scorecardresearch
Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टभारत के सामने दो सीमा पर युद्ध से बचने की चुनौती, क्या मोदी रणनीतिक हितों के लिए राजनीति को परे रखेंगे

भारत के सामने दो सीमा पर युद्ध से बचने की चुनौती, क्या मोदी रणनीतिक हितों के लिए राजनीति को परे रखेंगे

भारत को रणनीति के मामले में चीन और पाकिस्तान के साथ मिलकर बनने वाले त्रिकोण को तोड़कर बाहर निकलना ही होगा लेकिन इससे पहले उसे यह तय करना होगा कि क्या वह घरेलू चुनावी फायदों के चक्कर में अपने रणनीतिक विकल्प सीमित करना चाहता है?

Text Size:

लद्दाख में पैंगोंग त्सो से चीनी और भारतीय सेनाओं की वापसी फटाफट हो गई है. अब जबकि दोनों तरफ के कोर कमांडरों की वार्ता का नया दौर शुरू होने को है, आप सहमते हुए उम्मीद कर सकते हैं कि व्यापक तनाव मुक्ति भी हो सकती है.

और अब जबकि युद्ध से ज्यादा शांति की संभावना है, तब यह एक क्षण रुक कर यह विचार करने का भी है कि कौन जीता या कौन हारा.

हमारे उत्तरी क्षेत्र के आर्मी कमांडर ले.जनरल वाई.के. जोशी ने हमें पहले ही बता दिया है कि उन 48 घंटों में जब भारतीय फौज पैंगोंग के दक्षिणी किनारे और कैलाश पर्वतों में पैंगोंग-मोल्दो-चूसुल वर्चस्व वाले ऊंचे क्षेत्रों और प्रमुख दर्रों पर जाकर जम गई थी तब भारत और चीन जंग के कितने करीब पहुंच गए थे. यह खबर भी ज्यादा नहीं दी गई कि भारतीय टुकड़ियां किस तरह उत्तरी तट पर पर्वतारोहण करते हुए ‘फिंगर्स’ या पहाड़ियों पर चढ़ गई थीं, जहां से वे चीनी फौज पर नज़र रख सकती थीं, जो निचले क्षेत्रों में आराम से जमी हुई थी.

पहाड़ों में लड़ाई के बारे में यह भी एक पुराना सच है कि निचले इलाकों में आप आराम से तो जमे रह सकते हैं लेकिन यह पसंदीदा मोर्चा नहीं माना जाता. बहरहाल, चौंकाने वाली बात को स्वीकार न करने वाले चीनियों ने भारतीय टुकड़ियों को नीचे उतरने के लिए ‘समझाने’ की कोशिश की. पिछले साल 29-30 अगस्त की रात भारतीय सेना के ‘ऑपरेशन स्नो लेपर्ड’ के तहत जो कार्रवाई की गई उससे सामरिक संतुलन हासिल कर लिया गया था.

दक्षिणी तट और उसके पश्चिमी इलाकों में रेचिना ला, मुखपरी और रेजांग ला में जो कुछ हुआ था उनके बारे में अधिक जानकारी मिली. लेकिन ‘फिंगरों’ की ऊंचाइयों पर जो तीखी झड़पें हुईं उनके बारे में कुछ समय तक कोई खबर नहीं मिली थी.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

चीनी मध्ययुगीन भालों से, जिनके अगले सिरे पर छुरा लगा होता है, लैस चीनी पीएलए के सैनिक जिस तरह आक्रामक ढंग से भारतीय सैनिकों के बिल्कुल करीब पहुंच गए थे उसकी वायरल हुई तस्वीर मुखपरी से थी. तब तक तीन चीजें साफ हो गई थीं. पहली यह कि भारतीय सेना पीछे नहीं हटने वाली है. वह चीनियों की तरह कपड़ों, राशन और हथियारों से पूरी तरह लैस है. उसके भारी साजोसामान अच्छी तरह से तैयार थे.

दूसरी बात यह कि दोनों पक्ष तनाव इतना नहीं बढ़ाना चाहते थे कि मुठभेड़ की नौबत आ जाए. यहां तक कि संकरे दर्रों— रेचिन ला की चौड़ाई तो 200 मीटर से ज्यादा नहीं होगी— में भी दोनों पक्षों ने महज एक फुट की दूरी पर आमने-सामने टैंक खड़े कर दिए थे, जैसे वाघा बॉर्डर पर भारत और पाकिस्तान के सैनिक आमने-सामने खड़े होते हैं. टैंकों के बीच इतने करीब से लड़ाई नहीं हो सकती. यहां तक कि घुड़सवार फौजें भी लड़ाई से पहले इतने करीब-करीब तैनात नहीं होतीं. वह महज ताकत का प्रदर्शन था या अपनी तरफ आने का रास्ता बंद करने की कोशिश थी, ताकि दूसरा सैर करने के लिए भी मेरी तरफ न आ पाए.

यह सब जब खत्म हो जाएगा तब हम इन तस्वारों को देखकर हंसेंगे कि परमाणु अस्त्रों से लैस दुनिया के दो सबसे बड़े देशों ने क्या तमाशा बना दिया था कि एक-दूसरे के टैंक इतने करीब तैनात कर दिए थे मानो वे सिर से सिर टकराने जा रहे हों.

तीसरी बात है कि यह सब एक-दूसरे को थकाने की लड़ाई थी जो मौसम, पहाड़ों की ऊंचाई, भूगोल और तामझाम के दिखावे के जरिए लड़ी जा रही थी और दोनों तरफ के सैनिकों की मजबूती के जरिए भी. ज़ोर आजमाइश यह थी कि जाड़े में कौन वहां बड़ी संख्या में डटा रह सकता है.

हकीकत यह है कि दोनों डटे रहे. इसके बाद ही चीनी टकराव छोड़ने को राजी हुए. इसके लिए बेशक और भी बातें जिम्मेदार हैं मसलन- अंतरराष्ट्रीय और आर्थिक चालें, ‘क्वॉड’ का उभार और जो बाइडन द्वारा इसको समर्थन, भारत का अपने रणनीतिक इतिहास की हिचक तोड़ना और चीन से उत्पीड़ित समूहों (जिन्हें मैं ‘चीन पीड़ित समाज’ कहता हूं) की एकता.


यह भी पढ़ें: भारतीय राजनीति में विचारधाराओं को लेकर नई मोर्चाबंदी: मोदी का निजी क्षेत्र बनाम राहुल का समाजवाद


जहां तक टकराव खत्म करने की बात है, भारत और चीन ने पिछले नौ महीनों में एक से ज्यादा बार उम्मीद जगा कर धोखा दिया है. इसलिए शांति की इस कोशिश के नतीजे की भविष्यवाणी करना मुश्किल है. ज्यादा-से-ज्यादा यही कहा जा सकता है कि यह उतना ही जोखिम भरा है जितना पश्चिम बंगाल के चुनाव के नतीजे की भविष्यवाणी करना.

दोनों देशों में जनमत और सोशल मीडिया के जुनूनी तेवर भी एक चुनौती हैं, जो आग में घी डालने का ही काम करते हैं. भारत में इन्हें हम कमांडो वाले तेवर से लैस टीवी चैनलों और ट्विटर के रूप में देखते हैं. लेकिन, जैसा कि चीन विशेषज्ञ और ‘द हिंदू ’ अखबार के सीनियर एडिटर अनंत कृष्णन बताते हैं, ट्वीटर के चीनी भाई ‘वीबो’ पर भी आग उगला जा रहा है, खासकर गलवान में मारे गए चीनी सैनिकों की संख्या के बारे में किए परस्पर विरोधी दावों के बाद. दोनों देश अपने लोगों को यह बताने के लिए मजबूर हैं कि जीत उनकी हुई है. यह स्थिति वार्ताओं के अगले दौर को प्रभावित करेगी.

वैसे, हम शुद्ध रूप से भौगोलिक रणनीति के आधार पर बेलाग विश्लेषण की कोशिश कर सकते हैं. हमारा ज्ञान इस कारण सीमित है कि हमें यह पता नहीं है कि पिछले साल चीन लद्दाख में हमारी दहलीज तक आखिर क्यों आ धमका.

जानकारों के अनुमान ये हैं कि अनुच्छेद 370 को रद्द किए जाने और लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश घोषित किए जाने के बाद चीन एक संदेश देना चाह रहा होगा या वह अपनी रणनीति के हिसाब से भारत को हिंद महासागर से हटाकर वापस जमीनी सीमाओं के संदर्भ में रखना चाह रहा होगा और इस तरह नये शीतयुद्ध में उसे अमेरिका के ज्यादा करीब जाने से रोकना चाह रहा होगा. या इन तीनों बातों का संयुक्त असर रहा होगा. लेकिन क्या चीन को इनमें से कुछ भी हासिल हुआ?

फिलहाल स्थिति यह है कि भारत अमेरिका की अगुवाई वाले चीन विरोधी खेमे के करीब है और बिना किसी संधि के उसके साथ जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण देश है. दूसरे, भारत और बाकी तीन देश- अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया— ‘क्वॉड’ के प्रति अब और ज्यादा प्रतिबद्ध नज़र आते हैं. संदेहों को खत्म करने के लिए चार विदेश मंत्रियों की बृहस्पतिवार को हुई बैठक में जो कुछ कहा गया उसे देख लीजिए. ऐसे कई लोग हैं, खासकर शीतयुद्ध वाले दौर के रूढ़िवादी, जो यह उम्मीद कर रहे थे कि एक बार चीनी हमारे सिर पर से उतर गए, तो भारत ‘क्वॉड’ से किनारा कर लेगा. यह हद दर्जे का भोलापन है.

इसके बाद हम उन मामलों पर आते हैं जिनके बारे में हमें बहुत कुछ साफ-साफ मालूम नहीं है. यह 21वीं सदी के लिए भारत के रणनीतिक नज़रिए को किस तरह प्रभावित करेगा? चीन का 2013 का रणनीति दस्तावेज़ हमें चीनी सोच का जायजा देता है. इस पर दुनिया का ध्यान तब गया जब अमेरिकी वायुसेना के थिंक टैंक ने इसे पूरा का पूरा अंग्रेजी में जारी किया. इसके बारे में मैंने ‘कट द क्लटर ’ की 682वीं कड़ी में बात की थी.

चीनियों का मानना है कि नब्बे के दशक में आर्थिक उछाल के बाद से भारत खुद को महज एक क्षेत्रीय ताकत के रूप में नहीं देखता और हिंद महासागर क्षेत्र (आईओआर) में अपना दबदबा बनाना चाहता है. दस्तावेज़ कहता है कि भारत अपनी जमीनी सरहदों को लेकर निश्चिंत है कि उन पर कोई लड़ाई नहीं होगी. पीएलए ने लद्दाख में जो घुसपैठ की उसके साथ क्या यह सोच बदल गया है? क्या वह भारत को याद दिला रहा है कि दो जमीनी मोर्चों पर उसके लिए खतरा अभी खत्म नहीं हुआ है?

क्या अब भारत का ध्यान नौसेना से हट कर थल सेना पर केंद्रित हो जाएगा? इसका जवाब एकाध साल में मिल जाएगा. अगर ऐसा होता है तो यह चीन के फायदे में होगा. इसी तरह, इन नौ कठिन महीनों में भारत का पक्ष लेने वाले किसी ने अक्साई चीन को वापस हासिल करने की बात नहीं की है. आगे भी कुछ समय तक कोई ऐसा नहीं करे तो हैरान मत होइएगा. अगर चीन यह संदेश देना चाहता था, तो वह सफल हुआ है. लेकिन मैं नहीं मानता कि केवल इसकी खातिर उसने इतना जोखिम भरा दुस्साहस किया.


यह भी पढ़ें: मोदी सरकार कृषि कानून की लड़ाई हार चुकी है, अब सिख अलगाववाद का प्रेत जगाना बड़ी चूक होगी


अंत में, भारत के हित के नज़रिए से पूरी तस्वीर को देखें.

दशकों तक, हमारे रणनीतिक विचारक इस बात को लेकर चिंतित रहे कि हमें दो मोर्चों पर चुनौती का सामना करना पड़ता है. भारत अपना रक्षा बजट बड़ा कर सकता है, पाकिस्तान की तरह फौज की वर्चस्व वाला राष्ट्रीय सुरक्षा केंद्रित देश बन जाए (मुझे उम्मीद है ऐसा नहीं होगा), दो मोर्चों पर लड़ाई एक दुःस्वप्न ही है और उसमें जीतना एक फंतासी. इसलिए, इससे बचना भारत के राजनीतिक तथा रणनीतिक नेतृत्व के लिए एक बड़ी चुनौती है.

अब हम वापस पुरानी अनिवार्यता पर लौटते हैं कि भारत को चीन और पाकिस्तान के बीच रणनीतिक तरीकों में फंसने से साफ बचना चाहिए. लेकिन सवाल यह है कि यह कैसे होगा?

इनमें से एक के साथ तो हमें मसलों का निपटारा करना पड़ेगा. इसलिए हमारी पिछली सरकारों ने चीन के साथ शांति बनाए रखने के गंभीर प्रयास किए. लेकिन तर्क कहता है कि अपने से कमजोर देश के साथ मामले सुलझाना ज्यादा तार्किक होता है और शांति से ज्यादा फाड़े हो सकते हैं. लेकिन यह मुमकिन नहीं हो पाया है. और अब एक और मुसीबत आ गई है.

मोदी सरकार अब तक की सबसे सियासी सरकार है, इस अर्थ में कि वह सभी नीतियों को चुनावी नज़रिए से ही देखती है. अगर ऐसा है तो वह पाकिस्तान के साथ दुश्मनी जारी रखना चाहेगी क्योंकि पाकिस्तान और सर्वव्यापी इस्लामी आतंकवाद वह तानाबाना है जिस पर चुनावी ध्रुवीकरण उपहार के रूप में फौरन मिल जाता है. इस बुनियादी मसले पर मोदी सरकार को विचार करने की जरूरत है.

क्या वह घरेलू सियासी मांगों के दबाव में रणनीतिक विकल्पों को सीमित करना चाहेगी? या इस स्थिति को बदलने के लिए आत्मविश्वास दिखाएगी? बेशक वह कुछ अधिक साहसिक कदम उठा सकती है और पहले चीन के साथ निपटारा कर सकती है. लेकिन तब, हमें मालूम है कि इस सौदे में मजबूत पक्ष कौन है.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: अलग-थलग पड़ा पाकिस्तान शांति की बात कर रहा है लेकिन भारत इस खेल को अब बहुत अच्छे से समझता है


 

share & View comments