चीन के विस्तारवाद के खिलाफ भारत का बेहद सख्त रुख चाहते थे सरदार पटेल. उन्होंने कहा था कि भारत को एक साथ दो मोर्चों- चीन और पाकिस्तान पर भिड़ना है. खासकर तिब्बत संबंधी चीन की नीति को लेकर वे सशंकित थे.
भारतीय लोकतंत्र की अराजक प्रकृति ने 19 जून की सर्वदलीय बैठक में दिए गए भ्रामक संदेशों के बवंडर से प्रधानमंत्री मोदी को बचा लिया, लेकिन गलवान संघर्ष के दो संदेश दुनिया तक पहुंच चुके हैं.
अधिकांश भारतीय मिलेनियल्स की राजनीतिक स्मृति अटल बिहारी वाजपेयी से शुरू होती है, जवाहरलाल नेहरू से नहीं. इसलिए, प्रधान मंत्रीनरेंद्र मोदी को पिछले 30 वर्षों के संदर्भ में आंका जाएगा, और निश्चित रूप से 70 वर्षों से फर्क नहीं पड़ने वाला.
स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी आज हमारे बीच होते तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, उनकी सरकार, पार्टी और समर्थकों के इस रवैये को लेकर क्या सोचते? इस पर भी सोचिये जरा.
अपने ड्राइंग रूम में बैठकर मोदी सरकार और सशस्त्र सेनाओं पर दबाव डालना, ये जाने बिना कि 15,000 फीट की ऊंचाई वाली एलएसी पर क्या चल रहा है, गैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार है.
शनिवार को एक दुर्लभ घटना हुई— सरकार ने शुक्रवार की सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयानों पर स्पष्टीकरण जारी किया. यह उनकी इस टिप्पणी की ‘शरारात भरी व्याख्या’ का खंडन था कि 'हमारी जमीन पर कोई घुसपैठ नहीं हुई है'.
भारत में एक राष्ट्रव्यापी शांतिपूर्ण आंदोलन वक्त की ज़रूरत है, जातीय संबंधों में बदलाव लाने और मनु को मुख्य खलनायक का दर्जा दिलाने के लिए इस आंदोलन को 'कलर रिवॉल्यूशन' से प्रेरणा लेनी होगी.
राज्य और पार्टी का घाल-मेल कम्युनिस्ट तानाशाहियों की विशेषता रही है. पश्चिमी लोकतंत्र में कहीं ऐसा नहीं, पर भारत में वही कर डाला गया, जो संविधान को व्यवहार में तहस-नहस करके हुआ.