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Friday, 29 March, 2024
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अलग-थलग पड़ा पाकिस्तान शांति की बात कर रहा है लेकिन भारत इस खेल को अब बहुत अच्छे से समझता है

अभी जो हालात हैं- अमेरिका, चीन और सऊदी अरब अलग-अलग दिशाओं में जा रहे हैं और इस सब के बीच पाकिस्तान फंस गया है.

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यह पहला मौका नहीं है जब पाकिस्तान ने शांति बहाली का प्रस्ताव सामने रखा है. 70 से ज्यादा सालों का साझा इतिहास पाकिस्तान के दोहरे रवैये और विश्वासघात के उदाहरणों से भरा पड़ा है— शांति का प्रस्ताव, फिर संघर्ष विराम और उसके बाद बार-बार उसका उल्लंघन किया जाना.

और अबकी बारी थी पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा की, जिन्होंने यह कहते हुए शांति का राग अलापा, ‘पाकिस्तान परस्पर सम्मान और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के विचार पर प्रतिबद्ध है…’ विडंबना देखिए, उनके यह कहने के दो दिन बाद ही इस्लामाबाद में सेना और अन्य प्रतिष्ठान भारत विरोधी प्रदर्शन आयोजित करके ‘कश्मीर सॉलिडेरिटी डे’ मनाने की परंपरा निभाते नज़र आ रहे थे.

बाजवा के इस अल्पकालिक शांति प्रस्ताव को क्षेत्र में बदलती भू-राजनीतिक वास्तविकताओं की पृष्ठभूमि में भी देखा जाना चाहिए. यद्यपि पाकिस्तान को बड़े इस्लामिक गठबंधन का हिस्सा माना जाता रहा है लेकिन उसे बहुत ज्यादा अहमियत नहीं मिलती है, हालिया घटनाओं ने सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच खाई पैदा कर दी है.

2015 में रिश्तों में दरार तब आई जब पाकिस्तान ने यमन संघर्ष में अपनी सेनाओं को हिस्सा लेने की इजाजत न देकर रियाद की नाराजगी मोल ले ली.

इस्लामाबाद ने सऊदी अरब को उस समय एक बार फिर भड़का दिया जब 2019 में ओआईसी शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री इमरान खान सऊदी किंग का अपमान कर बैठे और प्रोटोकॉल का उल्लंघन कर अपनी कही बातों को अनुवादक द्वारा समझाने का इंतजार किए बिना ही वहां से चलते बने.

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नवंबर 2020 में ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन (ओआईसी) ने एक बयान जारी किया पर इसमें अनुच्छेद 370 हटाने के लिए ओआईसी की तरफ से भारत की निंदा किए जाने को लेकर पाकिस्तान के तमाम प्रयासों के बावजूद कश्मीर का उल्लेख तक नहीं किया गया. उसी साल अगस्त में इमरान खान ने सऊदी के नेतृत्व वाले ओआईसी पर कश्मीर मुद्दे को लेकर निष्क्रियता बरतने का ‘आरोप’ लगाया और सऊदी अरब की आपत्तियों को दरकिनार करके उसके धुर विरोधी तुर्की और मलेशिया की मदद से ओआईसी की बैठक बुलाने का प्रयास किया. इसके बाद सऊदी अरब ने तुरंत ही पाकिस्तान को एक बिलियन डॉलर का कर्ज चुकाने का फरमान सुना दिया. तब पाकिस्तान की मदद के लिए चीन आगे आया.

लेकिन पाकिस्तान को इस क्षेत्र में आगे बढ़ने की सलाह देने से पहले चीन वेट एंड वाच की रणनीति अपनाना चाहेगा. शायद यही वजह है कि चीन की सलाह पर इमरान खान ने रियाद और तेहरान के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने के लिए ईरान की अपनी पहली यात्रा की. मध्य पूर्व का टकराव समाधान के लिहाज से पाकिस्तान की हैसियत से बहुत ज्यादा गंभीर विषय है. अफगानिस्तान और हिंद महासागर क्षेत्र में बड़ी भूमिका निभाने के लिए ही शायद चीन ने इस्लामाबाद को ऐसे कार्य करने की सलाह दी होगी.

जाहिर बात है कि राष्ट्रपति जो बाइडन के नेतृत्व में व्हाइट हाउस यह कतई पसंद नहीं करेगा कि इस्लामाबाद ऐसा कोई काम करे जिसमें हाथ डालने से अच्छे-अच्छे गुरेज करते हैं. स्पष्ट है कि वाशिंगटन चाहता है कि ईरान ‘बात माने और कोई तर्क न करे’.

मौजूदा स्थिति में ऐसा लगता है कि अमेरिका, चीन और सऊदी अरब सबने अलग-अलग दिशाएं पकड़ ली है और पाकिस्तान उनके बीच फंस गया है. इनमें से कोई भी देश वाणिज्यिक लिहाज से भारत के साथ रिश्तों को गंवाने का जोखिम नहीं उठा सकता. जहां तक चीन की बात है तो यह नहीं चाहेगा कि भारत और पाकिस्तान के बीच टकराव बढ़े जो कि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) या बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) परियोजनाओं में उसकी संपत्ति और रणनीतिक फायदों के लिए खतरा बन सकता है.

इनमें से कोई भी देश भारत-पाकिस्तान के बीच टकराव में उलझना नहीं चाहता है, नतीजा स्पष्ट है कि अलग-थलग पड़े पाकिस्तान के पास वार्ता की मेज पर लौटने के अलावा कोई और चारा नहीं है, कम से कम फिलहाल तो कतई नहीं.


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पीओके में असंतोष और चीन का नियंत्रण

पाकिस्तान के लिए सीपीईसी परियोजनाओं में लगे चीनियों (सेना और नागरिक दोनों) की अपेक्षाएं पूरी करना और बढ़ती महंगाई के कारण पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) के रावलकोट में बढ़ते प्रदर्शनों से निपटना दुरूह कार्य बनता जा रहा है. इससे पहले 2019 में लोगों की तरफ से इस्लामाबाद पर सीपीईसी परियोजनाओं के लिए अवैध रूप से जमीनें कब्जाने के आरोप लगाए जाने के बीच मुजफ्फराबाद, तत्तो पानी, रावलकोट, पुंछ, हजीरा और तात्रीनोट जैसे पीओके के कई इलाकों में पाकिस्तानी सेना और स्थानीय पुलिस के खिलाफ जमकर प्रदर्शन हुए थे.

सितंबर 2018 में पीओके के राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने सीपीईसी परियोजनाओं के लिए पाक की तरफ से व्यापक मानवाधिकार उल्लंघनों और जल संसाधनों के दोहन के विरोध में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) के कार्यालय के सामने एक बड़ा प्रदर्शन किया.

चीन चितराल और चकदरा के बीच हाईवे प्रोजेक्ट को पूरा करने की जल्दी में नज़र आ रहा है जो कि प्रस्तावित सीपीईसी विशेष आर्थिक क्षेत्र के केंद्रबिंदु रशाकाई तक पहुंचाने वाले मौजूदा मोटरवे से जोड़ेगा. इससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि ये प्रोजेक्ट काराकोरम हाईवे को गिलगिट बालटिस्तान से खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के चित्राल जिले से जोड़ने वाले पश्चिमवर्ती हाईवे से जोड़ते हैं जो कि दूसरे सिरे पर अफगानिस्तान, चीन और ताजिकिस्तान की सीमाओं को जोड़ने वाले वाखान कॉरिडोर तक फैला है.

चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने कॉरिडोर से लगभग 12 किमी दूर तजाकिस्तान में एक समर्पित सैन्य चौकी स्थापित कर रखी है और उग्र उइगर समूहों की घुसपैठ रोकने के लिए अफगान सुरक्षा बलों के साथ नियमित संयुक्त गश्त और आतंकवाद निरोधक अभियान चला रही है.

यह सब स्थानीय आबादी को आक्रोशित करता है और राजनीतिक दलों पर भी इसका खासा असर पड़ता है जिन्हें लोगों का गुस्सा झेलना पड़ता है.

इसमें कोई अचरज नहीं है कि जब भी कोई चुनाव आता है, राजनीतिक खेमा दो वादे करता है.

पहला, सेना को बैरकों में वापस भेजने का संकल्प. हालांकि, ऐसा कभी नहीं हुआ लेकिन लगता है कि सेना के शीर्ष अधिकारी राजनीतिक दलों को ऐसी संभावनाओं पर कुछ समय के लिए ख्याली पुलाव पकाने का मौका देते हैं. दूसरा जो वादा वे करते हैं, वह है भारत के साथ सीमा पर बाड़ लगाने का प्रयास करके आगे का पूरा जीवन शांति और आराम के साथ गुजारेंगे.

2018 के संसदीय चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री पद के सभी संभावित उम्मीदवारों— इमरान खान, बिलावल भुट्टो और शाहबाज शरीफ ने जीतने पर भारत के साथ संबंधों को सुधारने की अपनी इच्छा जताई थी. मूलत: ऐसे वादे जनता की भावना से प्रतिध्वनित होने चाहिए, जो उन्हें भारत के साथ शांति प्रयासों को आगे बढ़ाने वाला सही उम्मीदवार चुनने के लिए प्रोत्साहित कर सके.

अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हर संभावित कवायद के दौरान ‘कंपोजिट डायलॉग’, ‘कांप्रेहेंसिव डायलॉग’ और ‘कश्मीर समेत हर मुद्दे पर चर्चा’ जैसे शब्दों का लगातार उल्लेख किया जाता रहा है. पाकिस्तान जहां हर शांति वार्ता में कश्मीर का मुद्दा उठाता है, वहीं भारत ‘बातचीत और आतंकवाद एक साथ न चलने देने’ का मंत्र दोहराता रहता है.


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भारत ने कई ‘शांति’ योजनाएं आजमाईं

भारत के सभी प्रधानमंत्रियों ने पाकिस्तान के शांति प्रस्तावों को देखा है और वहां के तथाकथित नॉन-स्टेट एक्टर्स की तरफ से किए गए बर्बर आतंकवादी हमलों के गवाह भी बने हैं.

पाकिस्तान और भारत के बीच समग्र वार्ता के मौजूदा चरण को आमतौर पर शांति प्रक्रिया के तौर पर संदर्भित किया जाता है जो जनवरी 2004 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ के बीच शिखर बैठक के साथ शुरू हुई थी. इस बैठक के बारे में माना जाता है कि इसने कारगिल के बाद दोनों देशों के बीच कायम कटुता को घटाने में मदद की थी. लेकिन इस्लामाबाद ने अपने नॉन-स्टेट एक्टर्स पर लगाम कसने और भारत पर आतंकी हमलों के लिए अपनी भूमि का इस्तेमाल रोकने के लिए कुछ खास नहीं किया.

2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था, ‘हम सीमाओं को अप्रासंगिक बना सकते हैं.’ लेकिन इसके कुछ ही समय बाद एक के बाद एक कई आतंकी हमले हुए. 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद शांति प्रक्रिया नए सिरे से आगे बढ़ी लेकिन उरी (2016) और पुलवामा (2019) के बाद फिर नदारत हो गई.

दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस्लामाबाद के राजनीतिक संगठनों की तरफ से मिले शांति प्रस्ताव कभी सफलता से सिरे नहीं चढ़ पाए क्योंकि उन्हें सेना का समर्थन हासिल नहीं रहा, जो कि देश के राजनीतिक पारिस्थितिकी तंत्र में बेहद अहम भूमिका निभाती है. इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण हकीकत यह है कि हर गंभीर शांति प्रस्ताव के बाद सेना और तथाकथित नॉन-स्टेट एक्टर्स, जिनमें से अधिकांश देश की खुफिया एजेंसी आईएसआई के संरक्षण में फलते-फूलते हैं, की तरफ से आतंकवादी हमले या आक्रामकता की घटनाएं सामने आईं. इसमें तो संदेह ही है कि पाकिस्तान पर पूरी तरह हावी सेना वास्तव में ऐसा कुछ चाहेगी कि दोनों देश अपने विवादों को सुलझाकर शांति से रहने का फैसला कर पाएं.

पाकिस्तान में सत्ता के तीन केंद्र हैं- सेना, मजहबी नेता और राजनीतिक संगठन जिसे तीनों में सबसे कमजोर कहा जा सकता है. निर्णय लेने की प्रक्रिया या देश को चलाने के काम में लोगों और सिविल सोसाइटी की भूमिका नगण्य ही है. कोई भी त्रासद विभाजन के बाद से ही पाकिस्तान के लोगों की शांति बहाली की आकांक्षाओं और उम्मीदों को रेखांकित करने वाले तमाम किस्सों को देख-सुन सकता है.

पाकिस्तान हमेशा ही भारत के लिए एक सिरदर्द बना रहता है और यह क्षेत्र की शांति और प्रगति में सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है. नई दिल्ली को शांति वार्ता के लिए तो सभी विकल्प तो खुले रखने चाहिए लेकिन अपनी सतर्कता में कोई कमी नहीं आने देना चाहिए अन्यथा अनजाने में ही सही किसी और आतंकी हमले का शिकार बन सकते हैं.

(शेषाद्री चारी ऑर्गेनाइज़र के पूर्व संपादक है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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