अजमेर: राजस्थान के एक शहर में एक लंबी, शांत, कारों से भरी गली के अंत में, एक घर है जिसका कोई नाम और नंबर नहीं है. इस घर के बारे में कोई खास बात तो नहीं है लेकिन पिछले 18 सालों में वर्दी या सादे कपड़ों में पुलिसकर्मी कम से कम सात-आठ बार यहां आए हैं. वो एक ऐसी महिला को ढूंढ रहे थे जो नहीं चाहती कि उसके अतीत का साया उसके वर्तमान पर पड़े.
इसलिए जब भी दरवाजे की घंटी बजती है तो वह बालकनी से झांकती है. उसका बेटा दरवाजा खोलता है और कहता है. इस नाम की कोई महिला यहां नहीं रहती – ये लाइन पिछले कई सालों से दोहराई जा रही है.
पुलिस के ये दौरे दरअसल तीन दशक पुराने एक मामले का हिस्सा हैं जिसे 1992 के अजमेर ब्लैकमेल और बलात्कार कांड के तौर पर जाना जाता है. 90 के दशक के शुरुआती सालों में अजमेर में राजनीतिक रूप से जुड़े परिवारों के कुछ नौजवानों ने कई स्कूल और कॉलेज जाने वाले लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार किए, उनके वीडियो बनाए, तस्वीरें खींची और महीनों तक उनके साथ बलात्कार किया. आधिकारिक तौर पर पीड़िताओं की संख्या 16 थी. ये एक ऐसा केस था जिसने कई सालों तक अजमेर को अपनी गिरफ्त में रखा. इस केस को लेकर अनगिनत खबरें छपीं और कांग्रेस बनाम भाजपा की राजनीति होती रही. लेकिन अंत अंत तक किसी भी महिला को न्याय नहीं मिला.
इस केस 18 आरोपियों में मुख्य रूप से दरगाह के खादिम परिवार से आने वाले दो युवक नफीस चिश्ती और फारूक चिश्ती शामिल थे. दोनों यूथ कांग्रेस के पदों पर थे. तीन दशक बाद भी दोनों अजमेर में कुछ हद तक प्रभाव रखते हैं. फारुक को इस केस में दोषी ठहराया गया था लेकिन 2013 में उसकी सजा कम कर रिहा कर दिया गया. नफीस जमानत पर बाहर है.
अधिकांश गवाह और पीड़िताएं कोर्ट में होस्टाइल हो गए. लेकिन एक महिला थी जो अपनी सच्चाई पर कायम रही. उसने अपने नौ बलात्कारियों के खिलाफ कोर्ट में रोंगटे खड़े कर देने वाले पावरफुल बयान दिए. वो कोर्ट में एक बार नहीं बल्कि तीन बार अपने गुनहगारों को पहचानने और उनके खिलाफ बयान देने आई. उसके बयानों के आधार पर कई अभियुक्तों को सजा भी हुई. वो इस ट्रायल का केंद्र बिंदु है. लेकिन अब उसके लिए बहुत हो चुका है. अब वो कोर्ट नहीं आना चाहती.
“उसे इस केस से आगे बढ़ने दो. उसने बहुत कुछ झेला है. उसे भूलने दो सब.” बालकनी में खड़ी महिला ऊपरी मंजिल से नीचे आई, लेकिन जानबूझकर थर्ड पर्सन में बात की ताकि उसकी पहचान ना हो सके. उसकी आवाज दृढ़ थी लेकिन हाथ में चाय का कप पकड़े हुए उसके हाथ कांप रहे थे.
अब तो नेटफ्लिक्स और बॉलीवुड ने भी उसके संघर्षपूर्ण जीवन, उसके कोर्ट में दिए गये बयानों और कठिनाइयों में एक कहानी ढूंढ ली है. सोशल मीडिया के पोस्ट, व्हाट्सएप फॉरवर्ड और यूट्यूब के प्रोपेगेंडा वाले वीडियो बाकी पीड़िताओं का भी पीछा कर रहे हैं. इन पीड़िताओं द्वारा सालों के बाद हासिल की गई गुमनामी और गोपनीयता को अब बहुत दिन छिपा कर रखना मुश्किल होता जा रहा है.
14 जुलाई 2023 को ‘अजमेर 92’ नामक एक नई फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज होगी. एक अन्य फिल्म कंपनी, टिप्स, ने हाल ही में ‘अजमेर फाइल्स’ नाम की एक फिल्म के लिए अजमेर के एक क्राइम रिपोर्टर से अधिकार खरीदे हैं.
आज के दौर में विधानसभा चुनावों से पहले कश्मीर फाइल्स (2022) और द केरल स्टोरी (2023) जैसी अधिक से अधिक वास्तविक जीवन की घटनाओं पर नाटकीय फिल्में बनाई जा रही हैं. जब इन फिल्मों को राजनीतिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है तो लोगों को डर है कि जब अजमेर केस में आरोपी मुख्य रूप से मुस्लिम समुदाय से थे और पीड़िताएं हिंदू समुदाय से, तो इस मुद्दे का भी ध्रुवीकरण किया जाएगा. इस ध्रुवीकरण की असली कीमत ये पीड़िताएं चुकाएंगी जिन्होंने तीन दशक के अपनी जिंदगियों को बड़ी सावधानी से संवारा है.
फिल्म और वेब सीरीज के आने की बात ने अजमेर के इस घिनौने रेप केस को राष्ट्रीय टेलीविजन चैनलों पर बहस के दौर को शुरू कर दिया है जिसमें सामाजिक कार्यकर्ता, नारीवादी और राजनीतिक लोग अपना आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं. कांग्रेस और भाजपा के सदस्य एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं. दरगाह की अंजुमन कमेटी के एक सूत्र ने बताया कि दरगाह का खादिम परिवार इस तरह की फिल्मों के रिलीज होने के खिलाफ पैरवी कर रहा है.
अजमेर शरीफ दरगाह की अंजुमन कमेटी के सचिव सरवर चिश्ती एक वीडियो क्लिप में एक पत्रकार से कह रहे हैं, “लड़की चीज ऐसी है जो किसी को भी भ्रष्ट कर सकती है.”
इस मसले पर सावित्री कॉलेज की सेवानिवृत्त हिंदी प्रोफेसर बीना शर्मा कहती हैं, “इस केस ने एक लंबा सफर तय किया है. लेकिन इसमें जेंडर जस्टिस गायब रहा है. ये लड़ाई न्याय के बारे में कम और राजनीतिक फायदे के लिए इसे सेक्स स्कैंडल में तब्दील करने के बारे में ज्यादा है. आज मैं टीवी की स्क्रीन पर सनसनी खबरें देख रही हूं तो उस दौर में स्कूल-कॉलेज जाने वाली छात्राओं के चेहरे दिमाग में आ रहे हैं. उन्हें हर रोज सुबह सड़कों पर जाते देखा करते थे.”
वो आगे कहती हैं, “जब ये मामला पीक पर था तो हमारी प्रिंसिपल कुछ तस्वीरें लेकर आई थीं और पीड़िताओं की पहचान करने के लिए कहा था. उस वक्त हम कुल 60 लेक्चरर और प्रोफेसर हुआ करते थे. हम में से कोई भी उन तस्वीरों वाली लड़कियों को अपने क्लासरूम में नहीं देखते थे.”
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केस से दूर होती पीड़िताएं
“मेरे जीवन का नब्बे प्रतिशत हिस्सा खत्म हो चुका है. मैं 10 प्रतिशत न्याय के साथ क्या करूंगी.” सुषमा कहती हैं. वो पहली ऐसी पीड़िता थी जिसकी नग्न तस्वीरें एक स्थानीय समाचार पत्र ने अपने पहले पन्ने पर छाप दी थी. अन्य पीड़िताओं की पारिवारिक पृष्ठभूमि के विपरीत, वो एक गरीब परिवार से आती थी. उसके पास पत्रकारों और समाचार पत्रों को अपनी नग्न तस्वीर छापने से रोकने की कोई ताकत नहीं थी.
जून 2023 में एक टेलीविजन पत्रकार को दिए एक इंटरव्यू ने उसके जीवन को फिर से उलट-पुलट कर रख दिया है. हालांकि उस इंटरव्यू में उसका चेहरा छिपा हुआ था, लेकिन उसकी आवाज़ नहीं बदली गई थी. वो इंटरव्यू में अपने साथ हुए बलात्कार के बारे में बात कर रही थी. अचानक एक दिन उसके सगे भाई के पास मोहल्ले के लोग आकर पूछने लगे, “ये तुम्हारी बहन है? ये उन लड़कियों में से एक थी?”
उसके भाई ने तंग आकर छत से कूदने की कोशिश की.
“वो मुझसे पूछ रहा था कि अब कौन उसकी दो बेटियों से शादी करेगा?” सुषमा ने बताया कि कम से कम 20 आदमी उससे पूछ चुके हैं कि क्या वीडियो में सच में मैं ही हूं. वो अब गड़े मुर्दे उखाड़ना नहीं चाहता.
उस पत्रकार द्वारा ठगा हुआ महसूस करने वाली सुषमा ने नई दिल्ली के संपादकों को फोन लगाए. वो कहती रही कि उसका वीडियो यूट्यूब चैनल से हटा लिया जाए.
उसने उस पत्रकार को फोन किया जो उसके भाई की मौत के तेरहवें दिन घर पर आ गया था.
“मैंने अपने भाई की तेरहवीं के दिन भी आपसे बात की. मैं दुख में थी लेकिन आपने मेरे चेहरे पर कैमरा घुमा दिया. आपने कहा कि आपकी भी बहन बेटी है तो मैंने आप पर यकीन किया.” वो फोन के दूसरी ओर वाले व्यक्ति पर चिल्लाई. लेकिन उसकी परेशानियों का सबब जारी है. उसकी पड़ोस में रहने वाली सबसे अच्छी और इकलौती दोस्त ने उसे बताया है कि कोई फिल्म रिलीज होने वाली है.
“क्या वो मेरा चेहरा भी फिल्म में दिखा देंगे? मैंने अखबारों और यूट्यूब पर देखा था कि मेरी नग्न तस्वीरें छाप रहे हैं. ये तस्वीरें कोर्ट में देखी थी.” वो घबराकर पूछती है.
ट्रायल के तीस साल
इस केस से जुड़े क्राइम रिपोर्टर अपने अगले स्कूप के इंतजार में रहते थे. स्थानीय अखबार हर महीने किसी नए खुलासे का वादा करते थे. पुलिसकर्मियों की जद्दोजहद इस केस से जुड़े उन गवाहों और पीड़िताओं को कोर्ट तक लाने की रही है, जो कोर्ट आना ही नहीं चाहते थे.
सीआईडी की टीम को तब बड़ी सफलता मिली जब उन्होंने कृष्ण बाला* का पता लगा लिया. कृष्ण बाला वो पीड़िता थी जिसके बयानों के आधार पर कई दोष साबित हुए. लेकिन जब तक ये मामला सामने आया तब तक उनके पिता का ट्रांसफर राजस्थान के किसी दूसरे शहर में हो चुका था. नए शहर में कृष्ण बाला यौन शोषण करने वालों और अजमेर शहर से दूर एक नई शुरुआत करना चाहती थी. वो बीएससी कर चुकी थी और फाइन आर्ट्स के एक कोर्स में दाखिला लेने की तैयारी कर रही थी.
इस शुरुआत के साथ वो अपने जीवन, अपने सपनों और अपनी कहानी को एक और मौका देना चाहती थी. लेकिन फिर एक दिन पुलिस ने उसके घर का दरवाज़ा खटखटाया. पुलिस जानती थी कि वो इस बात को स्वीकार नहीं करेगी कि वो भी पीड़िताओं में से एक थी. पुलिस के पास एक और प्लान था.
“हमने उसके पुराने कॉलेज से होने की बात कही. और बताया कि उसे मार्कशीट के लिए हमारे साथ अजमेर आना पड़ेगा.” सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी धर्मेंद्र यादव ने कहते हैं. यादव, सीआईडी क्राइम ब्रांच के तत्कालीन एसपी एनके पाटनी की टीम का हिस्सा थे. इस टीम ने इस केस की जांच और पहली चार्जशीट फाइल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनके साथ तत्कालीन एडिशनल सुपरीटेंडेंट ऑफ पुलिस जनार्दन शर्मा भी थे.
कृष्ण बाला को उन्होंने वो तस्वीरें दिखाईं जिनमें वह नग्न थी. ये तस्वीरें कृष्ण बाला को ब्लैकमेल करने के लिए अभियुक्तों ने खींची थीं. वो समझ गई थी कि पुलिस उसके उसके माता-पिता से इस मामले को छिपाने की कोशिश कर रही है.
लेकिन अतीत से भागना संभव नहीं था तो वह पुलिस की मदद करने के लिए तैयार हो गई.
क्राइम ब्रांच टीम के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी उन छात्राओं का पता लगाना जिनका यौन शोषण हुआ और साथ ही उनके माता पिता को इस बारे में भनक तक न लगने देना. बयान दर्ज कर कानूनी कार्रवाई आगे बढ़ाना और छात्राओं की प्राइवेसी को बनाए रखना मुश्किल भरा काम था.
“1992 में अजमेर शहर उबल रहा था. कुछ 6-7 युवा लड़कियों द्वारा आत्महत्या करने के मामले पहले ही सामने आ चुके थे. अब मामला हाई प्रोफाइल होने के साथ-साथ संवेदनशील भी हो गया था. लड़कियों की पहचान छुपाना और उन्हें सुरक्षा देना, बेहद जरूरी हो गया था. हम उन्हें किसी सरकारी कार्यालय, पुलिस स्टेशन या यहां तक कि अदालत में भी नहीं ले जा सकते.” धर्मेंद्र यादव ने आगे बताया. धर्मेंद्र और जनार्दन, दोनों पुलिस अधिकारी छह महीने अजमेर में कैंप करते रहे.
उन्होंने समाचार पत्रों और अखबारों के पहले पन्ने पर छपी तस्वीरों के माध्यम से पहली पीड़िता की पहचान की सुषमा के रूप में की थी. धर्मेंद्र यादव ने उस दिन को याद करते हैं जब उन्होंने सुषमा को अजमेर शरीफ दरगाह के आसपास की गलियों में देखा था.
“जब हमने उनसे बात करनी शुरू की तो वह भाग गई. हम एक किलोमीटर तक उसके पीछे दौड़े. आखिरकार, वह हमारे साथ आने और हमें सब कुछ बताने के लिए तैयार हो गई,” धर्मेंद्र यादव बताते हैं.
इसके बाद जांच टीम ने गीता* की पहचान की. गीता ने उन्हें कृष्ण बाला के बारे में बताया. कृष्ण बाला ने रानू* के बारे में. रानू ने किसी और लड़की के बारे में. किसी और लड़की ने किसी अन्य लड़की के बारे में. ऐसा करते करते पुलिस सोफिया सीनियर सेकेंडरी स्कूल और सावित्री स्कूल व सरकारी गर्ल्स कॉलेज की कई लड़कियों तक पहुंच गई.
धर्मेंद्र यादव कहते हैं, “हम 30-35 लड़कियों का पता लगा सके थे. लेकिन केवल 16 ही अपना बयान दर्ज कराने आईं. लेकिन उनमें से अधिकांश होस्टाइल हो गईं.”
कृष्ण बाला आखिर बार कोर्ट साल 2005 में आई थी. उसकी शादी के पांच साल बाद. 2018 में, एक अन्य आरोपी सोहेल गनी चिश्ती ने 26 साल बाद अजमेर की एक अदालत में आत्मसमर्पण किया था. पुलिस ने एक बार फिर कृष्ण बाला की ओर रुख किया.
एक SHO जो दर्जनों गवाहों को अदालत तक लेकर आए थे, कहते हैं, “हमने उसकी बहन के पति के माध्यम से उससे संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन हमें बताया गया कि 2005 में कोर्ट में बयान देने के बाद कृष्ण बाला ने आत्महत्या का प्रयास किया था. उसके मानसिक स्वास्थ्य को देखते हुए हम कोर्ट समन कैसे पहुंचाते?”
आज कृष्णा बाला 51 साल की एक मां हैं और उन्हें अपनी प्राइवेसी की चिंता है. वो अब कोर्ट नहीं आना चाहती.
SHO पूछते हैं. “हमें पीड़िताओं को दोबारा क्यों कोर्ट बुलाना है जबकि वे पहले ही कई बार गवाही दे चुकी हैं?”
ये एक ऐसा प्रश्न था जो केस के मौजूदा अभियोजन पक्ष के वकील वीरेंद्र राठौड़ ने भी अदालत के सामने रखा. एक एप्लीकेशन के जरिए उन्होंने अदालत को ये समझाने का प्रयास शुरू किया कि कोर्ट पहले की गवाही के आधार पर केस आगे बढ़ाए और नई गवाही न मांगे.
पिछले साल जनवरी में उन्होंने POCSO कोर्ट में ये आवेदन दायर कर छह आरोपियों के चल रहे वर्तमान मुकदमे के लिए कृष्ण बाला व अन्य पीड़िताओं के पहले से दर्ज बयानों पर विचार करने का अनुरोध किया था.
आवेदन में लिखा है, “आरोपियों की वजह से ये केस अपने अंजाम तक नहीं पहुंच रहा. आरोपी ही हैं जो या तो फरार हैं या कोर्ट के सामने पेश न होकर केस को डिले कर रहे हैं. लेकिन यहां भी सजा पीड़िताओं को मिल रही है. 2004 के बाद से पीड़िताओं को कितनी बार अदालत में बुलाया गया है. इससे उन्हें अत्यधिक पीड़ा हुई है, और कई पीड़िताओं ने आत्महत्या के प्रयास किए हैं.”
वर्तमान न्यायाधीश रंजन सिंह ने अभी तक आवेदन पर फैसला नहीं किया है.
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8 महीने में 25 बार बलात्कार
कृष्ण बाला सावित्री गर्ल्स कॉलेज में बीएससी की एक छात्रा थी. वो अपने परिवार के साथ सिविल लाइन्स में किराए के घर पर रहती थी. वो पैदल ही कॉलेज आती-जाती थी. अजमेर शहर में वो 1987 और 1991 के बीच रही थी.
कॉलेज आने जाने के दौरान ही उसकी मुलाकात सावित्री गर्ल्स सीनियर सेकेंडरी स्कूल की एक अन्य छात्रा गीता से हुई. दोनों की दोस्ती गहरी होती चली गई. लेकिन कृष्ण बाला गीता के किसी गिरोह द्वारा ब्लैकमेल करने की बात से अनजान थी.
अदालत में कृष्ण बाला ने अपनी गवाही में कहा है, “मैंने गीता को अपनी छोटी बहन मानना शुरू कर दिया था. वह अक्सर मेरे घर आती थी और मेरे माता-पिता भी उस पर भरोसा करने लगे थे.”
उसे यह नहीं पता था कि फारूक और नफीस का गैंग उसे इस तरह से ब्लैकमेल कर रहा है. वो आगे कोर्ट को बताती है कि गीता कहती थीं कि उसके पांच मुस्लिम भाई हैं, जो बहुत अच्छे हैं. फिर एक दिन गीता ने उसे एक पार्टी का न्योता दे दिया. पार्टी के बारे में बताया गया था कि वो एक पारिवारिक पार्टी है. इसलिए कृष्ण बाला के माता पिता ने जाने की अनुमति भी दे दी.
सुबह के आठ बजे एक कार पिक करने आई. कार अजमेर के बाहरी इलाके हटूंडी में एक पोल्ट्री फार्म पर पहुंची. वहां नफीस और इशरत अली पहले से मौजूद थे. उस दिन इशरत ने कृष्ण बाला के साथ रेप किया. उसे शाम पांच बजे घर इस धमकी के साथ छोड़ा गया, “अगर तुमने यह बात किसी को बताई तो मैं तुम्हें बदनाम कर दूंगा. जब भी तुम्हें बुलाया जाए, तुम्हें आना होगा, नहीं तो मैं तुम्हारी बहन के साथ भी ऐसा कर सकता हूं.”
वह घर आई और खून से सने अपने कपड़े धोए. फिर लगातार उसकी ब्लैकमेलिंग शुरू हो गई. उसे बार-बार धमकी के साथ बुलाया जाता था कि उसे बदनाम कर दिया जाएगा. उसे अजमेर के फॉय सागर रोड स्थित फारूक के बंगले पर भी बुलाया गया जहां उसके साथ नफीस चिश्ती, अनवर चिश्ती, सलीम चिश्ती और इशरत अली ने बलात्कार किया.
अब ये गैंग उसके स्कूल के बाहर, बाजार और दोस्तों के ठिकानों पर मिलता रहा और ब्लैकमेल कर रेप करता रहा. अगले आठ महीनों में उसके साथ 25 बार सामूहिक बलात्कार किया गया.
उसने अपने एक और बयान में कोर्ट को बताया, “एक बार फारूक ने मेरे साथ बलात्कार किया और मुझसे अपने बॉस अल्मास महाराज को खुश करने के लिए कहा, जो अमेरिका से आया था.” वो आगे बताती है कि उस दौरान उसने इतना डरा हुआ महसूस किया कि वो ये बाद किसी भी नहीं बता पाई.
लेकिन 1998 में इस केस के जजमेंट से ठीक पहले फारूक और नफीस ने कृष्ण बाला को उसके नए शहर में ढूंढ निकाला. उन्होंने उसके परिवार को धमकाया और उससे कहा कि कोर्ट में वो उन्हें ना पहचाने. उसके बाद कृष्ण बाला ने कोर्ट में एक झूठा हलफनामा दायर किया था कि वो इनको नहीं पहचानती. वर्षों तक, ये बात उसे परेशान करती रही.
2005 में उसने अपनी गवाही में अपने झूठे हलफनामे की बात को लेकर कहा, “एक बार जब मेरे दिल से डर निकल गया तो मैंने सिर्फ सच बोला.”
ब्लैकमेलिंग का एक दौर
1998 में अजमेर के सत्र न्यायालय आठ लोगों को दोषी ठहराया था. लेकिन इन आठ में से चार को राजस्थान उच्च न्यायालय ने 20 जुलाई 2001 को बरी कर दिया. उच्चतम न्यायालय ने 19 दिसंबर 2003 को अन्य चार दोषियों – मोइजुल्ला उर्फ पुत्तन, इशरत अली, अनवर चिश्ती और शमसुद्दीन उर्फ मेराडोना की सजा को घटाकर 10 साल कर दिया.
फारूक कई सालों तक कोर्ट की ट्रायल से बचता रहा क्योंकि उसने खुद को मेडिकल सर्टिफिकेट के जरिए मेंटली अनस्टेबल साबित कर दिया था. आखिरकार उसे 2007 में एक फास्ट-ट्रैक अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई. साल 2013 में, राजस्थान उच्च न्यायालय ने उसकी सजा को कम कर उसे रिहा कर दिया.
नफीस उन छह शेष आरोपियों में से एक है जिन पर अभी भी मुकदमा चल रहा है. अलमास महाराज अभी भी फरार है और उसके ख़िलाफ़ लुकआउट नोटिस जारी किया गया है.
इस मामले की वजह से अजमेर में सिटीजन जर्नलिज्म में खोजी पत्रकारों की बाढ़ सी आ गई है. ऐसा लगता है कि मानो लाइब्रेरियन से लेकर प्रॉपर्टी डीलर तक, सभी के पास सूत्रों के हवाले से कोई खुफिया जानकारी है. इस केस के इतने वर्जन सुनाए जा रहे हैं कि अब फैक्ट्स को सुनी सुनाई बातों से अलग करना मुश्किल होता जा रहा है.
इंडिया टुडे में छपी विजय क्रांति की रिपोर्ट के अनुसार, 1990 के दशक में, अजमेर में 150 ‘समाचार’ प्रकाशन और 350 ‘पत्रकार’ थे. अजमेर गैंग रेप केस के उजागर होने के बाद ये केस उनके लिए एकमात्र व्यवसाय का जरिया बन गया था. धीरे धीरे और भी नए समाचार पत्र निकलने लगे.
स्थानीय जनसंपर्क कार्यालय में कबाड़ी वालों और छोटे दुकानदारों से लेकर गृहिणियां भी मान्यता प्राप्त पत्रकारों की सूची में दर्ज थे. ये विज्ञापन, ब्लैकमेलिंग, जबरन वसूली और दूसरों पर कीचड़ उछाल कर रेव्न्यू इकट्ठा करते थे. आज ये काम यूट्यूब पर सच्ची खबरों की आड़ में सनसनी फैला कर किया जा रहा है.
इस सबके परे ये केस कई लोगों के लिए हीरोइज्म भी लेकर आया. दैनिक नवज्योति के रिपोर्टर संतोष गुप्ता ने 21 अप्रैल 1992 को जब ये स्टोरी ब्रेक की थी तो उन्हें पब्लिक आउटरेज की वो तस्वीर नहीं दिखी जिसकी उन्हें उम्मीद थी.
दैनिक नवज्योति के एडिटर इन चीफ दीनबंधु चौधरी उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, “मेरा रिपोर्टर निराश होकर मेरे पास आया और कहने लगा कि सर, ब्लैकमेल कांड पर मेरे खुलासे के बाद किसी का खून नहीं खौल रहा है.” हालांकि संतोष गुप्ता कहते हैं कि एडिटर इन चीफ चौधरी ने उस किस्से को काफी बढ़ा चढ़ा कर बताया है.
एडिटर इन चीफ चौधरी ने संतोष गुप्ता से वो नग्न तस्वीरें दिखाने के लिए कहा, “मैंने अपने जीवन में ऐसी भयानक तस्वीरें कभी नहीं देखीं थी.” वो आगे कहते हैं, ”मैंने अगले दिन पहले पन्ने पर नग्न तस्वीरें प्रकाशित करने का फैसला किया.”
अखबार में प्रकाशित पहली नग्न तस्वीरें सुषमा और चिश्ती गैंग के दो सदस्यों कैलाश सोनी और परवेज अंसारी की थीं. एडिटर इन चीफ ने चेहरों और शरीर को बिना ढंके ही छापने का फैसला किया. हालांकि सुषमा की आंखों को दो काली पट्टियों से ज़रूर ढक दिया.
चौधरी इसे एक बोल्ड स्टेटमेंट बताते हैं, “अगर हमने उसका चेहरा और शरीर छुपाया होता तो पब्लिक को कोई फर्क नहीं पड़ता.”
वह गर्व से एक राष्ट्रीय पत्रिका द्वारा उनके बारे में प्रकाशित एक प्रोफ़ाइल के बारे में बात करते हैं. लेकिन सुषमा के लिए चौधरी का ये फैसला उसके शारीरिक शोषण का एक और तरीका था.
वो कहती हैं, “मुझे लगा कि मेरी सारी गरिमा छीन ली गई है.”
हालांकि दैनिक नवज्योति की ब्रेकिंग न्यूज के बाद कुछ स्थानीय दैनिक समाचार पत्रों ने आरोपियों से पैसे वसूलने के लिए इन तस्वीरों का इस्तेमाल किया. कुछ पत्रकार लोगों के डर का फायदा उठाने लगे. उन्होंने स्कूली बच्चियों के नाम और तस्वीरों को छापने की आड़ में कई माता-पिता से पैसे वसूले.
संतोष गुप्ता, जो अब पत्रकारिता छोड़कर एक अस्पताल में काम करते हैं, याद करते हैं, “जैसे ही शादी का कार्ड छपता था, परिवारों के पास एक वसूली कॉल आती थी – हम आपकी बेटी का नाम प्रकाशित कर देंगे.”
32 वर्षीय मदन सिंह, एक हिस्ट्रीशीटर जो ब्लैकमेलिंग और वसूली किया करता था, भी मैदान में उतरा. वो ‘लहरों की बरखा’ नाम से महीने में एक बार छपने वाली पत्रिका चलाता था. जो आगे चलकर साप्ताहिक हो गई और अजमेर केस के दौरान हर रोज छपकर आने लगी.
इस पत्रिका की विशेषता इसकी सनसनीखेज सुर्खियां थीं. ये ख़बरें गुप्तचर विभाग के खोजी और चर्चित सूत्रों के हवाले से लिखी जाती थीं. जैसे- ‘अभियुक्तों का महिला के साथ अश्लील मुद्रा में नाचते हुए फोटो’, ‘यौन शोषण के बाद लड़कियों को गर्भपात की गोलियां दी जाती थीं.’
मदन सिंह ने छापना शुरू कर दिया था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत ने इस केस में कार्रवाई इसलिए नहीं की क्योंकि गिरोह में भाजपा नेता भी शामिल थे. उन्होंने ये भी छापा कि लड़कियों को अपने बयान से पलटने के लिए लाखों की रिश्वत दी गई थी. फिर उन्होंने दो भाजपा नेताओं के बारे लिखा कि वो लड़कियों का यौन शोषण कर रहे थे और खुद को बचाने के लिए मामले को सांप्रदायिक दंगे भड़काने की कोशिश कर रहे थे.
मदन सिंह की कवरेज ने सामूहिक बलात्कार के मामले को राजनीतिक सेक्स स्कैंडल में बदल दिया.
आरोपों की लाइन में अगला नंबर आया- पूर्व कांग्रेस विधायक राजकुमार जयपाल, कांग्रेस पार्टी के एक अन्य सदस्य ललित जडवाल और सवाई सिंह (पूर्व नगर पार्षद) का. कुछ ही महीनों में, मदन सिंह अजमेर के एक बड़े हिस्से को नाराज कर चुके थे जिसमें अपराधियों से लेकर राजनेताओं, सरकारी अधिकारियों और कारोबारियों के नाम शामिल थे.
4 सितंबर 1992 को मदन सिंह रात 10 बजे के आसपास अपने स्कूटर पर थे तब एक मारुति वैन में दो लोगों ने उनपर पर गोली चला दी. एक गोली उनके राइट हिप में लगी और वह गंभीर रूप से घायल हो गए. वह नाले में कूद गए और किसी तरह भागने में सफल रहे. जब उन्हें जवाहरलाल नेहरू अस्पताल में भर्ती कराया गया तो उन्हें लगा कि वह सुरक्षित हैं.
अगले दिन, अजमेर गैंग रेप केस पर लहरों की बरखा ने 76वीं किश्त छापी और दावा किया कि एक पूर्व विधायक और एक अन्य नेता मदन सिंह को मारने की साजिश रच रहे थे.
12 सितंबर की रात को पिस्तौल से लैस कुछ लोग अस्पताल के कमरे में घुस गए और मदन सिंह पर पांच गोलियां दागीं. उनकी मां घीसी कंवर उनके बिस्तर के पास बैठी थीं. उन्होंने एक आरोपी का पैर पकड़ लिया और तब तक नहीं जाने दिया जब तक हमलावर ने अपनी पिस्तौल से उनके सिर पर वार नहीं किया. घीसी कंवर इस मामले की गवाह थीं लेकिन आगे चलकर वो कोर्ट में अपने बयानों से मुकर गई. हमले के दो दिन बाद ही मद सिंह की मृत्यु हो गई थी.
जयपाल, पूर्व पार्षद सवाई सिंह और तीन अन्य लोगों को मदन सिंह हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, लेकिन प्रत्यक्षदर्शियों के मुकर जाने के बाद सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया.
साल 2023 की जनवरी में मदन सिंह के दोनों बेटों ने अजमेर के एक रिसॉर्ट में सवाई सिंह की हत्या कर दी.
उनके बेटे सूर्य प्रताप ने रिसॉर्ट में जमा भीड़ पर चिल्लाते हुए कहा, “हमने बदला ले लिया.” बाद में दोनों बेटों को पुलिस ने हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था.
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लड़कियों की एक पीढ़ी का कलेक्टिव ट्रॉमा
नब्बे के दौर में बलात्कार और ब्लैकमेल मामले का दंश झेलने वाला अजमेर अकेला शहर नहीं था. जुलाई 1994 में, महाराष्ट्र का जलगांव भी ऐसे ही एक मामले से दहल गया था, जहां स्थानीय नेताओं, वकील, डॉक्टर और सरकारी अधिकारियों का एक नेक्सस कई महिलाओं – जिसमें से कई स्कूली लड़कियां भी थीं – को नशीला पदार्थ देकर, बलात्कार करते थे और कई बार उनकी मानव तस्करी भी करते थे.
आरोपी अपने टारगेट की तलाश में स्कूलों, कॉलेजों, ब्यूटी पार्लरों और बस स्टैंड के आसपास मंडराते रहते थे. लड़कियों की तस्वीरें खींच कर, उन्हें ब्लैकमेल करते थे. यह मामला भी अजमेर बलात्कार मामले की तरह ही चला जहां एफआईआर में देरी हुई, गवाह मुकर गए और सबूत कमजोर पड़ गए. इसे भी अजमेर सेक्स स्कैंडल की तरह ‘जलगांव सेक्स स्कैंडल’ कहा गया.
दोनों ही मामलों ने छात्राओं के माता-पिता, स्कूलों, कॉलेज, अधिकारियों और पड़ोसियों को चिंतित कर दिया. हर जगह छात्राओं को इसकी कीमत चुकानी पड़ी. उनकी गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया और उन पर नजर रखी गई.
1980 के दशक में अजमेर महिला समूह की शुरुआत करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता इंदिरा पंचोली कहती हैं, “उस दौर युवा लड़कियों की एक पूरी पीढ़ी का जीवन इन दो मामलों के आसपास घूमता है.”
पंचोली और कुछ युवा महिलाओं का ये समूह अजमेर में लैंगिक न्याय और महिला अधिकारों के लिए एक सेफ़ स्पेस बनाना चाहते थे. जब ये ग्रुप स्थापित हो गया तो सोफिया और सावित्री कॉलेजों की भी कई छात्राएं यहां हो रही वर्कशॉप का हिस्सा बनने लगीं.
“हमारे पास इनमें से एक स्कूल से 6-7 लड़कियों का एक ग्रुप आता था. हमें लगा कि वे कुछ कहना चाहती हैं. लेकिन वो कह नहीं पाई और अचानक ये मामला इस रूप में उजागर हुआ. इसके बाद उन लड़कियों ने हमारे पास आना बंद कर दिया.”पंचोली बताती हैं.
पंचोली आगे कहती हैं कि ग्रुप ने पिछले कुछ महीनों में हुई दो युवा लड़कियों की आत्महत्या के मामलों को उस समय अजमेर में हो रहे घटनाक्रम से जोड़कर देखना शुरू किया.
“उनमें से एक लड़की तो हमारे ऑफिस के पास ही रहती थी. वो एक आरएएस [राजस्थान प्रशासनिक सेवा अधिकारी] की बेटी थीं. दूसरी लड़की कुछ दूर रहती थी. उसने फांसी लगा ली थी. उसके पिता एक डॉक्टर थे,” पंचोली ने कहती हैं कि उस दौर की लड़कियां काफी जिज्ञासु और प्रतिभाशाली थीं.
सोफिया कॉलेज और सावित्री स्कूल के पास पुलिस कभी नहीं गई. उस दौर में जांच का हिस्सा रहे कुछ सेवानिवृत्त पुलिसकर्मियों का कहना है कि जब वो पीड़िताओं के बयान दर्ज कर रहे थे तो वो नहीं चाहते थे कि लड़कियां स्कूल या कॉलेज या मीडिया की स्क्रूटनी का शिकार हों.
हालांकि कुछ महीनों तक, चिंतित माता-पिता खुद को आश्वस्त करने के लिए अपनी बेटियों की उपस्थिति की जांच करने स्कूल व कॉलेज आते रहे. वो देखना चाहते थे कि उनकी बेटियां कक्षाओं में ‘सुरक्षित’ हैं. स्कूलों ने उपस्थिति नियमों को कड़ा कर दिया ताकि लड़कियां बाहर न निकल सकें.
सोफिया गर्ल्स कॉलेज की वर्तमान प्रिंसिपल सिस्टर पर्ल कहती हैं कि, “उस वक्त हम आहत, क्रोधित थे और दर्द में थे.”
नो 1992 में सोफिया स्कूल में 12वीं कक्षा की छात्रा थीं. उन्होंने कहा कि ये मामला शांत कर दिया गया था.
“हम कभी नहीं जान पाए कि पीड़िताएं कौन थीं. वो कोई भी हो सकती थी.” सिस्टर पर्ल बताती हैं कि इसके बाद उन्हें बाहर जाने के लिए मना कर दिया जाता था और उनके माता पिता काफी सतर्क रहने लगे थे.
आज जब वो सोफिया स्कूल के बारे में झूठ फैलाने वाला कोई यूट्यूब वीडियो देखती हैं तो उन्हें गुस्सा आता है. कुछ रिपोर्ट जो दावा करती हैं कि सोफिया स्कूल की लगभग 250 लड़कियों को शिकार बनाया गया था.
“वे झूठी बातें फैलाकर संस्थान को बदनाम करना चाहते हैं ताकि लड़कियां सोफिया से पढ़ाई छोड़ दें.” वो कहती हैं.
भले ही स्कूलों के एनरोलमेंट पर इस केस का बहुत असर नहीं देखा गया लेकिन गांव देहात में लड़कियों को बाहर ना भेजने देने के लिए दलीलें इस केस से जोड़कर दी जाने लगी थीं. इस केस के बाद पंचोली और उनका ग्रुप जब गांव में फील्ड वर्क के लिए जाता था तो हमेशा अजमेर गैंग रेप केस के बारे में कुछ न कुछ जरूर सुनता था.
पंचोली बताती हैं, “लोग अक्सर लड़कियों को दोषी ठहराते थे और कहते थे, ‘इसलिए हमें उन्हें हॉस्टल में नहीं भेजना चाहिए.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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