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Friday, 26 April, 2024
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वादों की पड़ताल: मोदी सरकार में चारों खाने चित हुआ सामाजिक न्याय

बीजेपी के 2019 के संकल्प पत्र में एससी, एसटी, ओबीसी का नाम मात्र का जिक्र है, सबके लिए न्याय के सेक्शन में उनसे ज्यादा जगह आर्थिक रूप से गरीब सवर्णों को मिली है. जाहिर है कि बीजेपी का फोकस इस बार सवर्णों पर है.

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जब सामाजिक न्याय की बात होती है, तो इसका मतलब मुख्य रूप से अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्गों और फिजिकली चैलेंज्ड लोगों के हित के मामले होते हैं. राष्ट्र की मुख्यधारा में हर सामाजिक तबके को हिस्सेदार बनाने की संविधान की प्रस्तावना ही सामाजिक न्याय का आधार है. चूंकि ये तबके देश की बहुसंख्य आबादी में भी हैं, इसलिए उम्मीद की जाती है कि राजनीतिक दल अपने चुनावी वादों में इनके लिए समुचित घोषणाएं करेंगे.

इस मामले में बीजेपी का वर्तमान संकल्प पत्र काफी दरिद्र है. इसमें समावेशी विकास के नाम पर सिर्फ ये वादा है कि इन तबकों के लिए किए गए संवैधानिक प्रावधानों को लागू किया जाएगा और उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाएगा. सबका विकास के अध्याय में आदिवासियों के लिए एकलव्य विद्यालय, सीवर की सफाई के लिए मशीन लाने, आदिवासियों के लिए वन धन विकास केंद्र बनाने और जंगल पर उनके अधिकार सुनिश्चित करने की बात है.

इस बारे में जो कहा गया है कि वह वादे से कहीं ज्यादा सफाई देने जैसा दिखता है. दरअसल बीजेपी को अपने पिछले पांच साल के कार्यकाल में सामाजिक न्याय के मुद्दे पर काफी सफाई देनी है.

एससी-एसटी एक्ट, दलित उत्पीड़न, विश्वविद्यालयों में 200 प्वांट रोस्टर प्रणाली लागू करने का विवाद, कैबिनेट सचिवालय में नियुक्तियों, मंत्रिमंडल में ताकतवर मंत्रालय अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग को देने जैसे कई मामले में भारतीय जनता पार्टी सरकार पूरी तरह विफल रही है. विश्वविद्यालयों की नौकरियों में विभागवार रोस्टर लागू करने के बाद तो ओबीसी, एससी, एसटी के लिए आरक्षित सीटें लगभग खत्म हो गईं. सरकार ने इस मामले को देर तक टाला और अंत में जाकर इस पर अध्यादेश लेकर आई. इस वजह से हजारों नियुक्तियां टल गईं.

भाजपा ने 2014 चुनाव के पहले अपने घोषणापत्र में वादा किया था-

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1- सामाजिक न्याय और सामाजिक समरसता को आर्थिक न्याय और राजनीतिक सशक्तीकरण के साथ बढ़ाया जाएगा.

2- शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका में समान अवसर का वातावरण बनाया जाएगा.

3- समाज के इस तबके को गरीबी रेखा से ऊपर लाने के लिए ज्यादा प्रभावी तरीके से काम.

4- एससी, एसटी, ओबीसी और अन्य कमजोर तबके के लिए चलाई जा रही योजनाओं के लिए आवंटित राशि का उचित इस्तेमाल.

पिछड़ी आबादी देश की आबादी का 52 प्रतिशत है. ये आंकड़ा दूसरे राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग यानी मंडल कमीशन का है. चूंकि देश में 1931 के बाद एससी-एसटी के अलावा बाकी जाति समूहों की जनगणना नहीं हुई, इसलिए ओबीसी की संख्या के बारे में 1931 के आंकड़ों से ही काम चलाया जाता है.

2017 के एक सूचना के अधिकार से मांगी गई जानकारी के मुताबिक 35 केंद्रीय मंत्रालयों में से 24, केंद्रीय विभागों और विभिन्न संवैधानिक निकायों में 37 में से 25 के बारे में मिली जानकारी के मुताबिक ओबीसी का प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं है. समूह ए में 24 मंत्रालयों में ओबीसी की संख्या 17 प्रतिशत जबकि 57 मंत्रालयों, विभागों व संवैधानिक निकायों में समूह ए में ओबीसी अधिकारी महज 14 प्रतिशत हैं.

सूचना के अधिकार के तहत महेंद्र प्रताप सिंह ने कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) में सामान्य, पिछड़ा, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के ग्रुप ए के अफसरों की संख्या की जानकारी मांगी. सितंबर 2016 में विभाग की ओर से केंद्रीय मंत्रालय के अंडर सेक्रेटरी, डिप्टी सेक्रेटरी, डायरेक्टर, ज्वाइंट सेक्रेटरी, एडिशनल सेक्रेटरी और सेक्रेटरी या इनके समकक्ष पदों के बारे में जानकारी दी गई.

आरटीआई के दस्तावेजों के मुताबिक ओबीसी वर्ग का एक भी अधिकारी केंद्रीय मंत्रालयों में सचिव व अतिरिक्त सचिव स्तर पर नहीं था. सचिव पद पर सामान्य वर्ग के 110 और एसटी वर्ग के दो अफसर कार्यरत थे. अतिरिक्त सचिव पद पर 106 अधिकारी सामान्य वर्ग के और 5-5 अधिकारी एसटी और एसटी वर्ग के थे.

कुल मिलाकर इन बड़े पदों पर नियुक्ति पाने वालों में 82 प्रतिशत अधिकारी सामान्य वर्ग से थे, जबकि 5.40 प्रतिशत पिछड़े वर्ग के और 8.63 प्रतिशत लोग अनुसूचित जाति वर्ग के पहुंच पाए थे. यह ऐसे पद हैं, जहां से समाज के विभिन्न तबकों का भाग्य तय होता है और देश की नीतियां बनती हैं. ये समस्या यूपीए शासन से चली आ रही है. लेकिन बीजेपी ने इसे ठीक करने की दिशा में कोई काम नहीं किया.

विश्वविद्यालयों में विभागवार आरक्षण करने के न्यायालय के फैसले के बाद देशभर के शिक्षण संस्थानों में बड़े पैमाने पर भर्तियां निकाली गईं, जिसमें एससी, एसटी, ओबीसी तबके के लिए रिक्तियां आनी ही बंद हो गईं. इस मसले पर हंगामा होने पर सरकार ने संसद में आश्वस्त किया कि इस नियम को बदला जाएगा. हालांकि इस दिशा में सरकार ने संसद को जो आश्वासन दिया, उस दिशा में भी कुछ नहीं हुआ और विभिन्न विश्वविद्यालय भर्तियां निकालते रहे. सरकार की याचिका उच्चतम न्यायालय में भी खारिज हो गई तो देशभर में विरोध प्रदर्शनों के बाद सरकार अध्यादेश लेकर आई है और वह मामला भी न्यायालय में पहुंच गया.

शोध छात्र करीब 5 साल तक स्कॉलरशिप बढ़ाने की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन करते रहे. गैर जेआरएफ शोधार्थियों को मिलने वाले धन में लगातार कमी की जाती रही है, जिसका सीधा नुकसान गांव गिरांव से सरकारी स्कूल से पढ़ाई करने वाले बच्चों को हो रहा है. यह स्कॉलरशिप बढ़ाने के बजाय इसके कोटे में कमी की जाती रही है, जिसको लेकर छात्रों को बार बार आंदोलन करना पड़ा. सरकार ने चुनाव के ठीक पहले कुछ मामलों में स्कॉलरशिप बढ़ाने की घोषणा की है. शोधार्थियों के स्कॉलरशिप लंबे समय तक लटके रहने से छात्रों को मानसिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा है.

अगर आर्थिक विकास की स्थिति देखें तो भी ओबीसी की स्थिति दयनीय नजर आती है. ओबीसी विकास का केंद्र सरकार का फंड वर्तमान बजट में सिर्फ 1,745 करोड़ रुपये है. प्रति ओबीसी केंद्र सरकार का सालाना खर्च लगभग 25 रुपये है. ये रकम भी 9 योजनाओं में विभाजित है.

केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया है, जिसे बड़ी उपलब्धि बताया जाता है. हालांकि इस तरह का संवैधानिक दर्जा अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग को पहले से ही मिला हुआ है. संवैधानिक दर्जा देने के बाद भी आयोग के चेयरमैन की नियुक्ति काफी समय तक टलती रही. दो साल तक पद खाली रहने के बाद इसे भरा गया. नया आयोग अब तक कुछ भी महत्वपूर्ण या उल्लेखनीय नहीं कर पाया है.

इन आयोगों का काम समुदाय के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना है. विश्वविद्यालयों में विभागवार रोस्टर लगाकर जब संविधान प्रदत्त आरक्षण खत्म किया जा रहा था तब ये आयोग कहीं दूर दूर तक नजर नहीं आए, जिससे लगता है कि इस तरह के आयोग दिखावा बनकर रह गए हैं.

आदिवासियों की वन भूमि पर अधिकारों पर इस सरकार के कार्यकाल में हमला हुआ. मामले की ढीली पैरवी के कारण लाखों आदिवासियों के विस्थापन की स्थिति आ गई. अभी ये मामला अस्थाई रूप से टला है. लेकिन इस मामले में आगे क्या होगा, इसे लेकर आशंकाएं हैं.

इसके अलावा एससी-एसटी को विशेष संरक्षण देने के लिए 1989 में बनाए गए एससी-एसटी अत्याचार निवारण कानून पर भी इस सरकार के दौरान खतरा मंडराया. सरकार के एडिश्नल सॉलिसिटर जनरल के गलत हलफनामे के कारण सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को कमजोर करने का आदेश जारी कर दिया. संसद के अंदर और बाहर जबर्दस्त विरोध और भारत बंद के बाद आखिरकार सरकार ने कानून बनाकर इसे पुराने रूप में बहाल किया. एनडीए सरकार का पूरा कार्यकाल जाति उत्पीड़न की कई चर्चित घटनाओं के लिए जाना जाएगा. उनमें रोहित वेमुला आत्महत्या या सांस्थानिक हत्या, ऊना में मरी गाय का चमड़ा छीलने पर दलितों की बेरहमी से पिटाई, डेल्टा मेघवाल हत्याकांड, यूपी में एक दलित दूल्हे की घुड़चढ़ी पर विवाद आदि प्रमुख है.

इस तरह सामाजिक न्याय के सवाल पर बीजेपी सरकार का ट्रेक रिकॉर्ड शानदार नहीं रहा. हालांकि उसके लिए अच्छी बात ये है कि विपक्षी दल भी इसे मुद्दा नहीं बना पा रहे हैं.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.)

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