पूर्वी लद्दाख में करीब नौ महीने तक युद्ध के कगार पर खड़ीं भारतीय और चीनी सेनाओं ने पैंगोंग सो झील के उत्तर तथा दक्षिण तटों से आपसी सहमति से वापसी 10 से 19 फरवरी के बीच पूरी कर ली. इस पूरी सटीक प्रक्रिया का भविष्य के लिए वीडियो बनाकर रख लिया गया है.
इसके बाद रक्षा विशेषज्ञ यह आकलन करने लगे कि यह वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर अप्रैल 2020 में जो स्थिति थी उस ओर वापसी के लिए चीन तथा भारत के बीच विस्तृत समझौते की दिशा में पहला चरण है. यह भी उम्मीद जाहिर की गई कि यह समझौता चीन की 1959 वाली दावा रेखा और भारत की मान्यता/नियंत्रण/गश्ती क्षेत्र में शामिल एलएसी के आधार पर दोनों देशों की सीमारेखा के निर्धारण का रास्ता साफ करेगा. बेशक एलएसी पर अलग-अलग धारणा के हिसाब से ‘बफर ज़ोन’ भी थे.
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स्वतंत्र सहमति
लेकिन एक महीने बाद ऐसा लग रहा है कि यह पहला चरण चीन और भारत दोनों के बीच स्वतंत्र सहमति जैसी थी जिसके तहत दोनों देश अपनी-अपनी जीत के दावे कर सकें और फिंगर 4 तथा फिंगर 8 के बीच के बफर जोन के बारे में अलग-अलग व्याख्याएं कर सकें. एकमात्र बढ़त, जो हमने पूर्वी लद्दाख में 29-30 अगस्त 2020 की रात कैलाश रेंज में बनाई थी उसे इस स्वतंत्र सहमति के तहत छोड़ दिया गया. अब वापसी के बाद भी दोनों सेनाएं एक दूसरे पर सीधा वार करने की स्थिति में तैनात हैं. देप्सांग, हॉट-स्प्रिंग्स-गोगरा, और डेमचोक से वापसी को लेकर 20 फरवरी कोर कमांडरों की 10वीं बैठक के बाद कोई प्रगति नहीं हुई है. इन इलाकों में सेनाएं आमने-सामने खड़ी हैं.
भारत-चीन सीमा मामलों पर परामर्श एवं समन्वय के ‘वर्किंग मेकनिज़्म’ (डब्लूएमसीसी) की 21वीं बैठक 12 मार्च को हुई जिसमें दोनों पक्षों के इस वादे को दोहराया गया कि वे बाकी इलाकों से सेनाओं की वापसी के लिए बातचीत जारी रखेंगे. यह भी तय किया गया कि कोर कमांडरों की 11वीं बैठक जल्द बुलाई जाएगी.
सेनाओं की वापसी में गतिरोध
पैंगोंग सो झील के उत्तर तथा दक्षिण तटों से वापसी के बावजूद दोनों तरफ सेनाएं इस तरह तैनात राखी गई हैं कि अप्रैल के अंत में तनाव बढ़े तो वे काम आएं. मेरा आकलन है कि 20 फरवरी को कोर कमांडरों की बैठक के दौरान चीन ने देप्सांग और डेमचोक के दक्षिण क्षेत्र से वापसी पर बात करने से मना कर दिया. चीन का साफ कहना है कि वे 1959 की दावा रेखा के मुताबिक अपने ‘संप्रभु क्षेत्र’ में बने हुए हैं, और इस पर किसी समझौते का कोई सवाल नहीं है. नतीजा यह है कि वे इन इलाकों में बफर ज़ोन बनाने के विचार को भी मानने को राजी नहीं हैं.
यह सर्वविदित है कि देप्सांग मैदानी इलाके का भूगोल ऐसा है कि उसकी रक्षा बेहद मुश्किल है. भारत के लिए वहां कोई सामरिक बढ़त की भी संभावना नहीं है. इसलिए 1959 वाली दावा रेखा को मानना निश्चित ही है.
डेमचोक में भी स्थिति कोई अलग नहीं है. चीन ने डेमचोक के दक्षिण में चार्डिंग-निंग्लुंग नाला क्षेत्र में एलएसी से 60 किमी पर स्थित नगारी को किसी खतरे से बचाने के लिए ऊंचाइयों पर अड्डा जमा लिया है. नगारी से होकर तिब्बत-झिंजियांग हाइवे गुजरता है. डेमचोक के उत्तर में स्थित ऊंचाइयों पर चीन ने 1962 में ही कब्जा जमा लिया था. फिलहाल चीन 1959 वाली दावा रेखा की अनदेखी कर रहा है जिसमें सिंधु घाटी से 30 किमी पश्चिम में स्थित फुकचे तक का क्षेत्र शामिल है. लेकिन वह डेमचोक के दक्षिण में अतिक्रमण पर कोई समझौता नहीं करने वाला है.
सरकारी सूत्रों का कहना है कि डेमचोक और देप्सांग पुराने विवादित क्षेत्र हैं, जो मौजूदा सरकार को विरासत में मिले हैं. इस लिहाज से, पूरा सीमा विवाद 1950 वाले दशक से चला आ रहा है. हकीकत यह है कि इन इलाकों में भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आइटीबीपी) अप्रैल 2020 तक गश्त कर रही थी.
हॉट स्प्रिंग्स-गोगरा में, 1959 वाली दावा रेखा और एलएसी एक-दूसरे से मिली हुई हैं. लेकिन भारत ने कुगरंग नदी और चुंगलुंग नाला के साथ-साथ सड़क बनाना शुरू किया तो चीन की नज़र टेढ़ी हो गई. इस सड़क के कारण उत्तर की ओर गलवान नदी के ऊपरी क्षेत्र की ओर रास्ता खुलता है. चीन ने शायद कुगरंग नदी और चुंगलुंग नाला के जंक्शन तक कब्जा कर लिया है. इस वजह से हम कुगरंग नदी घाटी से उत्तर-पश्चिम में करीब 30-35 किमी क्षेत्र तक नहीं पहुंच पाएंगे. चीन एलएसी के साथ लगे क्षेत्र पर तो सहमत है लेकिन वह गलवान नदी घाटी के लिए खतरा बनने वाले इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास को रोकने के लिए बफर ज़ोन चाहता है.
इसके साथ ही चीन ने गोगरा पोस्ट से उत्तर और पूरब में भी छोटे-मोटे अतिक्रमण किए हैं. लुकुंग तक जाने वाली 100 किमी लंबी सड़क के कारण हम बढ़त हासिल करने की कोई कार्रवाई करने की स्थिति में नहीं हैं. तनाव बढ़ने पर पूरी चांग चेनमो घाटी की रक्षा कर पाना मुश्किल हो जाएगा. मेरा मानना है कि अगर हालात को सामान्य बनाना है तो कुगरंग नदी घाटी में अप्रैल 2020 तक हमारे नियंत्रण में जो बफर ज़ोन था उसे फिर से बनाना जरूरी है.
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फिर वही चाल?
पिछले महीने भी ऐसी कई घटनाएं घटी हैं, जो भारत-चीन संबंध पर असर डालती हैं. एक तो, चीन 2020 में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार बना. नरेंद्र मोदी सरकार भारत में चीन की 2 अरब डॉलर मूल्य की एफडीआई परियोजनाओं को मंजूरी देने जा रही है.
अमेरिका, भारत, जापान, और ऑस्ट्रेलिया के नेताओं के ‘क्वाड’ का वर्चुअल शिखर सम्मेलन 12 मार्च को हुआ. व्हाइट हाउस से जारी इसके संयुक्त वक्तव्य से, जिसे ‘वाशिंगटन पोस्ट’ में संपादकीय पृष्ठ के सामने वाले पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया, संकेत मिलता है कि इंडो-पैसिफिक मसले पर सहयोग का एक व्यापक समूह तैयार हो रहा है. चीन का नाम तो नहीं लिया गया मगर वह केंद्र में रहा, जो इस बात का भी संकेत है कि चीन के साथ हरेक सदस्य के अपने जटिल रिश्ते की वजह से क्वाड की सीमाएं क्या हैं.
चीन के पीपुल्स कनफरेंस ने यार्लुंग जंगबो (ब्रह्मपुत्र) नदी के निचली क्षेत्रों में मेगा हाइड्रो परियोजनाओं और तिब्बत में 30 अरब डॉलर मूल्य की इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की, जिनमें से कई हिमालय में हमारी सीमा के करीब हैं, मंजूरी दे दी है.
चीनी विदेश मंत्री वाङ यी और भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने संबंधों के भावी स्वरूप के बारे में बयान दिए. यी ने 7 मार्च को कहा, ‘सीमा विवाद इतिहास से मिली समस्या है, और केवल यही भारत-चीन संबंध की पूरी कहानी नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि दोनों देश मिलकर इसका उपयुक्त हल ढूंढें और साथ ही आपसी सहयोग इतना बढ़ाएं कि इस मसले का समाधान करने के हालात बन जाएं.” जयशंकर ने कहा, “अब चूंकि एक संबंध अच्छी तरह चल रहा है, हम सकारात्मक जवाब देंगे. इसलिए, आप अगर हाथ बढ़ाएंगे तो हम भी अपना हाथ बढ़ाएंगे. लेकिन आप हमारे ऊपर बंदूक तानेंगे तो हम भी आपके ऊपर बंदूक तानेंगे. मेरे ख्याल से यही उपयुक्त और तार्किक भी है.’
इसलिए, ऐसा लगता है कि हम पहले की तरह दोस्ती-दुश्मनी का खेल जारी रखेंगे. चीन सीमा विवाद की आड़ में भारत का आर्थिक इस्तेमाल करता रहेगा. भारत आर्थिक सहयोग करेगा लेकिन एलएसी पर चीनी हरकतों का जवाब देता रहेगा. दोनों ने अपने-अपने सबक सीख लिये हैं. चीन सैन्य लिहाज से भारत को युद्ध के लिए मजबूर नहीं कर सकता, जिसके नतीजे अनिश्चित हैं इसलिए उससे बचा ही जाना चाहिए. भारत के लिए सबक यह है कि वह एलएसी पर असावधान रह कर चीन को दबाव डालने की छूट नहीं दे सकता, जबकि भारत राष्ट्रीय शक्ति, खासकर आर्थिक तथा सैन्य मामलों में उसके मुक़ाबले जो अंतर है उसे पाटने में लगा है. इसका अर्थ है कि उसे एलएसी पर हमेशा के लिए अतिरिक्त फौजी तैनाती रखनी पड़ेगी.
पूर्वी लद्दाख के लिए क्या किया जाए
मुझे लगता है कि भारत कुगरंग नदी घाटी में हॉट स्प्रिंग्स-गोगरा सेक्टर में बफर ज़ोन के लिए राजी हो जाएगा. इसके चलते 35 किमी लंबी कुगरंग नदी घाटी क्षेत्र में हम गश्त नहीं लगा पाएंगे, सेना नहीं तैनात कर पाएंगे और इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास नहीं कर पाएंगे. हम देप्सांग में 1959 वाली दावा रेखा को कबूल कर लेंगे और डेमचोक के दक्षिण में अतिक्रमण को झेलते रहेंगे. मेरे विचार से, बेहद प्रतिकूल सैन्य टकराव को खत्म करने के लिए यह एक छोटी कीमत होगी.
हमारे रक्षा विशेषज्ञों में भी इलाके की दुर्गमता के बारे में जानकारी का जो अभाव है, मीडिया जिस तरह सरकार के अनुकूल है, और प्रधानमंत्री जिस तरह लोकप्रिय हैं उस सबको देखते हुए एनडीए सरकार को इसमें कोई समस्या नहीं होगी. बाकी का काम छल, लफ़्फ़ाज़ी, घालमेल, और असहमत लोगों को ‘राष्ट्र विरोधी’ बताकर पूरा किया जा सकता है.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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