चीन की तमाम फौजी तैयारी और जमावड़ा बल प्रयोग की कूटनीति का हिस्सा हो तो भी भारत को यही मान कर चलना चलना चाहिए कि जंग का खतरा वास्तविक है और उसे इसके लिए तैयार रहना है.
अपने पूर्ववर्तियों की तरह मोदी ने भी भारत-पाकिस्तान-चीन के त्रिशूल से मुक्त होने की कोशिश की मगर नाकाम रहे. अब आगे वे जो भी करना चाहेंगे उसका अर्थ होगा नए समझौते करना.
कोरोना महामारी पर सारी बहस वैचारिक खेमों के हिसाब से बंटी दिखाई देती है, भाजपा के बड़े नेता अपने संकीर्ण राजनीतिक हित साधने के लिए इस विभाजन का फायदा उठा रहे हैं, और कुल मिलाकर यही लग रहा है की हालात किसी के काबू में नहीं है.
बड़े-बड़े इरादे रखने के बावजूद आर्थिक सुधारों के मोर्चे पर मोदी इसलिए पिछड़ते दिख रहे हैं क्योंकि उनके नौकरशाहों में सुधारों को आगे बढ़ाने का जज्बा नहीं है बल्कि वे तो इस लॉकडाउन के बहाने निरंकुश सत्ता का मज़ा लेने में मगन हैं.
चीन लद्दाख में जो कुछ कर रहा है उससे भारत को हैरान होने की जरूरत नहीं थी, बल्कि उससे इसी की उम्मीद करनी चाहिए थी, खासकर तब जबकि भारत ने जम्मू-कश्मीर का दर्जा बदल दिया है.
मेरे तर्क साम्यवाद अथवा वामपंथ के विरुद्ध नहीं है. बल्कि वे उस राजनीतिक अर्थव्यवस्था के विरुद्ध हैं जिसमें मिशन जय हिंद के ये प्रख्यात प्रस्तावक विश्वास करते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस महामारी के दौर में राष्ट्र के नाम जो संदेश दिए हैं वे मुख्यतः मध्य वर्ग या इलीट तबके को संबोधित रहे हैं, उनमें करोड़ों गरीबों के प्रति हमदर्दी ना के बराबर दिखती है, तो क्या मोदी अपना राजनीतिक अंदाज भूल रहे हैं?
‘सामान्य’ चुनावों में वोटर्स राष्ट्रीय और विधानसभा चुनावों में फर्क समझने लगे हैं और अलग-अलग तरीके से वोट करते हैं. ऐसा ही समकालिक चुनावों में भी होगा, इसमें कोई शक नहीं है.