में एक अपेक्षाकृत अधिक धर्मनिरपेक्ष मंच पर अपना प्रदर्शन किया. उन्होंने दर्शकों से कहा, ‘मेरा मानना है कि हमें उस समय काल में प्रवेश करने के लिए लंबे समय तक इंतजार नहीं करना पड़ेगा जब कला का कोई धर्म नहीं होता है.’ उन्होंने कहा, ‘राज्य में कला के लिए और अधिक लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष मंचों का निर्माण करें. आइए हम उस युग की सुबह की प्रतीक्षा करें जब किसी व्यक्ति की आवाज किसी और के कानों का संगीत होगी. ‘

लेकिन मानसिया के साथ जो कुछ भी हुआ वह कोई अकेली घटना नहीं है और ऐसा पहला मौका भी नहीं है जब खुद मानसिया के साथ ऐसा हुआ है. मगर, जैसा कि उन्होंने दिप्रिंट को बताया इस बार उन्हें जिस तरह के कठोर तरीके से यह बात बताई गई, उससे उन्हें ज्यादा दुख हुआ.

एक अन्य भरतनाट्यम नृत्यांगना सौम्या सुकुमारन, जो ईसाई धर्म से हैं, ने भी इस बात का खुलासा किया कि कैसे उन्हें भी मंदिर प्रशासन की तरफ से भेदभाव का सामना करना पड़ा था. 15 से 25 अप्रैल के बीच होने वाले इसी उत्सव से तीन अन्य नर्तकों ने अपने नाम वापस ले लिए हैं. मानसिया के पोस्ट के वायरल होने के बाद, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा उन्होंने केरल में विहिप द्वारा नियंत्रित सभी मंदिरों में प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किया गया था – मगर उन्होंने मना कर दिया.

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मानसिया ने कहा, ‘मुझे एक समुदाय ने दूसरे समुदाय की कला का प्रदर्शन करने के लिए बहिष्कृत कर दिया था. अब वह दूसरा समुदाय मुझसे कह रहा है कि मैं इस कला का प्रदर्शन नहीं कर सकती क्योंकि मैं किसी अन्य समुदाय से हूं. मैं तो अपनी किसी गलती के बिना ही बीच में फंस गयी हूं.’

उसने कहा कि वह धार्मिक नहीं है, और उनके लिए नृत्य धर्म के बारे में नहीं है. उन्होंने कहा, ‘नृत्य तो प्रेम है. यह प्रेम का साधन है.’

कलाकारों का बाहर किया जाना कला का हिस्सा रहा है

प्रदर्शन कलाओं के की दुनिया भीतर कलाकारों को बाहर रखे जाने का एक लंबा इतिहास रहा है, जिसके बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि यह भरतनाट्यम जैसी कला स्वरूपों (आर्ट फॉर्म्स) के ब्राह्मणवादी विनियोग (appropriation) की उपज है.

वंशानुगत रूप से भरतनाट्यम नर्तक और सामाजिक कार्यकर्ता नृत्य पिल्लई, जिन्होंने इस बारे में इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में भी लिखा है, ने कहा, ‘कला के धर्म और जाति से परे होने की यह धारणा आदर्शवादी है. यह विनियोग के उनके हाल के इतिहास की वास्तविकताओं को नहीं दर्शाता है. ये धारणाएं हमें उस निरंतर बहिष्करण (लोगों को बाहर रखने) की बारीक समझ विकसित करने से दूर रखती हैं जो अब कला जगत का हिस्सा बन चुका है.’

भरतनाट्यम की जड़ें वंशानुगत कलाकारों (जिन्हें आज के दिन में कलंकित शब्द ‘देवदासी’ द्वारा संदर्भित किया जाता है) के द्वारा किए जाने वाले नृत्य में निहित है – लेकिन इसे दबंग जातियों और उच्च वर्गों द्वारा भी प्रदर्शित किये जाने के लिए एक सम्मानजनक नृत्य रूप के रूप में पुनर्निर्मित (दोबारा तैयार किया) गया था. पिछले कई वर्षों के दौरान एक कठोर संरचना, जो ‘अश्लीलता से रहित’ ‘कलात्मक परंपरा’ को प्राथमिकता देता है- के लिए जगह बनाने के लिए इस कला के मूल प्रदर्शकों को हाशिए पर रखा गया है. प्रख्यात भरतनाट्यम नृत्यांगना रुक्मिणी देवी ने कुछ इसी तरह इस नृत्य स्वरूप के विकास का वर्णन किया है.

आज, यह नृत्य स्वरूप और अधिक सुलभ हो गया है, लेकिन इसकी पुलिसिंग (निगरानी) – मानसिया के मामले की तरह ही – आज भी जारी है. कर्नाटक गायक और लेखक टी.एम. कृष्णा ने कहा, ‘विडंबना यह है कि मदिरों और उन वंशानुगत नर्तकियों, जिन्होंने सदियों से इनके परिसर में इस कला का अभ्यास किया है, की वजह से है आपके पास भरतनाट्यम नाम की कोई चीज है.‘

लेकिन पिल्लई ने इस बारे में आगाह किया कि भरतनाट्यम नर्तकों को इसके कला सौंदर्य शास्‍त्र (ऐस्थेटिक्स) के बारे में भी जागरूक रहना चाहिए. मानसिया की नृत्य प्रदर्शन की शैली पुनर्निर्मित भरतनाट्यम के ऐस्थेटिक्स में निहित है और उसकी धार्मिक पहचान के बाबजूद किसी भी तरह से विध्वंसकारी (सबवेरिस्वे) नहीं है. पिल्लै ने कहा कि पुनर्निर्मित ऐस्थेटिक्स ब्राह्मणवादी है. इसके प्रदर्शन हिंदू पौराणिक कथाओं के इर्द-गिर्द घूमते हैं, और यह दबंग जातियों के धार्मिक कृत्यों को बरक़रार रखते हुए असमान शक्ति संरचनाओं की नकल करता है.

वे कहती हैं, ‘जब भरतनाट्यम जैसे नृत्य का व्यापक रूप से हिंदुत्व के प्रसार हेतु माध्यम के रूप में उपयोग किया जाता है, तो किसी भी कलाकार – जो इसके खिलाफ है और दलित, बहुजन, आदिवासी, समलैंगिक लोगों, धार्मिक अल्पसंख्यक आदि का समर्थन करता- को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि उनकी कला में ऐसा कोई ऐस्थेटिक्स और सामग्री न हो जो इस बहिष्करणवाद (एक्सक्लूसियनिस्म( को बढ़ावा देती है.’


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मंदिर का स्थल : धार्मिक या सांस्कृतिक?

यह केवल नृत्य शैली के बारे में नहीं है – मंदिरों द्वारा लोगों के बहिष्कार का इतिहास भी रहा है. इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण सैकड़ों हिंदू भजनों को अपनी आवाज देने वाले मलयाली ईसाई के.जे. येसुदास का है.

येसुदास को केरल के गुरुवायुर मंदिर में प्रवेश से मना कर दिए जाने का मामला काफी प्रसिद्ध रहा है . उन्होंने कथित तौर पर कहा था, ‘मंदिर में कीड़े-मकोड़ों का भी प्रवेश संभव है, लेकिन मेरा नहीं.’

केरल के मंदिर देवस्वम बोर्ड द्वारा प्रशासित होते हैं, जो राज्य के नेतृत्व वाले सामाजिक-धार्मिक ट्रस्ट हैं. वे मंदिर की संपत्ति की देखरेख करते हैं और उनके कार्यक्रमों एवं धार्मिक गतिविधियों का आयोजन करते हैं. राज्य में पांच देवस्वम बोर्ड हैं जो लगभग 3,000 मंदिरों का प्रबंधन करते हैं.

येसुदास के मामले में, देवस्वम के तत्कालीन केरल मंत्री, कदकमपल्ली सुरेंद्रन ने कहा था कि हर मंदिर के अपने नियम होते हैं – और वे रातोंरात नहीं बदले जा सकते. मानसिया और सौम्या सुकुमारन दोनों को एक ही मंदिर के एक ही मंच से वंचित कर दिया गया था: यह मंदिर है केरल के इरिंजालकुडा स्थित प्रसिद्ध कूडलमानिक्यम मंदिर, जिसे कूडलमानिक्यम देवस्वम बोर्ड द्वारा प्रबंधित किया जाता है.

भरतनाट्यम नृत्यांगना प्रतिभा प्रह्लाद के अनुसार, अन्य शास्त्रीय भारतीय नृत्य स्वरूपों की तरह ही भरतनाट्यम भी सोसिओ-एस्थेटिक (समाजिक सौंदर्यशाश्त्र वाला) है और उसी समाज में रचा-बसा जिससे यह उत्पन्न हुआ है. उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि मंदिरों के बाहरी क्षेत्र, जहां कला प्रदर्शन होते हैं, सांस्कृतिक स्थान हैं, जबकि आंतरिक क्षेत्र, गर्भगृह, धार्मिक स्थल हैं. वे कहती हैं, ‘मेरा अपना मानना है कि कोई भी मंदिर किसी कव्वाली की मेजबानी नहीं कर सकता और न ही उसे ऐसा करना चाहिए, लेकिन वह किसी गैर-हिंदू द्वारा भरतनाट्यम प्रदर्शन की मेजबानी कर सकता है.’

प्रह्लाद ने कहा, ‘[देवस्वोम बोर्ड] ने इसे कला बनाम धर्म की बहस में बदल दिया है, जो हास्यास्पद है, क्योंकि सबसे पहले तो हमारी कलाओं का ही एक मजबूत धार्मिक आधार है.’

इस बीच, मानसिया ने दिप्रिंट को बताया कि मंदिर नृत्य के लोकतांत्रिक और सुलभता वाले पहलुओं को देखने के लिए तैयार ही नहीं था. उन्होंने कहा, ‘नृत्य सीखते समय मेरे पास इतना जोरदार नजरिया नहीं थे.’ लेकिन यह सब तब बदल गया जब उन्होंने मल्लापुरम, जहां उनका परिवार रहता है, में उनकी मां के निधन के बाद से मुस्लिम समुदाय की तरफ से उनका बहिष्कार किये जाने को अनुभव करना शुरू किया.

टीएम कृष्णा ने कहा, ‘इस मंदिर में जो कुछ हो रहा है वह इस कला के सामाजिक परिवेश में जो हो रहा है उसी का विस्तार है. संस्कृति और अध्यात्म में संकीर्णता को कोई स्थान नहीं दिया जा सकता है.’ उन्होंने कहा, ‘चाहे उनमें आस्था हो या न हो, मगर उनकी कला में इस मंदिर परिसर में प्रवेश करने वालों की तुलना में अधिक भक्ति है.’

मानसिया ने इस बात पर जोर देकर कहा कि उन्होंने उनके निमंत्रण को वापस लिए जाने के बारे में फेसबुक पर पोस्ट उनके करियर की खातिर नहीं किया. वह एक बड़ा सवाल उठा रही थीं.

उन्होंने कहा, ‘मैंने मंदिर से कहा कि अगर वे मुझे नहीं चाहते तो मुझे भी उनका मंच नहीं चाहिए. मुझे सिर्फ इतनी उम्मीद है कि वे इस बारे में जरूर सोचेंगे कि उन्होंने मुझे मंच से वंचित क्यों किया?‘

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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