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Thursday, 25 April, 2024
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अफगानिस्तान में चीन या तो खुफियागीरी से बाज आए या वहां शर्मसार होने के लिए तैयार रहे

बीते वर्षों में चीन कई वजहों से अफगानिस्तान में अपनी गतिविधियां चलाता रहा है, लेकिन दशकों बाद भारत जब अफगानी खेल में फिर से शरीक हो रहा है, तब चीन को नये खतरों का जायजा लेना ही पड़ेगा.

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हम बड़े दिलचस्प दौर में जी रहे हैं. पिछले दिनों अफगानिस्तान ने अपने यहां पूरे देश में फैले चीनी जासूसों के जाल का पर्दाफाश किया तो ऐसा लगा कि अंग्रेजी जासूसी उपन्यासों के सरताज स्वर्गीय जॉन ली केरी का सबसे उम्दा उपन्यास ही साकार उठा हो. यह रहस्योदघाटन एक ऑस्ट्रेलियायी अखबार में डेटा लीक की खबर छपने के बाद हुआ. इस अखबार की खबर के अनुसार, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के करीब 20 लाख सदस्य दुनिया भर के टॉप कॉर्पोरेट ऑफिसों और वाणिज्य दूतावासों तक में तैनात हैं. यह डेटा लीक उन चीनी असंतुष्टों द्वारा शांघाई के एक सर्वर से हासिल किया गया था, जो इसका इस्तेमाल कथित तौर पर जवाबी खुफिया गतिविधियों के लिए कर रहे थे. ऐसा लगता है कि जासूसी, हत्याएं और साजिशें रोजाना की बातें हो गई हैं.

अफगान जासूसी उत्सव

सबसे पहले वे तथ्य, जो भारतीय मीडिया ने पेश किए. अफगान खुफिया जाल का खुलासा राष्ट्रीय सुरक्षा निदेशालय (एनडीएस) ने किया, जिसके साथ काबुल में एक चीनी नागरिक की गिरफ्तारी हुई और हथियारों के साथ केटामाइन नाम का वह ड्रग बरामद किया गया जो तस्करी के नेटवर्क में भारी मात्रा में शामिल हो रहा है. इस नेटवर्क में सक्रिय वह महिला भी गिरफ्तार की गई, जो एक रेस्तरां की मालकिन थी. उसके साथ एक थाई नागरिक समेत आठ और लोग भी पकड़े गए. ऐसा लगता है कि यह ऑपरेशन दिसंबर में शुरू किया गया था. चीनी नागरिकों की इस तरह की यह पहली ‘अधिकृत’ गिरफ्तारी है, जो कि चीन के लिए तो शर्मनाक है ही, अफगानिस्तान के लिए भी परेशानी का सबब है क्योंकि वह अपने ताकतवर पड़ोसी को ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ (बीआरआई) के जरिए बड़ी सहायता का स्रोत मानता है.

इसलिए, आश्चर्य नहीं कि राष्ट्रपति अशरफ गनी ने अपने पूर्व खुफिया प्रमुख और प्रथम उप-राष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह को इस मामले की जांच करने और चीनियों से निपटने के लिए कहा है. काबुल ने मांग की है कि चीन अगर चाहता है कि आरोपियों के खिलाफ आपराधिक मुकदमा न चलाया जाए, तो वह ‘इस विश्वासघात’ के लिए माफी मांगे. लेकिन यह चीन के लिए अपमानजनक होगा और माना जाएगा कि वह इस बात को कबूल करता है कि वह युद्ध से त्रस्त पड़ोसी मुल्क की गहरी खुफियागीरी करने में लिप्त था. इससे चीन की इज्ज़त में बट्टा ही लगेगा. वैसे, दिलचस्प बात यह है कि बाद में सालेह ने इस खबर का खंडन कर दिया कि गिरफ्तार लोग चीनी नागरिक थे, उनका कहना है कि वे तालबानी हैं.


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जासूसी का जाल

इसके बाद देखें कि आरोप क्या हैं. एक राजनयिक ने कहा कि इस गिरोह का इरादा ‘पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामी तहरीक’ (ईटीआईएम) शुरू करना भी हो सकता है ताकि नये रंगरूटों और कमांडरों को आकर्षित किया जा सके. यह भी कहा गया है कि ये जासूस हक़्क़ानी गिरोह के संपर्क में भी थे, जो कि इस अफगानी शतरंजी खेल में एक प्रमुख पाकिस्तानी मोहरा है.

पहला आरोप सही भी हो सकता है, क्योंकि यह गिरोह चीन के एकमात्र मुस्लिम-बहुल प्रांत शिनजियांग में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) की आंख के लिए किरकिरी है. अफगानिस्तान में चीन की खुली-छिपी पैठ के, जो कि कभी पाकिस्तान के जरिए थी, मद्देनजर यह भी बहुत हद तक मुमकिन है कि ये जासूस हक़्क़ानी गिरोह के संपर्क में रहे होंगे.

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अफगानिस्तान में चीनी कार्रवाई के चार चरण

जब तक अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में नहीं पहुंची थी तब तक चीन को उसकी शायद ही कोई परवाह थी और वह उस समय की तालिबान सरकार से भी बात करने को तैयार था. यहां तक कि पाकिस्तान में उसके राजदूत ने मुल्ला उमर से मुलाक़ात तक की थी. उसे चिंता थी कि यूईघर कहीं अफगानिस्तान न पहुंच जाएं. जो भी हो, सब कुछ उसे अपने काबू में लग रहा था. लेकिन 9/11 कांड के बाद जब चीन ने अफगानिस्तान में अमेरिकी इरादों के बारे में पाकिस्तान से सुराग लेना शुरू किया तो सब कुछ बदल गया.

दूसरा चरण पाकिस्तान के लिए अच्छा रहा क्योंकि चीन को अफगान हिंसा की जटिलता का कम ही अंदाजा था. इसके अलावा, मुख्य कर्ताधर्ता संगठन ‘क्वेटा शूरा’ अफगानिस्तान नहीं बल्कि पाकिस्तान में था. लेकिन जब चीन के शिनजियांग में हिंसा और उपद्रव बढ़ने लगा तो चीन को पाकिस्तान से ‘मदद’ लेने के अलावा खुद भी हाथ डालना पड़ा.

2012 में चीन के सिक्योरिटी चीफ चुपचाप काबुल पहुंचे और सुरक्षा सहयोग के समझौते पर दस्तखत किया, जिसके तहत पुलिस को प्रशिक्षित करने का करार भी शामिल था. इसके बाद 2015 में तालिबान प्रतिनिधियों के साथ पहली बार उच्चस्तरीय सीधी बातचीत हुई और तालिबान की ‘मंजूरी’ से आयनक खदानों के इस्तेमाल और इन्फ्रास्ट्रक्चर संबंधी 30 वर्षीय समझौता किया गया. इसका अर्थ था कि चीन ने वहां की जमीन पर अपने पैर जमा दिए. इसके बाद अफगान अधिकारियों ने बीजिंग के कई दौरे किए. इसे तीसरा चरण कहा जा सकता है, जिसमें पाकिस्तान भी उसका हाथ थामे रहा.

चौथा चरण तब शुरू हुआ जब इस्लामिक स्टेट (आईएस) अफगानिस्तान में पहली बार प्रकट हुआ. 2017 से पहले यूईघर सीरिया में लड़ ही रहे थे. 2019 में चीनी सूत्रों ने अनुमान लगाया कि 20 से 25 हज़ार चीनी चीन से भागकर ‘आईएस’ से ट्रेनिंग ले रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि जल्दी ही यह साफ हो गया कि तालिबान और आईएस की कथित अफगान शाखा ‘इस्लामिक स्टेट ऑफ खुरासान’ के बीच ठन गई है. चीन के लिए यह एक वरदान जैसा था.

इसके बाद रूस आरोप लगाने लगा कि अमेरिकी हेलिकॉप्टर ‘विदेशी’ लड़ाकों को सुदूर उत्तर से ला रहे हैं. ये आरोप 2018 में पाकिस्तानी विदेश मंत्री के सामने उछाले गए, जिसका अर्थ था कि पाकिस्तान भी इसमें शामिल है. उसी साल अमेरिकी विमान ने चीनी इलाके से सटे बदख्शां में हवाई हमले किए. और हाल में अमेरिका ने आतंकवादी गिरोहों की अपनी सूची से ‘ईटीआईएम’ को हटा दिया, जिस पर चीन ने गुस्सा जाहिर करते हुए इसे अमेरिका का ‘दोमुंहापन’ कहा. इस चौथे चरण में चीन मैदान में सीधे उतर गया और काबुल में स्वतंत्र जासूसी करने लगा.

भारत के लिए बुरी खबर

ये सब भारत के लिए कतई अच्छी खबरें नहीं हैं. अफगान अधिकारी अपने शक्तिशाली पड़ोसी के साथ संबंधों को स्थिर करने के प्रयास में गिरफ्तारियों से इनकार कर सकते हैं, लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं है कि चीन अब अफगानिस्तान में गतिविधियां चला रहा है, हालांकि डेटा लीक से उजागर हुए चीनी जासूसी के रुझानों को देखते हुए, यह बहुत बड़े स्तर पर हो सकता है.  भले ही वे सीमावर्ती क्षेत्रों में हों. पाकिस्तान-चीन सहयोग अगर साझा खुफिया ऑपरेशन्स तक पहुंचता है तो यह चिंता की बात है. खासकर तब जबकि विदेश मंत्री एस. जयशंकर दोहा में अफगानिस्तान के साथ पहली आंतरिक वार्ता कर रहे हैं और भारत दशकों बाद वहां अपनी मौजूदगी जता रहा है. भारत सिर्फ यह चाहता है कि अफगानिस्तान में स्थिरता बहाल हो और इसके लिए वह चीन के साथ मिलकर काम कर सकता है क्योंकि वह भी यही चाहता है.

लेकिन भारत-चीन सहयोग की घोषणाओं में राजनयिकों के संयुक्त प्रशिक्षण जैसी पहल के सिवा और कोई बात नहीं की गई है. अब चीन जबकि हमारी सीमाओं पर चढ़ आया है, आपसी सहयोग की बात असंभव ही दिखती है. यह चीन के लिए भी बुरी खबर है.

पहली बात यह कि कोई भी महाशक्ति अफगानिस्तान में जाने के बाद बिना झुलसे बाहर नहीं निकली है. दूसरे, ऐसा लगता है कि चीन को अपनी सीमा पर बेहद संवेदनशील शिनजियांग क्षेत्र में कई खतरों का सामना करना पड़ रहा है. याद रहे कि एक समय शिनजियांग की सीमा कश्मीर की शाही सल्तनत की सीमा से मिलती थी. चीन को समझना पड़ेगा कि अगर वह एक जगह स्थिरता चाहता है, तो उसे दूसरी जगह भी स्थिरता की बात सोचनी पड़ेगी.

दुनियाभर के विभिन्न हिस्सों में जिस तरह चालों और जवाबी चालों के पीछे खुफिया छायाएं लगी रहती हैं, उसमें बेहतर यही होगा कि मुल्कों के नक्शे पर गहरी नज़र डाली जाए और जासूसी की जगह स्थिरता को तरजीह दी जाए. इससे और ज्यादा स्थिरता को ही बढ़ावा मिलेगा. जासूसी कूटनीति का जरूरी हिस्सा तो है लेकिन यह कभी-कभी परेशानी में भी डाल देता है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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