2019 के लोकसभा के चुनाव परिणाम कई दृष्टि से चौंकाने वाले हैं. बीजेपी की अप्रत्याशित जीत इसका एक पहलू है. लेकिन साथ ही, सामाजिक न्याय की राजनीति के भविष्य पर भी इन नतीजों के बाद सवाल उठने लगे हैं.
इन सवालों की शुरुआत उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के बाद से हो गई थी जिसमें बीजेपी की जोरदार वापसी हुई थी. ऐसा माना जा रहा था कि सपा और बसपा के साथ आने से बीजेपी को चुनौती दे पाना संभव होगा, लेकिन लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में असीम संभावनाओं वाले बसपा-सपा महागठबंधन 20 से कम सीटों पर सिमट गया. इसके साथ ही बिहार में राजद का सूपड़ा साफ हो जाना और मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि राज्यों में सामाजिक न्याय की पार्टियों का चुनावी राजनीति से लगभग गायब हो जाना गंभीर विश्लेषण की मांग करता है.
इस तरह के निराशाजनक परिणाम के पीछे दो में से एक वजह हो सकती है- या तो जनता का सामाजिक न्याय की राजनीति में कोई यकीन नहीं रहा और इस राजनीति का अंत हो गया है, या फिर सामाजिक न्याय की राजनीति का नेतृत्व करने वाले दलों और नेताओं में गंभीर समस्याएं हैं या फिर उनकी सीमाएं सामने आ रही हैं.
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पिछले कुछ वर्षों में दलित-आदिवासी-पिछड़ों के आंदोलन इस बात के गवाह हैं कि सामाजिक अन्याय और उसके खिलाफ जनता के स्तर पर प्रतिरोध जारी है. साथ ही, समाज में जन्म आधारित पहचान के आधार पर पूर्वाग्रह और शोषण भी जारी है. जो नई बात हुई है, वो यह कि सामाजिक न्याय की रहनुमाई करने वाली पार्टियों में लोगों का भरोसा कमजोर हुआ है. इसलिए आंदोलन की कमान नेताओं और राजनीतिक दलों से हाथ से निकल गई है और जनता खुद आंदोलन चला रही है.
पिछले वर्षों में हुए सामाजिक न्याय के आंदोलन किसी पार्टी ने नहीं, जनता ने खुद किये हैं. रोहित वेमुला, ऊना प्रकरण, सहारनपुर, 2 अप्रैल का भारत बंद, 5 मार्च का भारत बंद- सब के सब बिना किसी राजनीतिक दल के सहयोग के हुए. इन आंदोलनों की सफलता के बाद स्थापित पार्टियों ने खुद को इनमें शामिल कर यश लेने की कोशिश की.
वर्तमान में दलितों के पास अपने छोटे-छोटे सामाजिक संगठन तो हैं लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसा बड़ा संगठन नहीं. जो छोटे संगठन हैं भी, सामाजिक न्याय की रहनुमाई करने वाली पार्टियां उनको प्रोत्साहित करने के बजाय उन्हें अपना प्रतिद्वंद्वी समझकर रास्ते से हटाना चाहती हैं.
राजद का सामाजिक न्याय और परिवारवाद की बीमारी
आइए, अब उत्तर भारत में सक्रिय सामाजिक न्याय की तीन प्रमुख रहनुमा पार्टियों का एक-एक करके विश्लेषण करते हैं. राजद ने एक समय बिहार के सामाजिक ढांचे को गंभीर चुनौती दी थी और इसी वजह से बिहार की राजनीति में वह लंबे समय तक सामाजिक न्याय का पर्याय बनी रही. लेकिन लालू के बाद राबड़ी, तेजस्वी और तेज प्रताप के आने से लोगों के दिमाग में यह सवाल घर कर गया कि सामाजिक न्याय मतलब एक ही परिवार का राज तो नहीं! कायदे से सामाजिक न्याय की लड़ाई का प्रसार नए नए नेताओं औऱ अलग अलग जातियों में होना चाहिए था. नए नेतृत्व के लिए संभावनाएं पैदा करनी चाहिए थी लेकिन बिहार में ऐसा नहीं हो सका इसलिए जनता ने सामाजिक न्याय के रहनुमाओं को आत्मालोचन का अवसर उपलब्ध कराया है.
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बसपा की सामाजिक आंदोलनों से दूरी
अब बसपा की बात करते हैं. इस बार बसपा का प्रदर्शन सीटों के हिसाब से पिछले लोकसभा चुनाव की तुलना में काफी बेहतर है लेकिन यह अपेक्षित नहीं है. सपा के साथ आकर भी बसपा अगर इतनी कम सीटों पर फंस गई है, तो यह उसकी किसी गंभीर समस्या का संकेत है. बसपा की सबसे बड़ी कमी पार्टी की सामाजिक संघर्षों से बढ़ती दूरी है. कांशीराम जो गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले घूमकर बाबासाहब के मिशन को आगे बढ़ाते थे, उत्पीड़ित दलितों को न्याय दिलाने के लिए काम करते थे, वह सब पीछे छूट गया. बसपा की दूसरी समस्या उसमें आंतरिक लोकतंत्र का न होना है. पार्टी के पास ऐसे नेताओं की कमी है, जिनकी राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर पहचान हो. स्थिति यह है कि बसपा के पास टीवी चैनलों में पार्टी का पक्ष रखने के लिए पर्याप्त प्रवक्ता नहीं हैं. तीसरी समस्या बसपा का गैर-जाटव दलितों से कटते चले जाना है.
सामाजिक न्याय की राजनीति की विरासत का दावा करने वाली समाजवादी पार्टी भी अब संकट का सामना कर रही है. लोक छवि यह है कि सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री के तौर पर काम तो अच्छा किया लेकिन पार्टी की यादववादी छवि से बहुत नुकसान हुआ है. विकास को राजनीति समझ लेना भी सपा की बड़ी चूक थी. विकास किसी सरकार का काम होता है. पार्टी इस बात की राजनीति नहीं कर सकती कि उसकी सरकार ने काम किया है.
इसके अलावा, सपा और बसपा ने एक दूसरे से लगभग 25 साल तक तीखी और अशोभनीय लड़ाई लड़ी है. इसलिए महागठबंधन में शामिल होने के बावजूद दलित और पिछड़े इतने कम समय में एक-दूसरे पर भरोसा करने के लिए तैयार नहीं हुए, चुनाव परिणाम इस ओर इशारा करते प्रतीत होते हैं.
गुजरात और राजस्थान में पहली बार लोकसभा चुनाव में उतरी भारतीय ट्राइबल पार्टी ने कड़ी टक्कर दी है. उम्मीद है आने वाले समय में यह पार्टी और आगे बढे़गी.
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असफल साबित हुए रिजर्व सीट से आए सांसद
सामाजिक न्याय की राजनीति पर बात करते वक्त यह रेखांकित करना जरूरी है कि इसकी लड़ाई को आगे बढ़ाने की पहली जिम्मेदारी आरक्षित सीटों से चुनकर आने वाले नेताओं की है. लेकिन पिछले वर्षों में वे इस काम में बुरी तरह विफल हुए हैं. वे पार्टी हाईकमान के गुलाम बनकर रह गए हैं. बाबासाहब अंबेडकर ने गांधी जी से लड़कर संसद और विधानसभाओं में आरक्षण की व्यवस्था करवाई थी. आरक्षित सीटों से चुनकर आने वाले सांसद जिस तरह अक्षम साबित हो रहे हैं, वह पूरे समाज के लिए निराशाजनक है. फिर स्वतंत्र रूप से सामाजिक न्याय के सवालों को उठाने वाले ईमानदार लोगों को बड़ी पार्टियां आत्मसात कर लेती हैं. उनकी चेतना और संभावनाओं का ये पार्टियां जमकर दोहन करती हैं.
ऐसा प्रतीत होता है कि सामाजिक न्याय की राजनीति को सजीव करने के लिए नए ईमानदार संगठनों की जरूरत है. इन संगठनों की प्राथमिक जिम्मेदारी सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव हो. जब तक समाज में जन्माधारित पहचान के आधार पर शोषण होता रहेगा, सामाजिक न्याय की राजनीति प्रासंगिक रहेगी. हां, उसे सड़क पर, संघर्षों में साथ रखना होगा.
(लेखक तुर्की के अंकारा विश्वविद्यालय में इंडोलॉजी डिपार्टमेंट के विजिटिंग प्रोफेसर हैं.)