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Tuesday, 23 April, 2024
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सवर्णों ने जातियां बनाई और अब वे जाति-विरोधी आंदोलनों के नेता भी बनना चाहते हैं!

कन्हैया कुमार पर प्रोफेसर अपूर्वानंद की टिप्पणी और सामाजिक न्याय के विभ्रम और सच को उधेड़ता ये लेख उन सवालों से टकरा रहा है, जो भारतीय समाज में सुधार आंदोलनों की आगे की दिशा के लिए महत्वपूर्ण हैं.

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लोकसभा चुनाव के दौरान बेगूसराय सीट पर सीपीआई के प्रत्याशी कन्हैया कुमार को लेकर सोशल मीडिया पर भारी-भरकम बहस चली. इस बहस का एक छोर सामाजिक न्याय से जुड़ता है. कन्हैया कुमार का सामाजिक न्याय को लेकर क्या स्टैंड रहा, जेएनयू छात्रसंघ का अध्यक्ष रहते हुए कन्हैया ने कब-कब सामाजिक न्याय विरोधी फ़ैसले का साथ दिया, कब-कब आरक्षण का विरोध करते हुए प्रशासन से समझौता कर लिया, इसे छोड़ते हैं. यानि, कन्हैया कुमार पर कोई टिप्पणी न करते हुए दरअसल ये लंबी टिप्पणी ‘द वायर’ पर अपूर्वानंद की एक वीडियो में आए सामाजिक न्याय संबंधी तर्क-कुतर्क पर केन्द्रित है.

कन्हैया कुमार पर एक बहुत अच्छी वीडियो दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद ने ‘द वायर’ पर बनाया है. जिसकी ‘अति-सम्मानित भाषा’ ने सबसे पहले मन मोह लिया. ऐसा सम्मान हमें हर किसी उभरते हुए स्वर का करना चाहिए. बहरहाल, इसमें कन्हैया के ऊपर कुछ सवालों के हवाले से सामाजिक न्याय पर अपूर्वानंद ने टिप्पणी की है.

कन्हैया की जाति उघाड़ने को लेकर अपूर्वानंद की चिंता

पहला सवाल कुछ यूं है कि- ‘कन्हैया के ऊपर ये सवाल उठाया जा रहा है कि कन्हैया उच्च जाति के यानि भूमिहार हैं, इसलिए वे दलितों, पिछड़ों के हितों का नेतृत्व नहीं कर सकते.’ इसके जवाब में अपूर्वानंद कहते हैं- ‘जाति एक जैविक तथ्य नहीं है, यह एक सामाजिक मान्यता है. भारत में जाति सामाजिक है, लेकिन जैविक जैसी हो गई है. हम मानते हैं कि हम भूमिहार, क्षत्रिय, ब्राह्मण हैं. जाति कोई आत्यंतिक गुण नहीं है, जिससे आपको देखकर आपकी जाति बताई जा सके. लेकिन आपकी पहचान उसी जाति में शेष कर दी जाती है. कन्हैया के साथ यही किया जा रहा है.’

जाति संबंधी इस मान्यता पर पहली आपत्ति यह कि भारत में जाति एक सामाजिक संरचना है, लेकिन जैविक हो गई. यह किसने किया? दलितों, पिछड़ों ने? जाति किसने बनाई और कौन इसके शिखर पर बैठ गया? क्या जाति को ही आधार बनाकर सदियों से बहुसंख्यक बहुजन तबके की समग्र पहचान उनकी जाति में ही सीमित नहीं कर दी गई? क्या आज भी बहुजनों के तमाम आत्यंतिक गुणों को जाति के चलते नज़रअंदाज़ करके उनका सामाजिक-सांस्कृतिक बहिष्करण नहीं किया जा रहा? अकादमिक जगत के इंटरव्यूज़ से लेकर घोड़ी से उतार कर पीटे जा रहे दूल्हों तक के मामलों में चेहरे से यानि सामने से जाति नहीं देख ली जाती? जहां जाति बताई नहीं जाती, बाकायदा पूछी जाती है.

सवर्णों को जातिवाद से लड़ने का पूरा हक

अपूर्वानंद यहां तक क्यों कर न आ सके? ख़ैर! आगे अपूर्वानंद कहते हैं- ‘अगर जाति में ही हमारी पहचान शेष कर दी गई, तो हम कभी भी अपने दायरे से बाहर निकल कर एक रिश्ता कायम नहीं कर सकते. यदि आप संयोग से तथाकथित उच्च जाति में पैदा हो गए, तो आप किसी दलित, पिछड़े से सहानुभूति नहीं रख सकते, कभी भी उनके संघर्ष में शामिल नहीं हो सकते.’

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असली सवाल यही है कि जब इस मुल्क के बहुसंख्यक दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक लगातार अपने जातिगत दायरे से बाहर निकलने के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन चलाते रहे, कि जाति तोड़ो, जाति ख़त्म करो, तब किसने इन आवाज़ों को कुचला? क्या अपूर्वानंद नहीं जानते कि जाति के खिलाफ लिखने, बोलने, लड़ने वालों में बड़ी तादाद में प्रगतिशील सवर्ण भी रहे, उन्हें किसी ने रोका क्या कि आप सवर्ण हो, जाति के खिलाफ मत लिखो, मत लड़ो. वे लिखे भी और लड़े भी.

अपूर्वानंद की वास्तविक चिंता है कि नेता सवर्ण ही बना रहे

क्या अपूर्वानंद ये तथ्य नहीं जानते? नहीं, मैं उनकी मेधा पर सवाल नहीं करूंगा. वे जानते सब हैं, बस मानते नहीं. क्योंकि अपूर्वानंद की असल चिंता नेतृत्व को लेकर हैं. वे चाहते हैं कि हर आंदोलन की तरह जाति विरोधी आंदोलनों के अगुआ भी सवर्ण ही बनें. क्योंकि वे जन्मजात मेरिटधारी हैं, दैवीय नेतृत्वधारी हैं. प्रकारांतर से अपूर्वानंद मानते हैं कि सवर्ण किसी बहुजन के नेतृत्व में कैसे रहेगा.

क्या अपूर्वानंद अपने प्रिय विषय ‘सांप्रदायिकता’ पर भी ये कहेंगे, कि बहुसंख्यक हिन्दू ही अल्पसंख्यक आवाज़ों के नेता बनें? अरे भाई! नेता ही क्यों बनना. दरी बिछाओ, पर्चे बांटो, भीड़ जुटाने मंच लगाने में मदद करो, कुर्बानी दो और नेता किसी दलित, पिछड़े, आदिवासी, पसमांदा को बनने दो. हर बार तुम माइक छीन मंच कब्ज़ा लेते हो. हर बार नेता तुम ही क्यों बनोगे. और सहानुभूति को लेकर अपूर्वानंद को जवाब हिंदी का दलित विमर्श और आंदोलन बहुत पहले ही दे चुका है, उसे वे शायद भूल गए हों.


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अपूर्वानंद आगे कहते हैं कि- ‘दुनिया भर में उत्पीड़ितों के संघर्षों में उस समुदाय से बाहर के लोगों ने हिस्सा लिया है. तभी उनमें विजय हासिल की गई है. हम प्रतिनिधित्व को जाति और धर्म में शेष करके रख देंगे, तो हारेंगे.’

यहाँ मैं अपूर्वानंद से पूरी तरह सहमत हूँ. दुनिया के बाकी मुल्कों की तरह भारत में भी ऐसा हुआ. तमाम सवर्णों ने दोस्ताना संघर्ष किए, लेकिन अपूर्वानंद ये क्योंकर नहीं बोल पाए, कि भारत में इस दोस्ताने को मनुवादी, ब्राह्मणवादी, पितृसत्ता ने हर बार तोड़ दिया. और इनमें जो बहुत महीन रहे, उन्होंने अक्सर बहुजन आवाज़ों के साथ अन्याय किया. इसलिए यहाँ ये दोस्ताना चकनाचूर होता रहा.

जाति के विरुद्ध लड़ने का जिम्मा वंचित जातियों पर ही क्यों?

क्यों कोई बिरसा, फुले, आंबेडकर, पेरियार ही जाति के खिलाफ सबसे रेडिकल आंदोलन चलाता है? क्यों सावित्रीबाई-फ़ातिमा शेख ही लड़कियों के लिए स्कूल खोलने, पढ़ने के लिए लड़ीं, क्यों कोई कांशीराम ही बहुजनों के हक़ के लिए सड़क पर लड़ा? क्या भारत में कोई सवर्ण इसलिए शहीद हुआ कि आरक्षण लागू क्यों न हुआ? ये दिक्कत है भारतीय सवर्ण मानसिकता की, जो अपने खिलाफ़ उठी हर आवाज़ को कुचलता रहा.

अमरीका में व्हाइट ने ब्लैक के हक़ के लिए आंदोलन किया, लड़े और आज अमरीका कहाँ हैं? जबकि भारतीय सवर्णों ने कभी जाति-उन्मूलन के लिए आंदोलन नहीं किया. अगर कुछ प्रगतिशील सवर्णों ने आवाज़ उठाई, तो वे भी मनुवादी सवर्णों के शिकार हुए. अभी भी मौका है, किसी सवर्ण को आगे आकर बिरसा फुले आंबेडकर से ज़्यादा रेडिकल होकर जाति-उन्मूलन का आंदोलन चलाना चाहिए, उसका पहला कदम ये हो कि जाति-जनगणना हो, सबको सबका हक़ मिल जाए, फिर सब मिलकर जाति खत्म कर दें. क्या अपूर्वानंद ऐसा कोई सपना देखते हैं?

जाति विनाश के आंदोलन की भाषा में शहद तलाशते प्रगतिशील बुद्धिजीवी

अंत में अपूर्वानंद कहते हैं कि- ‘हमें कन्हैया जैसे नौजवान नेताओं की आवश्यकता क्यों है? क्योंकि वे सबके हितों की बात कर सकते हैं. क्योंकि वे अपने दायरे से निकल कर सबसे एक रिश्ता बना सकते हैं. क्योंकि वे एक ऐसी भाषा बोल रहे हैं, जिस भाषा में किसी का अपमान नहीं है, किसी को बेइज़्ज़त नहीं किया जा रहा, कोई गाली गलौज नहीं है. कोई कड़वाहट नहीं है, उम्मीद है. दोस्ती का आह्वान है. लोकतंत्र आगे चल नहीं सकता, अगर नई दोस्तियां नहीं बनाई जाएँ.’


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अपूर्वानंद यहाँ किस कड़वाहट को गाली-गलौज की संज्ञा दे रहे हैं? क्या अपूर्वानंद रेडिकल बहुजन आवाज़ों को गाली-गलौज कह रहे हैं, ऐसा मानना उनकी अचूक मेधा का अपमान होगा. लेकिन ये इशारा किधर हैं? क्या बहुजन आवाज़ों में आए आक्रोश को ये गाली-गलौज की कड़वाहट कह रहे हैं. अगर ऐसा है तो अपूर्वानंद कबीर, रैदास से लेकर बिरसा, फुले, पेरियार के आक्रोश को क्या कहेंगे? आंबेडकर से लेकर कांशीराम को कहाँ रखेंगे? क्या हम जेंडर के सवालों को भी पुरुष समाज के खिलाफ़ कड़वाहट और गाली-गलौज की संज्ञा देंगे?

दायरे से निकलने और सबके हित को सोचने की अपील भारतीय समाज में अगर किसी से करनी है, तो वे हैं मनुवादी सामंती शहरी अमीर सवर्ण पुरुष. ये हैं असल बीमार, लेकिन यही सबसे ताकतवर हैं. ये सुधर जाएँ, तो जनतंत्र संभल जाएगा. सामाजिक न्याय की नई पीढ़ी जनवादी है, जनतांत्रिक है, वह सबके हितों के लिए लड़ रही है. उसका साथ देकर पाप धोए जा सकते हैं.

आशा है कि जनवादी संवाद की गुंजाइश बची रहेगी.

(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी के जाकिर हुसैन कॉलेज में हिंदी साहित्य पढ़ाते हैं.)

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1 टिप्पणी

  1. तुम सबसे घटिया किस्म के और बेहूदे आर्टिकल डालते हो.. पूरा का पूरा theprint ऐसा ही है..

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