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Wednesday, 20 November, 2024
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पाकिस्तान की बदहाल अर्थव्यवस्था और आंतरिक असंतोष के बावजूद, भारत को समझना होगा कि शायद ही 2021 में वो बाज आए

2021 में पाकिस्तान के पास अपना सिर ऊंचा रखने और विरोधियों को कमतर आंकने का शायद ही कोई आधार होगा. यह हर किसी को मालूम है, जरूरत सिर्फ इस बात की है कि कोई यह बात जनरलों से भी कह डाले.

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सारी दुनिया को नाकों चने चबाने को मजबूर करने वाले एक साल के बाद कोई भविष्यवाणी करना खतरे से खाली नहीं है. कोविड का प्रकोप हुआ हो या न हुआ हो, इस तरह की कोशिश सरकारों को करनी चाहिए बजाए इसके कि साल बीत जाने पर उसकी समीक्षा की जाए, जो कि बुरे आकलनों को छिपाने के लिए ‘कट-पेस्ट’ जैसे उपक्रम पर खत्म होती है.

यह काम आसान नहीं है लेकिन अचानक कोई बुरी घटना सामने आ जाए इससे बचने के लिए भविष्योन्मुख नज़रिया रखना महत्वपूर्ण है. खासकर इसलिए कि पाकिस्तान नामक एक ज्वालामुखी ठीक हमारे पड़ोस में है. बहरहाल, यह समीक्षा तो करनी ही होती है, हालांकि इसमें आशा-निराशा के धूसर-काले रंग होंगे ही.


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हुकूमत कायम है मगर आगे खतरा है

शुरुआती भविष्यवाणी तो आसान है कि पाकिस्तान में फौज का हाथ ऊपर बना रहेगा. लेकिन इसमें एक पेच है. प्रधानमंत्री इमरान खान के खिलाफ लामबंद विपक्ष ने सावधानी बरतते हुए यह कहा है कि वह ‘कठपुतली’ और उसे नचाने वाले के खिलाफ तो है मगर फौज की पूरी ‘इज्ज़त’ करता है. यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ का गुस्सा फौज के चीफ क़मर जावेद बाजवा और आईएसआई के चीफ ले. जनरल फैज़ हमीद के खिलाफ था मगर इसके साथ वे यह भी आश्वासन दे रहे थे कि फौज और फौजियों के लिए उनके मन में बहुत इज्ज़त है.

दरअसल, फौज के चीफ के खिलाफ निंदा अभियान एक पहेली जैसी है क्योंकि शरीफ की पार्टी ने पिछले साल उनका कार्यकाल बढ़ाए जाने के फैसले का समर्थन किया था. किसी भी लोकतंत्र का फौजी अफसर यही कहेगा कि सेना के अध्यक्ष का कार्यकाल बढ़ाया जाना उसके नीचे के हरेक अफसर के लिए बुरी खबर होती है.

बताया जाता है कि सात जनरल बाजवा का कार्यकाल बढ़ाए जाने पर रोक लगवाने के लिए एकजुट हो गए थे, तब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को अपने हाथ में लेने का फैसला किया. जानकारों की राय है कि संभवतः नवंबर 2022 में बाजवा जब अपना कार्यकाल पूरा करेंगे तब तक 17 सीनियर जनरल रिटायर हो चुके होंगे. यानी फौज में भारी असंतोष मुमकिन है.

इसलिए, ऐसा लगता है कि पाकिस्तान में विपक्ष अगर केवल बाजवा और उनकी मंडली को ही निशाना बना रहा है तो यह महज इत्तफाक नहीं है. इसके साथ यह भी जोड़ लीजिए कि वे कश्मीर को अनुच्छेद 370 के साथ ही हाथ से ‘गंवा’ चुके हैं और एक चक्र पूरा हो गया है. इसलिए, शिखर पर बैठा कोई भी नये साल में चैन से नहीं रहेगा— चाहे वह फौज में शिखर पर हो या कार्यकाल बढ़ाए जाने से पद पर जमा हुआ हो या प्रधानमंत्री के दफ्तर में शिखर पर बैठा हो. इसका मतलब यह हुआ कि पाकिस्तान कोई भी दुस्साहस कर सकता है. जरूरी नहीं कि यह फौजी हुकूमत के रूप में ही सामने आए, क्योंकि जब सब कुछ फौज के ही हाथ में है तो यह निहायत गैर-जरूरी है. लेकिन दुश्मन नंबर वन भारत के खिलाफ कोई ऐसा कदम उठाया जा सकता है जो आवाम को पसंद आए. याद रहे कि जनरल परवेज़ मुशर्रफ करगिल की हवा के ज़ोर के बूते गद्दी पर जा बैठे थे. जनरलों का ग्रुप इसे दोहरा सकता है.


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सियासी बवंडर

राजनीतिक भविष्यवाणी ज्यादा कठिन है. वाम, दक्षिण, मध्यमार्गी पार्टियों के असामान्य मेल से बने पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) के रूप में एकजुट विपक्ष को जोड़े रखने वाला फेविकोल पाकिस्तानी हुकूमत मुहैया करा रही है.

चंद ही ऐसे नेता बचे होंगे जिनके खिलाफ ‘जवाबदेही’ के मामले न दायर किए गए होंगे या जिन्हें किसी-न-किसी बहाने से परेशान न किया गया होगा. फजलुर रहमान को अपनी तीन दशक पुरानी पार्टी में विभाजन देखना पड़ा है, उसका एक धड़ा मौलाना शेरानी की अगुआई में अलग हो गया है. इससे भी बदतर यह कि पश्तून तहफ़ूज मूवमेंट (पीटीएम) के करिश्माई नेता अली वज़ीर खुद को कैद में पा रहे हैं. नवाजा शरीफ का पासपोर्ट वापस ले लिया जाने वाला है और उनके ताकतवर सहयोगी मोहम्मद आसिफ को जवाबदेही के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया है.

इन हमलों ने ‘साथ जिएंगे, साथ मरेंगे’ का जज्बा भले पैदा किया हो मगर यह एकता भी तब दबाव में दिखी, जब पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) ने सीनेट के चुनाव और उपचुनाव लड़ने का फैसला कर लिया जबकि पीडीएम के साझा एजेंडा में सामूहिक इस्तीफे की बात की गई है. एजेंडा को लागू करने की आखिरी तारीख 31 दिसंबर बीतने के बावजूद किसी पार्टी ने कुछ खास नहीं किया. न ही इस बात की कोई संभावना है कि इमरान खान से 31 जनवरी तक इस्तीफा देने की जो मांग की गई है उसे वे पूरा करेंगे.

फिर भी, हरेक पार्टी ने हर जगह भारी भीड़ इकट्ठा करके अपनी ताकत साबित की है, जिससे यही संकेत मिल रहा है कि पाकिस्तानी आवाम बदलाव के लिए तैयार है. लेकिन पीडीएम अनिश्चित काल तक अपने जलसे आयोजित नहीं करता रह सकता. उसे संभवतः ‘प्लान-बी’ यानी इस्लामाबाद या रावलपिंडी तक मार्च निकालकर हुकूमत को जल्दी ही फैसले के लिए मजबूर करना पड़ेगा.

मार्च में भारी भीड़ इकट्ठा हुई तो उसे हटाने के लिए हुकूमत को बल प्रयोग करना पड़ेगा. यही वजह है कि पीडीएम की एकजुटता पर संदेह करने वाली सत्ताधारी पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) ने बातचीत की पेशकश की है. अब चाहे प्लान-ए लागू किया जाए या प्लान-बी, 2021 के मध्य तक संकट उभरने के पूरे आसार हैं.


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अर्थव्यवस्था भी संकट में और ‘सीपीईसी’ भी

इस संकट का सीधा ताल्लुक पाकिस्तान की नाजुक आर्थिक हालत से है, जिसके बारे में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने भविष्यवाणी की है कि इसके जीडीपी और मुद्रास्फीति के बीच खाई और चौड़ी ही होने वाली है और विश्व बैंक जो संकेत दे रहा है वह पाकिस्तानी हुकूमत द्वारा पेश की जा रही गुलाबी तस्वीर से बिलकुल अलग है.

वैसे, सच तो यह है कि यह कोविड महामारी और जलवायु संकट के कारण केवल पाकिस्तान को ही आर्थिक संकट का सामना नहीं करना पड़ रहा है. लेकिन इसके कारण चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपीईसी) का काम सुस्त पड़ेगा क्योंकि पाकिस्तान के स्टेट बैंक ने बाकी परेशानियों के अलावा चीन से मशीनरी के आयात में पूरी गिरावट के संकेत दे दिए हैं.

खबर है कि चीन पैसे के संकट से जूझ रही पाकिस्तान रेलवे को परियोजनाओं के लिए वित्तीय मदद देने से कतरा रहा है, जबकि पाकिस्तान चीनी कंपनियों के ‘घपलों’ की आड़ में कर्जों पर फिर से समझौते करने की जुगत लगा रहा है. चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग 2021 में जब भी पाकिस्तान का दौरा करें, उम्मीद की जानी चाहिए कि तब बड़ी घोषणाएं और छोटे निवेश किए जाएंगे जिनका कुल मूल्य 60 अरब डॉलर के आंकड़े के दावों को शायद ही सच करेगा. यह बिलकुल ‘पहले मुर्गी या पहले अंडा’ वाली हालत है.

पाकिस्तान को आर्थिक वृद्धि के लिए ज्यादा-से-ज्यादा निवेश की जरूरत है लेकिन यह तब तक नहीं आएगा जब तक उसकी अर्थव्यवस्था थोड़ी सुधरती नहीं. इसका मतलब यह तो नहीं है कि चीन हाथ खींच लेगा मगर यह भी सच है कि 2021 में खेल बदलने वाला कोई जादू नहीं होने की उम्मीद नहीं है.


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और भारत से रिश्ता…

भारत से रिश्ते बिलकुल खराब होने की भविष्यवाणियां तो नहीं की जा रही हैं मगर बहुत उम्मीद भी नहीं की जा रही है.

पाकिस्तानी हुकूमत को कश्मीर के मामले में ‘पूरी तरह बिक जाने’ का आरोप झेलना पड़ा है और उसने पूरी ताकत से प्रतिवाद करते हुए हर मंच पर कश्मीर मसले को उठाया, यहां तक कि ऐसा नक्शा भी पेश किया जिसमें कश्मीर ही नहीं बल्कि जूनागढ़ और सर क्रीक को भी पाकिस्तान का हिस्सा बताया गया है और अब वह भारत के कथित आतंकवाद पर एक ‘डॉसियर’ हर किसी को पेश कर रहा है.

पाकिस्तान के विदेश मंत्री कुरैशी ने हाल में यूएई के दौरे के दौरान भारत पर आरोप लगाया कि वह एक और सर्जिकल स्ट्राइक करने की तैयारी कर रहा है. पश्चिम एशिया में भारत के कूटनीतिक अभियानों में आई तेजी पर तंज़ कसते हुए सावधान किया कि वह इस स्ट्राइक के लिए दोस्तों से समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहा है.

यह सब निश्चित ही बहुत बुरा है. फिर भी पाकिस्तान ने कश्मीर में हाल में हुए जिला विकास परिषदों के चुनाव पर कोई हंगामा नहीं मचाया और न ही तब कोई ‘तीसरा मोर्चा’ खोला जब भारत चीन से उलझा हुआ था.

साल 2021 में पाकिस्तान ‘जैसे को तैसा’ देते हुए गिलगित-बाल्तीस्तान को अपनी संवैधानिक सीमा के अंदर शामिल कर सकता है, जिससे उसे कुछ संतोष हासिल हो सकता है. इस बीच, दोनों देशों ने अपने-अपने यहां के परमाणु संयंत्रों और कैदियों की सूचियों का आदान-प्रदान किया और यह संकेत दिया कि वे जरूरी गतिविधियां चलाते रहेंगे, भले ही उनके उच्चायुक्त अपने-अपने मुकाम पर रहें या न रहें.

2021 में, कुल मिलाकर कहें तो यहां जिन कसौटियों का जिक्र किया गया है उनके आधार पर पाकिस्तान और कमजोर ही पड़ेगा. लेकिन याद रहे कि करगिल तब हुआ था जब वह 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद भारी वित्तीय संकट में था और इसके बाद एक और महत्वाकांक्षी जनरल कुर्सी पर जा बैठा था. एक और दुस्साहस पीडीएम को हाशिये पर डाल सकता है, फौज को एकजुट कर सकता है और बीजिंग के प्रति इस्लामाबाद की वफादारी के सबूत पेश कर सकता है. लेकिन पेच यह है कि यह दुस्साहस कामयाब होना चाहिए. और यह आसान नहीं है.

फिर भी, 2021 कोई 1999 नहीं है. नवाज़ शरीफ की ज़ुल्फें अब उतनी घनी नहीं रहीं. और भविष्य बिलावल भुट्टो ज़रदारी और मरयम नवाज़ सरीखे युवा और ‘उतने युवा नहीं’ नेताओं का है. लेकिन कोई भी फौज के दायरे से बाहर नहीं जाएगा. और भारत या अफगानिस्तान के साथ पाकिस्तान की अंतहीन लड़ाइयों में दुनिया की शायद ही कोई दिलचस्पी रह गई है. यही मूल मसला है.

2021 में पाकिस्तान के पास अपना सिर ऊंचा रखने और विरोधियों को कमतर आंकने का शायद ही कोई आधार होगा. यह हर किसी को मालूम है. जरूरत सिर्फ इस बात की है कि कोई यह बात जनरलों से भी कह डाले.

(लेखिका राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय की पूर्व निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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