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Friday, 26 April, 2024
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मौजूदा चुनाव में समाजवाद और सामाजिक न्याय एक बार फिर सतह पर

भारत जैसे देश में जहां समाज जाति और वर्ग के नाम पर बुरी तरह बंटा हो, वहां समाजवाद की सफलता सामाजिक न्याय संबंधी नीतियों के कार्यान्वन पर निर्भर करती है.

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लोकसभा चुनाव, 2019 में उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का साथ आना, कांग्रेस के घोषणापत्र में समाजवादी विचारों को प्रमुखता मिलना तथा बिहार में वंचित जाति समूहों का महागठबंधन बनना महत्वपूर्ण घटनाक्रम है. इसकी वजह से सामाजिक न्याय और समाजवाद के जो मुद्दे पिछले कुछ साल से पीछे छूट गए थे, उन्हें फिर से प्रमुखता मिली है. ये वो विचार हैं, जो भारत जैसे विविधतापूर्ण और व्यापक गरीबी वाले देश के लिए बेहद ज़रूरी हैं. ये वो विचार हैं, जिनकी जड़ें स्वतंत्रता आंदोलन में हैं और संविधान निर्माताओं ने उन्हें महत्वूर्ण माना था. पहले कांग्रेस ने आर्थिक उदारीकरण के क्रम में समाजवादी विचारों को तिलांजलि दे दी और उसे भाजपा ने और भी आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाया. सामाजिक न्याय के मुद्दे पर बीजेपी सरकार ने विपरीत दिशा में ही यात्रा की है. इस क्रम में सरकारों ने अपनी लोक कल्याणकारी भूमिकाएं खो दीं हैं.

लेकिन मौजूदा चुनावों से ऐसी उम्मीद जगी है कि समाजवाद और सामाजिक न्याय के विचार फिर से प्रभावशाली हो सकते हैं. हालांकि ये बहुत हद तक चुनाव नतीजों से भी तय होगा.

स्वाधीनता आंदोलन के दौरान तय था कि स्वतंत्र भारत का मूल चरित्र समाजवादी राज्य का होगा. गांधी घोषित रूप में समाजवादी नहीं थे, मगर अंत्योदय का उनका विचार समाजवाद और सामाजिक न्याय की आवश्यकता एवं उनके महत्व को रेखांकित करता है. आधुनिक भारत के निर्माताओं में अग्रणी डॉ. आंबेडकर मूलतः अर्थशास्त्री थे. उनके विचार और संविधान का स्वरूप कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का समर्थन करते हैं. आगे चलकर उन्होंने स्वयं को समाजवादी नेताओं तथा संगठनों से अलग रखा तो उसके इतर कारण थे. यूरोपीय जीवनशैली में पले-बढ़े जवाहरलाल नेहरू रूसी क्रांति से प्रभावित थे. उनके नेतृत्व में भारत मिश्रित अर्थव्यवस्था वाला देश बना.

समाजवादी चेतना और इंदिरा गांधी

इंदिरा गांधी द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ शब्द जोड़ने को कुछ लोग राजनीति मानते हैं. राजे-रजवाड़ों के प्रिवी पर्स की समाप्ति, बैंकों तथा कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण, भूमि सुधार, महिलाओं के लिए समान वेतन जैसे कानून, देश को समाजवादी राज्य में ढालने की नीति का ही हिस्सा था. उन्हीं के कारण इंदिरा गांधी को सामंतों, राजे-रजवाड़ों और ज़मींदारों के आक्रोश का सामना करना पड़ा था. वे जनसंघ के बैनर तले उनके विरोध में संगठित होने लगे.

बिहार सर्वाधिक भू-असमानता वाले प्रांतों में से था. वहां जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में शुरू हुआ ‘संपूर्ण क्रांति’ आंदोलन, ठेठ प्रतिक्रियावादी आंदोलन था. इस आंदोलन के परिणामस्वरूप 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी. जगजीवन राम के बजाय मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाया गया, जो तत्कालीन नेताओं की दलित और पिछड़ा विरोधी मानसिकता को दर्शाता था.

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जनता पार्टी का प्रयोग भले असफल रहा हो, लेकिन संपूर्ण क्रांति आंदोलन पूर्णतः निष्फल नहीं था. उससे पिछड़ी तथा निचले क्रम की जातियों में राजनीतिक चेतना का संचार हुआ था. जनता पार्टी से कई दल निकले. भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल सेकुलर, बीजू जनता दल, जेडी-यू उसी के गर्भ से निकली हुई या बाद में छिटकी हुई पार्टियां हैं. इनमें भारतीय जनता पार्टी समाज के प्रभुवर्ग के हितों की रक्षा को समर्पित है. यह उसने पिछले पांच वर्षों के दौरान सिद्ध भी किया है.

त्रिवेणी संघ और लालू प्रसाद यादव

लालू यादव ने संपूर्ण क्रांति आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. मीसा कानून के अंतर्गत जेल भी गए थे. परंतु जिस राजनीति के आधार पर कालांतर में उन्होंने सफलता प्राप्त की, आज भी बिहार की राजनीति में उनकी प्रतिष्ठा हैーउसकी जमीन ‘त्रिवेणी संघ’ द्वारा तैयार की गई थी. निचली-मंझोली जातियों को संगठन का महत्त्व समझाने के साथ-साथ पहली बार त्रिवेणी संघ ने उत्तर भारत में ब्राह्मणवाद से मुक्ति का नारा दिया था. उसने सामाजिक न्याय के पक्ष में भी आवाज उठाई थी. मगर राजनीतिक पटल पर सामाजिक न्याय का प्रतिनिधित्व हुआ बहुजन समाज पार्टी के उभार से, जिसका गठन मान्यवर कांशीराम द्वारा फुले और आंबेडकर के सपनों को साकार करने के लिए किया गया था.

साम्यवादी नेताओं की सवर्ण मानसिकता

अस्सी के दशक तक समाजवाद देश के सर्वाधिक लोकप्रिय शब्दों में से था, जबकि सामाजिक न्याय का कोई नामलेवा न था. क्योंकि जिस वर्ग के लिए सामाजिक न्याय अपेक्षित है, वह राजनीतिक समझ और अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की ओर से बेखबर था. समाजवाद के नाम पर जो भी नेता सत्ता में आए, किसी न किसी रूप में वे सभी पूंजीवाद और सामंतवाद का पोषण करते रहे. साम्यवादियों के आदर्श श्रीपाद अमृत डांगे (आदिम साम्यवाद) और करपात्री (मार्क्सवाद और रामराज्य) जैसे लेखक बने. डांगे यज्ञ को ‘आर्य साम्य-संघ की सामूहिक उत्पादन पद्धति’ मानते थे तो करपात्री के लिए रामराज्य, मार्क्सवाद से कहीं अधिक उन्नत राजनीतिक व्यवस्था थी. भारतीय साम्यवादी दलों पर आज भी इसी मानसिकता के नेताओं का कब्जा है.


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संविधान की प्रस्तावना का हिस्सा बनने तथा लोहिया जैसे नेताओं के बावजूद भारत में यदि समाजवादी आंदोलन असफल रहा है तो उसके पर्याप्त कारण हैं. समाजवादी व्यवस्था में समस्त संसाधन राज्य के अधिकार में होते हैं. अपेक्षा की जाती है कि राज्य संसाधनों का प्रबंधन इस प्रकार करेगा कि उनका लाभ ऊपर से नीचे तक सभी नागरिकों को समान रूप से मिल सकेगा. विशेषकर उन्हें जो किसी न किसी कारण से वंचना का शिकार रहे हैं.

समाजवाद की कमजोरी है कि वह संसाधनों को राज्य के अधिकार में पहुंचाने के बाद मौन हो जाता है. राज्य पर नियंत्रण करने वाली शक्तियां कौन-सी हैं? उनका मिजाज कैसा है? उनका आचरण निष्पक्ष है अथवा पक्षपातपूर्ण, इसपर वह ध्यान नहीं देता. यदि उन संस्थाओं पर खास वर्गों का कब्जा हो, उनका जो सत्ता को अपना विशेषाधिकार मानते हैं, तो समाजवाद के सारे लाभ धरे के धरे रह जाते हैं. समाजवाद की ढुलमुल परिभाषा का लाभ उठाकर हिटलर जैसा तानाशाह भी समाजवादी होने का दावा करता था. चीनी राष्ट्रपति झी जिनपिंग अपनी साम्राज्यवादी नीतियों को ‘चीनी मिजाज का समाजवाद’ कहकर आगे बढ़ा रहे हैं.

समाजवाद और सामाजिक न्याय

समाजवादी राज्य के मायने क्या हैं, उसका कर्तव्य क्या होना चाहिए, संसाधनों के हाथ में आने के बाद कैसे उनका उपयोग न्यायसंगत और कल्याणकारी राज्य की मान्यताओं के अनुरूप होーयह दृष्टि सामाजिक न्याय समाजवाद को देता है. भारत जैसे देश में जहां समाज जाति और वर्ग के नाम पर बुरी तरह बंटा हो, वहां समाजवाद की सफलता सामाजिक न्याय संबंधी नीतियों के कार्यान्वन पर निर्भर करती है. सामाजिक न्याय अपेक्षाकृत आधुनिक विचार है. वह राज्य के कर्तव्य, उसकी न्याय-भावना का संकेतक है और कसौटी भी. सामाजिक न्याय राज्य को कल्याणोन्मुखी फैसले लेने में मदद करता है.

चाहें तो लोकतंत्र को भी इनमें जोड़ सकते हैं. अधिनायकवादी राज्य में संसाधनों का प्रयोग शासक वर्ग और उसके चहेतों के वैभव-विलास तक सिमट जाता है. ऐसे राज्य में न तो समाजवाद फल-फूल सकता है, न ही सामाजिक न्याय के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है. फासीवादी तथा पूंजीवादी राज्यों में सामाजिक न्याय संभव ही नहीं है. कुल मिलाकर सामाजिक न्याय, समाजवाद और लोकतंत्र तीनों एक-दूसरे के पूरक और अस्तित्व की कसौटी हैं.

भारत में आर्थिक असमानता के अलावा जातीय असमानता जैसी विकृत और अमानवीय व्यवस्था भी है. समानता-आधारित समाज के लिए, जाति पर प्रहार करना आवश्यक है. ‘जाति का उच्छेद’ शीर्षक से तैयार किए गए ऐतिहासिक व्याख्यान में डॉ. आंबेडकर की हिंदुवादियों से यही अपेक्षा थी. उस समय उन्हें भाषण देने से रोक दिया गया था. आज भी जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त छद्म समाजवादी और साम्यवादी भारतीय राजनीति में भरे पड़े है. उनपर तथा भारतीय जनता पार्टी जैसे दक्षिणपंथी दलों पर अंकुश रखने के लिए समाजवादी तथा सामाजिक न्याय को समर्पित दलों की एकजुटता आवश्यक है. इसमें लोकतंत्र और संविधान का आदर करने वाले दल भी शामिल हो जाएं, तो सोने पर सुहागा.

हाल के आम चुनावों में इस दिशा में कुछ कदम आगे बढ़े हैं. इसकी सफलता भारतीय राजनीति की अगली दिशा तय करेगी.

(साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन करने वाले ओमप्रकाश कश्यप की लगभग 35 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.)

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