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Sunday, 13 October, 2024
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1962 का रोना रोने या मोदी सरकार और सेना की आलोचना करने से चीन का ही हित सधता है

अपने ड्राइंग रूम में बैठकर मोदी सरकार और सशस्त्र सेनाओं पर दबाव डालना, ये जाने बिना कि 15,000 फीट की ऊंचाई वाली एलएसी पर क्या चल रहा है, गैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार है.

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स्वतंत्र भारत के इतिहास में कभी भी देश को इतने कठिन दौर का, इतने लंबे समय तक सामना नहीं करना पड़ा है. चुनौतियां अभूतपूर्व हैं. राष्ट्र एक ओर जहां कोरोनावायरस महामारी से जूझ रहा है, वहीं वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीन के साथ अचानक तनाव की स्थिति बनने से हमारी समस्याएं बढ़ गई हैं. सीमा पर हुए संघर्ष में हमारी सेना के 20 जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ी और संभवतः 40 से अधिक चीनी सैनिक मारे गए.

एलएसी पर हुई झड़प और विशेष रूप से भारतीय सैनिकों की मौत ने भारत में तूफान खड़ा कर दिया है. इस संवेदनशील दौर में नरेंद्र मोदी सरकार और सेना के खिलाफ़ घातक टिप्पणियों और बेलगाम आलोचनाओं वाले लेखों को पढ़कर निश्चय ही निराशा होती है. क्या हम वास्तव में उन पर अपने सैनिकों की मौत का आरोप लगा रहे हैं?

ज़ाहिर है इस तरह की टिप्पणियों से हमारे शत्रुओं के मन में हमारी एक बुरी छवि बनेगी. इसी तरह 60 साल पहले की विफलताओं का उल्लेख करते हुए धारणाएं और अटकलें पेश करना भी अनुचित है. आज के युग में कोई भी केवल एक बटन दबाकर गूगल पर ऐतिहासिक डेटा और नक्शे ढूंढ़ सकता है. जब हम 1962 के युद्ध की पराजय का रोना रोते हैं, तो हम चीन का हित साध रहे होते हैं. इस तरह की बातों से चीन के असाधारण रूप से शक्तिशाली होने का भ्रम फैलता है.

मोदी सरकार और सेना को निश्चित रूप से चीन की गतिविधियों की जानकारी थी लेकिन इरादों को लेकर हमेशा अनिश्चितता होती है, और ये बात हम पर भी लागू होती है. चीन और भारत 60 साल पहले की तुलना में आज बहुत भिन्न हैं. लोगों, नेतृत्व, सेना और सबसे बढ़कर- उपलब्ध प्रौद्योगिकी में पीढ़ीगत परिवर्तन साफ देखे जा सकते हैं. ऐसे में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है राष्ट्र का दृष्टिकोण.

कम्युनिस्ट शासित होने के नाते चीन के लिए सूचनाओं पर नियंत्रण करना आसान है. गलत सूचनाओं या अधूरी जानकारी के कारण, यहां भारत में बड़ी संख्या में लोग उनके हाथों में खेलने के लिए तैयार हैं. चीन हमारा शत्रु है. हमारे परिचित और संबंधी सीमा पर उनके सामने डटे हुए हैं.


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भारत तैयार है

हम यह भूल जाते हैं कि सेना या सरकार के भीतर जिनके हाथों में इन विषयों की ज़िम्मेदारी है उनके पास नवीनतम सूचनाओं का निरंतर प्रवाह उपलब्ध होता है. देशभर में तैनात हज़ारों कर्मचारी और सैकड़ों सेवारत सैन्य अधिकारी बिना किसी तथ्य की अनदेखी किए रीयल-टाइम में सूचनाओं को अद्यतन करते रहते हैं. उनके पास ये सुनिश्चित करने की एक बड़ी जिम्मेदारी है कि उनके सहकर्मी और साजो-सामान युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार रहें और राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित हरेक सूचना को अच्छी तरह संभालकर रखा जाए.

सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीएस) का किसी कार्रवाई के लिए निर्देश देने से पहले सैनिक कमांडरों, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) और इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के साथ मिलकर, जितनी बार ज़रूरी लगे, स्थिति की समीक्षा करना एक सामान्य प्रक्रिया है. संबंधित अधिकारियों द्वारा बताए जाने तक, हम उन बैठकों में हुई चर्चाओं, उनके निर्णयों और 15-16 जून को अपनाए गए विकल्पों के औचित्य के बारे में कभी नहीं जान पाएंगे. इसी तरह परिणाम सामने आने (उदाहरण के लिए बालाकोट पर हमला) तक हम सेना के इरादों या उनकी रणनीतियों के बारे में भी नहीं जान सकते. ऑपरेशनल महत्व की कोई भी जानकारी सेना और सरकार के दायरे के बाहर नहीं बताई जा सकती है.

आज भारत की सशस्त्र सेनाओं का नेतृत्व ऐसे प्रतिभाशाली पुरुषों और महिलाओं के हाथों में है जो अनुभवों और ज़िम्मेदारियों के आधार पर अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में कहीं बेहतर सैनिक हैं, और उनके पास बेहतरीन प्रौद्योगिकी वाले ऐसे साजो-सामान हैं जिनके बारे शायद जनता और पूर्व सैनिकों को भी जानकारी नहीं हो. हमारे सैनिक अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में कहीं अधिक योग्य और तत्पर साबित हुए हैं. दुश्मनों को चौंकाने वाले उपाय और आपातकालीन विकल्प हमेशा सैन्य योजनाओं का हिस्सा होते हैं. उनके पास इतिहास, बेहतरीन परंपराओं और वैश्विक अनुभवों से सीखने के भी मौके हैं – जो पूर्व सैनिकों को शायद नहीं मिले हों. कारगिल युद्ध की शुरुआत पर भारत में लोगों को शायद आश्चर्य हुआ होगा, लेकिन हमने दृढ़ता के साथ लड़ते हुए उस युद्ध को जीता. किसी को भी भारत की सैन्य क्षमता पर संदेह नहीं है. तो फिर अनभिज्ञ और आसानी से प्रभावित हो जाने वाली जनता के मन में संदेह पैदा करना कहां तक उचित है?

आज कुछ लोग गलवान और पैंगोंग क्षेत्रों में चीन के पांव जमाने से पहले ही हमले नहीं करने के लिए सरकार को दोषी ठहरा रहे हैं लेकिन हमें सारे तथ्य मालूम नहीं हैं. इस तरह की कार्रवाई अगर की जाती, तो उसे सोचे-समझे बिना की गई प्रतिक्रिया के रूप में देखा जाता. ये सरकार का अख्तियार है कि वह क्या रुख अपनाती है, कार्रवाई करने का फैसला करती है या इंतज़ार करती है. वर्तमान रुख धैर्यपूर्वक इंतज़ार का है. हजारों बहादुर योद्धा सैन्य निर्देशों का पालन करते हुए सीमा पर मौजूद हैं. हमें भी अपने नेतृत्व पर इसी तरह विश्वास और भरोसा करना चाहिए.

अपने ड्राइंग रूम में बैठकर सरकार पर दबाव डालना अत्यंत गैरजिम्मेदारी की बात है. हम 15 हज़ार फीट की ऊंचाई पर, कंकड़-पत्थरों से भरी फिसलन भरी ढलान पर, जिसके नीचे मिनटों में जमा डालने वाली नदी हो, दुश्मनों को मारने (अन्यथा मरने) के लिए गुत्थमगुत्था होकर लड़ रहे सैनिकों – वो भी रात के अंधेरे में – की मनोदशा की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं.

मैं भी ‘पूर्व सैनिकों के समूह’ में आता हूं. मेरा मानना है, जिसके कि पर्याप्त आधार हैं, कि वर्तमान दौर के चीनी सैनिकों और नेतृत्व को उनके भारतीय समकक्षों के बराबर लड़ाइयों का अनुभव नहीं है और वे इसको लेकर बहुत सचेत हैं. पहाड़ी इलाके के युद्ध में भारतीय सेना को श्रेष्ठ माना जाता है. भारतीय वायुसेना चीन द्वारा भारत के खिलाफ़ तैनात किए जा सकने वाले विमानों की तुलना में कहीं बेहतर क्षमताओं वाले लड़ाकू विमानों का, अधिक कुशलता से संचालन करती है. हमारे पायलटों ने यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, यूएई, ओमान, सिंगापुर और इज़रायल में अंतरराष्ट्रीय साझेदारों के साथ प्रशिक्षण प्राप्त किया है. हमारे पास जो साजो-सामान है हम उसकी मदद से बहुत अच्छी तरह से लड़ सकते हैं, और हमारी स्थिति 2002 में ऑपरेशन पराक्रम के आरंभ के समय की स्थिति की तुलना में कहीं बेहतर है.

एक अभियान की तैयारी

सैन्य अभियान संचालित करने की बाध्यता सदैव ऐसे समय आती है जबकि इसकी अपेक्षा सबसे कम की गई होती है. गंभीर बजटीय अवरोध हमारी मुश्किलों को बढ़ाते ही हैं. स्थिति ऐसी ही थी जब हम 2002 में संसद पर आतंकवादी हमले के बाद ऑपरेशन पराक्रम शुरू करने के लिए तैयार थे. मैं 2001-02 में सीसीएस की कई बैठकों में उपस्थित था, जो कि ऑपरेशन पराक्रम को आरंभ करने की तारीख और उसकी दिशा के बारे में निर्णय लेने के लिए आयोजित की गई थीं.

इन सारी बैठकों में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, चार वरिष्ठतम मंत्री, पीएमओ के प्रतिनिधि, सेनाओं के तीनों प्रमुख तथा रॉ और आईबी के प्रमुख मौजूद होते थे. सैन्य अभियान को मंजूरी देने से पहले सीसीएस द्वारा कई मुद्दों पर चर्चा की गई, जैसे तनाव को बढ़ने से रोकना, आनुसंगिक क्षति को न्यूनतम रखना, नागरिकों के जानमाल और उद्योगों को नुकसान से बचाना, देश की अर्थव्यवस्था और विदेशी संबंधों पर प्रभाव आदि. मिशन के उद्देश्य भी निर्धारित किए गए थे. कुछ राज्यों के समर्थन की ज़रूरत थी और जिनके प्रभावित होने की आशंका थी उन्हें इस बारे में अवगत कराया गया था. रेलवे और नागरिक उड्डयन विभाग को विशेष निर्देश दिए गए थे.


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कुछ हवाई मार्गों को रोकने या अवरुद्ध करने के लिए कैबिनेट की मंजूरी आवश्यक थी. नागरिक सुरक्षा अभ्यास आयोजित किए गए थे. सशस्त्र सेनाओं के प्रत्येक प्रमुख से अपेक्षा की गई थी कि वह इन सारे विषयों पर अपने विचार साझा करेंगे और उनके अपने बलों पर इसके संभावित असर का भी अनुमान लगाएंगे. भरपाई की योजना बनाने और विशेष वित्तीय अधिकार दिए जाने की भी ज़रूरत थी.

विचार-विमर्श की ऐसी प्रक्रियाओं के ज़रिए सेना की रणनीति और व्यूह रचना की दिशा तय की जाती है. ये स्थापित प्रक्रियाएं हैं जो लगातार परिष्कृत होती रहती हैं.

पिछले कुछ दिनों से, मुझे यह विश्वास हो चला है कि हमारे सैनिकों और अधिकारियों के बलिदान को लेकर टेलीविजन पर मची चीख-पुकार महज ध्यान खींचने और राजनीति का खेल है. सैन्य सम्मान में आंसू बहाने की अपेक्षा नहीं की जाती है. आखिर में मैं एक छोटा-सा अनुरोध करना चाहूंगा: सेना के साथ एकजुटता दिखाएं और इस कठिन समय में उन पर और सरकार पर भरोसा करें. स्वाभिमानी भारतीय बनें.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक सेवानिवृत्त एयर चीफ मार्शल हैं जो 2001-2004 के दौरान भारतीय वायुसेना के प्रमुख थे. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

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1 टिप्पणी

  1. Iska yeh Matlab bhi nahi hota k feku ji and sand jo bataye ya kare use aankhe bandh kar k maan lo.

    Desh se bada nehru na modi woh pm hai bhagwan mat banao aisi chatukarita Wala article sirf ek bhakt hi likh sakta hai.

    By d way democracy ka mtlb bhi janto hoo ka gudbak.

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