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Friday, 19 April, 2024
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ग्रामीण भारत कोई इतिहास का कूड़ेदान नहीं. तीन कृषि कानूनों ने दिखाया है कि किसानों को नई डील की जरूरत है

भारत में कृषि ठेठ भारतीय ढर्रे पर चलेगी. भारत के किसान कोई अतीत के अवशेष नहीं बल्कि वे सदियों से हैं और आने वाली तमाम सदियों तक उन्हें कायम रहना है.

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ऐतिहासिक बन चला किसान-आंदोलन अपनी ऐतिहासिकता में भविष्य की झलक दिखाने वाले वाले लम्हे को समेटे है. और, भविष्य की यह झलक सिर्फ किसानों या फिर खेती-बाड़ी भर की नहीं बल्कि पूरे गंवई भारत की झलक है, आप चाहें तो कह लें कि किसान-आंदोलन के इस लम्हे में भारत के भविष्य को झांका जा सकता है.

यह आंदोलन तो कब का इतिहास बना चुका. इस आंदोलन ने किसानों को राष्ट्र के मनोराज्य में फिर से प्रतिष्ठित किया है. अब आप ये बहाना नहीं बना सकते कि किसानों का कोई वजूद ही नहीं है. जितना किसी को ईश्वर का डर सताता होगा उससे कहीं ज्यादा वोट का डर इस आंदोलन ने नेतृत्व वर्ग के दिलो-दिमाग में भर दिया है. अब आप किसानों से पंगा लेने का जोखिम नहीं मोल सकते. इस आंदोलन ने बाजार की बुनियादपरस्ती में लगे लोगों की जुबान बंद कर दी है जो अपनी चतुर-बऊरौनी में कृषि-सुधारों की अधपकी खिचड़ी सत्ताधारियों के थाली में परोस आये थे. और अब, कोई कॉर्पोरिटिया अर्थशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों की ओट में `सुधारों की सेंधमारी` करना चाहे तो उसका भी मुखौटा उतर जाना बिल्कुल तय है. थोड़ी देर के लिए ही सही, किसान-आंदोलन ने खेती-बाड़ी से जुड़ी बात को अब उस जगह पहुंचा दिया है जहां तक वह बरसो-बरस के अकादमिक और राजनीतिक बहसों के बाद भी नहीं पहुंच पायी थी.

लेकिन देश के मनोजगत में ये आंदोलन अगर बस इतना ही भर हासिल करके रह जाये तो फिर समझिए कि उसने अपनी कूबत से बड़ा कम हासिल किया. कृषि-सुधारों का जो गला रौंदता चक्का किसानों ने बीच राह जाम कर दिया है वह अगर यथास्थिति को बनाये रखने का एक बहाना बना लिया जाता है तो इसे भी अफसोस के खाते में ही दर्ज किया जाएगा. कॉर्पोरेटी एग्री-बिजनेस को अपने पांव पीछे खींचने पड़े हैं लेकिन ऐसे में अगर चंद खुशहाल किसानों का ट्रेड-यूनियनवाद चल निकलता है तो फिर ये जी को उदास करने वाली बात होगी. मोदी सरकार ने बलात् अगर कृषि-कानून इस देश पर थोप दिया है तो कानूनों को जबरिया थोप देने का यह लम्हा किसान, किसानी और खेती-बाड़ी से जुड़े तमाम संकटों की तरफ ध्यान खींचने वाला लम्हा साबित होना चाहिए.

ऐसी बात नहीं कि किसानों के सारे दुख इन तीन कानूनों से ही शुरू होने हैं. और, न ही ये बात सही है कि इन कानूनों को वापस ले लिया जाये तो यह किसानों के तमाम दुखों की रामबाण दवा साबित होगा. किसानों का यह आंदोलन अपने विचार, विस्तार और प्रभाव में महान है और अपनी महानता के अनुकूल इसे लम्बे-लम्बे डग भरते हुए उस मुकाम तक पहुंचना होगा जहां पहुंचकर लगे कि हां, आज भारत नाम के गणराज्य के भीतर किसान को केंद्रीय स्थान हासिल हुआ, एक ऐसा भारत बना जिसकी कोई भी कल्पना किसानों के बगैर की ही नहीं जा सकती.

भारत में खेती-बाड़ी को तिहरे संकट ने घेर रखा है और ये संकट आपस में जुड़े हुए हैं. अभी जो आंदोलन चल रहा है उसका जोर खेती-बाड़ी से जुड़े आर्थिक संकट पर है और अगर ऐसा है तो अभी के लिए यह ठीक ही है. लेकिन, हमें नहीं भूलना चाहिए कि खेती-बाड़ी से जुड़ा एक पारिस्थितिकी (इकॉलॉजी) का भी संकट है और पारिस्थितिकी का ये संकट ऐन हमारी आंखों के आगे खड़ा है. इन दो संकटों को एक साथ मिलाकर देखें तो नजर आयेगा कि किसान के वजूद के आगे ही संकट खड़ा है, ये दो संकट किसान के लिए अस्तित्व का संकट बनकर उभरे हैं. किसानों के लिए अब विचार, नीति और राजनीति की दुनिया में एक नये विहान की जरूरत है, एक ऐसा नव-प्रभात जो अपने नये विचार, नयी नीतियों और राजनीति के सहारे किसान को अस्तित्वगत संकट से उबारे.

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भारतीय कृषि के तीन संकट

आर्थिक संकट पर बात करना और उसके ब्यौरे बताना आसान है. मिसाल के लिए यही कि हमारी कामगार आबादी का आधा से अधिक हिस्सा (ग्रामीण परिवारों का 58 प्रतिशत) मुख्य रूप से खेती-बाड़ी में लगा है लेकिन खेती-बाड़ी उसके लिए आर्थिक रूप से फायदेमंद नहीं है. भू-जोतों का आकार बहुत छोटा है: साल 2015-16 की कृषि-गणना बताती है कि 86 फीसद किसानों के पास 2 एकड़ से भी कम की जोत है. औसत उपज भी कम है और उपज कितनी होगी, ये भी निश्चित नहीं रहता. उपज की कीमतें नीची रहती हैं और लगातार नीची ही बनायी रखी जाती हैं. मेरा अपना आकलन है कि आमदनी के तमाम स्रोतों को साथ मिलाकर देखें तो भी किसी औसत किसान परिवार को 8000 रुपये प्रतिमाह से ज्यादा की आमदनी नहीं हो पाती. खेतिहर मजदूरों की तादात बढ़ती जाती है लेकिन खेत-मजदूरी की दर ठहरी हुई है. अब ऐसे में क्या अचरज कि मासिक उपभोग माह में होने वाली आमदनी की तुलना में ज्यादा है. आधे से ज्यादा किसान-परिवार कर्ज में हैं.

बैठे-ठाले का एक निदान ये सुझाया जाता है कि खेती पर आबादी का जो बोझ अभी कायम है, उसे कम कर दिया जाये. लेकिन, ऐसे सुझाव देने वाले अर्थशास्त्री ये नहीं बताते कि वो कौन सा टापू है जहां कृषि पर भार बनी आबादी को अतिरिक्त मानकर पहुंचा दिया जाये. अर्थशास्त्री ये भी नहीं बताते कि अर्थव्यवस्था का आखिर लाखों-लाख रोजगार मुहैया कराने वाला ऐसा कौन सा क्षेत्र है जहां कृषि पर भार बनी आबादी को जीने भर की जीविका हासिल होगी. चुनौती ये है कि मेहनती किसानों के लिए ठीक-ठाक आमदनी लायक रोजगार कहां से खोजा जाये.

पारिस्थितिकी का संकट आर्थिक संकट की तरह प्रत्यक्ष नजर नहीं आता लेकिन ये संकट आर्थिक संकट से भी ज्यादा गंभीर है. हरित-क्रांति एक अंधे मुहाने पर पहुंचकर थम गई है. हम तो इसी यकीन के फंदे में फंसे रहे कि रासायनिक खाद और कीटनाशकों के जरिये होने वाली खेती और इस खेती के लिए जमीन से अत्यधिक मात्रा में खींच निकाले जाने वाले पानी के बूते एक करिश्मा होगा लेकिन इस यकीन में फंसे रहकर अब हम ये देख रहे हैं कि मिट्टी की उर्वरा शक्ति छीज रही है और जमीन की सतहों के नीचे पानी का स्तर भयावह तेजी से नीचे खिसकता जा रहा है. इतना ही नहीं इस परिदृश्य में आप ये भी जोड़ें कि जैव-विविधता का नाश हो रहा है, बीज-प्रजातियों की संख्या कम हो रही है, ज्वार-बाजरा सरीखे भरपूर पोषण देने वाले अनाज कम उपजाये जा रहा हैं, पशुपालन पर आधारित अर्थव्यवस्था कमती जा रही है और वनों का उजाड़ बढ़ता जा रहा है. इस पूरे परिदृश्य पर नजर डालते ही आपके आगे स्पष्ट हो जायेगी कि कोई पर्यावरणविद् अगर भावी विनाश की चेतावनी दे रहा है तो उसकी बात को गंभीरता से लेने की जरूरत है.

इस मुकाम पर आकर अब जरा आप जलवायु-परिवर्तन के बारे में सोचें. बढ़ता तापमान और मानसून की अनिश्चितता भारतीय कृषि के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं. जो किसान सिंचाई के लिए बारिश के पानी पर निर्भर हैं उनके लिए तो ये निश्चित ही तबाही का संदेश है. अंदेशा है कि बिन सिंचाई के साधन वाले इलाकों में जलवायु-परिवर्तन की चपेट में आये किसानों की आमदनी एक चौथाई घट जायेगी. खेती-बाड़ी ऐसी हो कि प्रकृति-परिवेश बना रहे, ये एक वाजिब और जरूरी चिन्ता है और इस चिन्ता का समाधान हमें कब का कर लेना चाहिए था.

और, इसी क्रम में आखिर को आता है किसानों के अस्तित्व का संकट. अपने अस्तित्व पर छाये संकट को किसान रोज महसूस कर रहे हैं और उनकी प्रतिक्रियाएं भी सामने आ रही हैं. किसान-आत्महत्या की कहानी तो हम-आप ने बार-बार सुनी है, याद कीजिए कि दो दशक में 3 लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है. राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान घटने के साथ किसान की हैसियत घटती है, उसे अपनी गरिमा की हानि का भान होता है. आत्म-सम्मान का धनी किसान मजबूरी में मजदूरी करने लगता है और जल्दी ही वह आप्रवासी मजदूर बन जाता है. किसान नहीं चाहते कि उनकी अगली पीढ़ी खेती-बाड़ी से जीविका कमाये.

एक नया ढांचा

मौजूदा किसान आंदोलन की चुनौती तीन कृषि-कानून के फंदे में फंसने से बच निकलने या फिर किसानों के लिए आमदनी का एक टिकाऊ जरिया हासिल कर लेने भर की नहीं है. दरअसल इस आंदोलन की चुनौती है कि खेती-किसानी के सहारे चलने वाली जिन्दगी को कैसे आर्थिक, पारिस्थिकीगत और अस्तित्व के संकट से उबार लें.

इसका समाधान बड़ी रचनात्मक ऊर्जा की मांग करता है. भारत के नेताओं, नीति-निर्माताओं और चिन्तकों-विचारकों को पूरे संकल्प के साथ उठ खड़े होकर कहना होगा कि जो युरोप में हुआ भारत उस इतिहास को दोहराने के लिए मजबूर नहीं. भारत में कृषि ठेठ भारतीय ढर्रे पर चलेगी. भारत के किसान कोई अतीत के अवशेष नहीं बल्कि वे सदियों से हैं और आने वाली तमाम सदियों तक उन्हें कायम रहना है. कृषि बहुत बड़ी आबादी के लिए गरिमापूर्ण जीविका बन सकती है, उत्तर अमेरिका और युरोप में कृषि जितने लोगों के लिए गरिमापूर्ण जीविका का जरिया बनी उससे कई गुना ज्यादा की तादात में वह भारत में रोजी-रोजगार का बेहतरीन जरिया बन सकती है. भारत के किसानों के पास जरूरी ज्ञान और तकनीक का खजाना मौजूद है. गंवई भारत कोई इतिहास का कूड़ेदान नहीं. गंवई भारत अवसरों की भूमि है, हमारे राष्ट्रीय भविष्य की कुंजी.

यह संकल्प या कह लें आस्था एक नई राह खोलेगी, वह राह जो नीतियां के रचाव-गढ़ाव के नये रूपों की तरफ ले जाती है. नीतियों का यह नया स्वरूप सरकार ही की अगुवाई में बनेगा और ऐसी नीतियों को अब की तुलना में कहीं ज्यादा बजट का सहारा हासिल होगा. राजसत्ता की तरफ से मिलने वाले इस सहारे का एक हिस्सा ज्यादा ऊंची और कारगर सब्सिडी के रूप में भी हो सकता है क्योंकि कृषि क्षेत्र को हासिल सकल अनुदान के मामले में हमारा देश अब भी बहुत पीछे है. नई नीतियों को कारगर बनाने के लिए मिलने वाले बजट का एक हिस्सा सभी इलाके की सभी फसलों का बीमा करने में खर्च किया जा सकता है, किसानों को कर्जे से मुक्ति दिलाने में और उन्हें पूंजी उपलब्ध कराने में खर्च किया जा सकता है. लेकिन बजट का ज्यादातर हिस्सा खेती-बाड़ी और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए आधारभूत ढांचा खड़ा करने में खर्च हो–ऐसा बुनियादी ढांचा जो निजी उद्यम, एग्रो-प्रॉसेसिंग, कृषि सहकारी संघ, पशुपालन, वानिकी आदि को बढ़ावा दे. कृषि के क्षेत्र में निजी उद्यमिता को बढ़ाने के लिए कहीं ज्यादा राजकीय सहायता की जरूरत है.

नीतियों का ये जो नया वास्तुशिल्प रचा जायेगा उसमें किसानों की आमदनी बढ़ाने पर भी जोर होगा और खेती-बाड़ी को प्रकृति-परिवेश के लिहाज से उचित और टिकाऊ बनाने पर भी. अभी सरकार का जोर गेहूं और धान के उपार्जन पर लगा रहता है और इससे किसानों में गेहूं-धान उपजाने की एक बुरी होड़ लगी रहती है. इसकी जगह, ढेर सारी फसलों पर आमदनी के मद में सहायता के उपाय होने चाहिए और ऐसी सहायता के साथ ये शर्त भी जोड़ दी जाये कि जो फसल स्थानीय पारिस्थितिकी की जरूरतों के अनुकूल होगी, उसी पर ये सहायता दी जायेगी. फसल को दिया जाने वाला बीमा और कर्ज भी इसी बड़ी योजना में जोड़ दिया जाये. आमदनी में सहायता देने की इस योजना में एक छोटा हिस्सा सीमांत किसान, महिला किसान और अन्य वंचित तबके के किसानों के लिए रखा जाये. और, योजना को पशुचारक, ग्रामीण उद्योग तथा हस्तशिल्प आदि से जोड़ दिया जाये. खेती-किसानी के भविष्य को ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकेंद्रित नवोत्थान से जोड़कर देखना जरूरी है.

क्या ऐसा किया जाये तो बेतहाशा रकम खर्च करनी होगी? हां, प्रचलित मूल्यों के हिसाब से देखें तो हमें तीन-चार लाख करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च करने होंगे यानि ग्रामीण भारत के पुनर्जीवन देने के लिए केंद्रीय बजट का 10 फीसद हिस्सा लगाना होगा.

क्या देश इतना खर्चा उठा सकता है? क्या इतना खर्च करना हमारी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में शामिल होना चाहिए? यहां बात आती है राजनीतिक इच्छा शक्ति की. मौजूदा किसान-आंदोलन की असल कामयाबी का पैमाना यही है कि ऐसी अत्यंत जरूरी राजनीतिक इच्छा-शक्ति तैयार कर पाने में वह किस हद तक कामयाब हो पाता है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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