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Friday, 19 April, 2024
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यूनिवर्सिटी रिज़र्वेशन: सामाजिक न्याय की कब्रगाह बनता देश

इलाहाबाद हाइकोर्ट का फैसला लागू होता है, तो व्यावहारिक अर्थों में आरक्षण खत्म हो जाएगा और विवि गुरुकुल बन जाएंगे. जहां एससी-एसटी-ओबीसी शिक्षकों के लिए दरवाज़े बंद होंगे.

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भारत के संविधान निर्माताओं ने समानता के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए साथ में यह भी माना था कि भारत में हर कोई बराबर नहीं है. दुनिया के हर समाज में आर्थिक असमानता है, लेकिन भारत में इसके साथ-साथ सामाजिक आधार पर बेहिसाब असमानताएं हैं और वे फिक्स्ड यानी स्थिर भी हैं. क्रमिक असमानता की लगभग 6,000 जातीय कटेगरी वाले देश में एक आधुनिक लोकतंत्र की स्थापना अपने आप में एक कठिन काम था. इसलिए संविधान निर्माताओं ने राष्ट्र निर्माण में वंचितों को हिस्सेदार बनाने के लिए विशेष प्रावधान किए. ये प्रावधान अनुच्छेद 15(4), 16(4), 335, 340, 341, 342 में स्पष्ट रूप से लिखे गए हैं. इन्हीं प्रावधानों के आधार पर आरक्षण के प्रावधान किए गए हैं.

अगर संविधान का ये मैंडेट है कि वंचित और पिछड़े तबकों को राजकाज और तमाम सरकारी संस्थाओ में हिस्सेदार बनाया जाए तो देश के कानूनों को भी उसी के अनुरूप होना चाहिए. अगर कोई संस्था इन प्रावधानों की ऐसी व्याख्या करती है, जिसकी वजह से प्रतिनिधित्व देने की संविधान की योजना प्रभावित होती है, तो न्यायपालिका से लेकर सरकार और संसद तक का दायित्व है कि सही कदम उठाए और आरक्षण को लागू करे.


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इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला क्या है?

इस लिहाज से देखें तो जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2017 में ये फैसला दिया कि यूनिवर्सिटी में टीचर्स रिक्रूटमेंट का आधार यूनिवर्सिटी या कॉलेज नहीं, डिपार्टमेंट होंगे, तभी सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए था. लेकिन हस्तक्षेप करना तो दूर की बात, केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के तहत काम करने वाली संस्था यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन यानी यूजीसी ने फौरन तमाम सेंट्रल यूनिवर्सिटी को आदेश जारी किया कि वे इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला तत्काल लागू करें. यूजीसी के पास केंद्र सरकार से सलाह लेने से लेकर, फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का रास्ता था. लेकिन यूजीसी ने फैसला इतनी जल्दी में लागू किया जिससे लगा कि वह ऐसे किसी फैसले का इंतज़ार कर रही थी.

क्या है 200 और 13 प्वायंट के रोस्टर

इस फैसले से पहले सेंट्रल यूनिवर्सिटी में शिक्षक पदों पर भर्तियां पूरी यूनिवर्सिटी या कॉलजों को इकाई मानकर होती थीं. इसके लिए संस्थान 200 प्वाइंट का रोस्टर सिस्टम मानते थे. इसमें एक से 200 तक पदों पर रिज़र्वेशन कैसे और किन पदों पर होगा, इसका क्रमवार ब्यौरा होता है. इस सिस्टम में पूरे संस्थान को यूनिट मानकर रिज़र्वेशन लागू किया जाता है, जिसमें 49.5 परसेंट पद रिज़र्व और 59.5% पद अनरिज़र्व होते थे (अब उसमें 10% सवर्ण आरक्षण अलग से लागू होगा). लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला दिया है कि रिज़र्वेशन डिपार्टमेंट के आधार पर दिया जाएगा. इसके लिए 13 प्वाइंट का रोस्टर बनाया गया. इसके तहत चौथा पद ओबीसी को, सातवां पद एससी को, आठवां पद ओबीसी को दिया जाएगा. 14वां पद अगर डिपार्टमेंट आता है, तभी वह एसटी को मिलेगा. इनके अलावा सभी पद अनरिज़र्व घोषित कर दिए गए. अगर 13 प्वाइंट के रोस्टर के तहत रिज़र्वेशन को ईमानदारी से लागू कर भी दिया जाए तो भी वास्तविक रिज़र्वेशन 30 परसेंट के आसपास ही रह जाएगा, जबकि अभी केंद्र सरकार की नौकरियों में एससी-एसटी-ओबीसी के लिए 49.5% रिज़र्वेशन का प्रावधान है.

इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले और उसके बाद यूजीसी के आनन-फानन में लाए गए नोटिफिकेशन के बाद जब यूनिवर्सिटी और संस्थाओं ने नौकरी के विज्ञापन निकाले तो सबको नज़र आने लगा कि नई व्यवस्था में रिज़र्वेशन दरअसल खत्म हो जाएगा. इसका जब संसद के अंदर और बाहर विरोध हुआ तो सरकार ने कहा कि वह इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में स्पेशल लीव पेटिशन (एसएलपी) के ज़रिए चुनौती देगी. इसके बाद यूजीसी ने तमाम सेंट्रल यूनिवर्सिटीज को रिक्रूटमेंट रोकने को कहा. अब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की एसएलपी को खारिज कर दिया है. इससे इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला लागू होने का रास्ता साफ हो गया है.

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अब सरकार क्या कर सकती है?

केंद्र सरकार के पास अब तीन ही रास्ते हैं और तीनों का वैचारिक आधार अलग है.
1. सरकार इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला लागू करे और रिज़र्वेशन का अंत कर दे: अगर सरकार को लगता है कि सवर्णों को खुश करने से उसका काम चल जाएगा और आरक्षण विरोधी नज़र आना उसके लिए फायदेमंद होगा, तो सरकार को अब कुछ नहीं करना चाहिए. इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला अपने आप लागू हो जाएगा और विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों में आरक्षण लगभग खत्म हो जाएगा. सरकार ये फैसला तभी लेगी, जब उसे भरोसा होगा कि एससी-एसटी-ओबीसी इसका संगठित रूप से विरोध नहीं करेंगे. चुनाव करीब होने के कारण सरकार इस बारे में सोच समझकर फैसला लेगी.
2. सरकार तत्काल अध्यादेश या सत्र के दौरान कानून लाकर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को पलट दे: अगर सरकार संविधान की भावना के मुताबिक काम करना चाहती है और चाहती है कि आरक्षण लागू हो, तो उसके पास कानून बनाने या अध्यादेश लाने का विकल्प है. सरकार ऐसा तभी करेगी, जब उसे इस बात का भय होगा कि ऐसा न करने से एससी-एसटी-ओबीसी नाराज़ हो सकते हैं.
3. सरकार इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बैंच के पास जाए: सरकार चाहे तो इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका या किसी और याचिका के माध्यम के ज़रिए अपील करे और बड़ी बेंच के सामने सुनवाई की अपील करे. ऐसा करने से सरकार को थोड़ा समय मिल जाएगा और एससी-एसटी-ओबीसी का गुस्सा भी मैनेज हो जाएगा. चूंकि सरकार 10% आरक्षण के ज़रिए सवर्णों के सामने गाजर लटका ही चुकी है, इसलिए उसे सवर्णों की नाराज़गी का डर नहीं होगा.


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सरकार के पास तीनों विकल्प हैं. अगर सरकार कानून या अध्यादेश का विकल्प नहीं चुनती है तो यही माना जाना चाहिए कि सरकार संविधान के तहत लागू हुए आरक्षण के प्रति ईमानदार नहीं है.

अब सरकार ने संविधान में दो नए अनुच्छेद 15(6) और 16(6) जोड़कर आर्थिक पिछड़ेपन को भी आरक्षण का आधार बना दिया है. लेकिन ये आरक्षण एससी-एसटी-ओबीसी को नहीं मिलेगा. इस मायने में ये एक जातिवादी आरक्षण है.

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