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Friday, 29 March, 2024
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अमेरिका चाहता है कि भारत चीन पर तटस्थता छोड़ दे लेकिन क्यूबा संकट का सबक भूल जाता है

लद्दाख़ में चीनी पीएलए के साथ भारतीय सेना के टकराव को, मुश्किल से ही ‘तटस्थ रहना’ कहा जा सकता है. लेकिन अमेरिकी अधिकारियों की निगाह में, इतना भर काफी नहीं है.

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हाल ही में एक समय लगता था कि भारत की चीन से कोई लड़ाई नहीं है. ऐसा ही एक मौक़ा था जब अमेरिकी सीनेटर मार्क वॉर्नर ने कहा था कि भारत को अपनी ‘तटस्थता छोड़कर’, और ‘इच्छुक देशों के गठबंधन में आकर’ बीजिंग का सामना करने की ज़रूरत है. वॉर्नर की टिप्पणी मायने रखती है. वर्जीनिया से दोबारा चुने जाने के बाद, वो सीनेट इंडिया कॉकस के सह अध्यक्ष और सेलेक्ट इंटेलिजेंस कमेटी के उपाध्यक्ष हैं. अन्य अमेरिकी अधिकारियों ने भी यही बात कही है, और इसमें कोई शक नहीं है कि थिंक टैंक की चर्चाओं में, ये एक बड़ा मुद्दा है.

बहुत से भारतीयों को ये टिप्पणियां अजीब लगेंगी. आख़िरकार, भारतीय सेना लद्दाख़ में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की आंखों में आंखें डालकर टकराव की स्थिति में डटी हुई है, और अपनी सुरक्षा को सुदृढ़ करने में अरबों रुपए ख़र्च कर रही है, जिसे वो वहन नहीं कर सकती. इसे किसी तरह भी ‘तटस्थ रहना’ नहीं कहा जा सकता. लेकिन ज़ाहिर है कि अमेरिकी अधिकारियों के लिए, इतना भर काफी नहीं है.


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सार्वजनिक रूप से कहना

इसमें कोई शक नहीं कि राष्ट्रपति डोनल्ड के अंतर्गत वॉशिंगटन चीन से ख़तरे को लेकर बहुत बेबाक रहा है. ये भी सही है कि उन्होंने कभी-कभी राष्ट्रपति शी जिंपिंग को अपना ‘दोस्त’ भी कहा है, लेकिन उनके शीर्ष अधिकारी बेबाकी से भी आगे रहे हैं. इसकी एक ताज़ा मिसाल थी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो की टिप्पणी, जो उन्होंने टोक्यो में ‘क्वॉड’ या क्वाड्रिलेटरल की बैठक में की, जिसमें जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत शामिल हैं. उन्होंने कोरोनावायरस प्रकोप को छिपाने के लिए, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की कड़ी आलोचना की. वो अपने आप में एक साहसिक बयान था.

भारत का रुख़ बहुत अलग रहा है, और वो चीन की निंदा से बचा है, जिसकी एक मिसाल हाल ही में शांघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइज़ेशन (एससीओ) में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टिप्पणी है. विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी स्पष्ट रूप से इसी तरह की बातें कही हैं. मसलन, हाल ही में एक ऑस्ट्रेलियाई थिंक टैंक के साथ बातचीत में, जयशंकर ने केवल इतना कहा कि चीन के साथ रिश्तों को काफी क्षति पहुंची है और ये भी कहा कि रिश्तों को सुधारना मुश्किल होगा.

इसलिए बातचीत के मोर्चे पर, अमेरिका और भारत की साझेदारी एक अलग राह पर है. लेकिन फिर, भारत के लिए बात सिर्फ एक मुश्किल पड़ोसी की नहीं, बल्कि मुश्किल पड़ोस की है जहां चीन ने भी बहुत निवेश किया हुआ है. इसके अलावा, अगर आपका पर्स छोटा है, तो सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें करने से काम नहीं चलेगा.

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सरकारी विधान और क़ानून

अमेरिका के पास निश्चित रूप से ढेर सारे सरकारी दस्तावेज़ हैं, जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति 2017, जिसने पहली बार चीन को एक ‘संशोधनवादी शक्ति’ के तौर पर चिन्हित किया था; राष्ट्रीय रक्षा रणनीति 2018, जिसने चीन को एक दीर्घकालिक प्रतिस्पर्धी के तौर पर प्राथमिकता में रखा; पीएलए पर सालाना रिपोर्ट; और सबसे ताज़ा, स्टेट डिपार्टमेंट की ‘दि एलिमेंट्स ऑफ द चाइना चेलेंज’, जिसका उद्देश्य एक ऐसी प्रबल नीति बनाना है, जो चुनाव चक्रों और नौकरशाही तकरारों से ऊपर होगी. ये सिर्फ कुछ प्रमुख नीति दस्तावेज़ हैं.

इसके आगे विधायी प्रक्रिया है जो कम से कम, वांछित दिशा की ओर जाने की कोशिश करती है. ऐसे ही एक विधान में रक्षा विभाग को, स्टार्ट-अप्स को वित्त-पोषित करने, और नवीकरण की अगुवाई करने की अनुमति दी गई, जिसकी मंशा अमेरिका को आर्टीफीशियल इंटेलिजेंस जैसी अहम तकनीकों में बढ़त देना है, जहां चीन आगे है.

एक और मिसाल है, अलग अलग आधारों पर चीनी कंपनियों पर लगाए गए प्रतिबंध. भारत ने न सिर्फ क़रीब 267 चीनी एप्स को बैन करने का क़दम उठाया, बल्कि चीनी (और अन्य) विदेशी निवेश के अस्वस्थ भारतीय कंपनियों को खरीदने पर भी रोक लगा दी. सरकार ने जनरल वित्तीय नियम 2017 में संशोधन करके, भारत से ज़मीनी बॉर्डर साझा करने वाले देशों के, सरकारी ठेकों में हिस्सा लेने पर भी रोक लगा दी.

लेकिन, भारत में दीर्घ-कालिक योजना दस्तावेज़ों का कोई रिवाज नहीं है, जिससे लद्दाख का आश्चर्य काफी हद तक कम हो सकता था. इसलिए हमारी नीति अल्प-कालिक होती है, जो चुनाव चक्रों और नौकरशाही स्टोव पाइपिंग से प्रभावित होती रहती है. इससे काम नहीं चलने वाला है. एक दीर्घ-कालिक पॉलिसी पेपर पर, जिसके कुछ तत्व मीडिया में लीक कर दिए जाएं, विचार किया जा सकता है. सबसे अहम ये होगा कि उससे, पूरी सरकार की एक ही राय हो जाएगी.

गठबंधन और बहुलवादिता

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद विकसित अमेरिकी गठबंधन प्रणाली में, मुख्यरूप से सोवियतों को निशाना बनाया गया था. यूरोप ने अफगानिस्तान जैसे थिएटर्स में हिस्सा लिया, लेकिन उनका दिल इसमें नहीं है. इंडो-पैसिफिक भी एक ऐसा ही प्रयास है, जिसमें क्वाड जैसे अलग प्लेटफॉर्म इस्तेमाल करके, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे पारंपरिक संधि भागीदारों से बाहर, एक अर्ध-गठबंधन बनाने की कोशिश की गई है. यहां भी, भारत ने ‘समावेशिता’ पर बल दिया है, ताकि उसे चीन के खिलाफ निर्देशित न देखा जाए, हालांकि बीआरआई (बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव) का उपहास करते हुए, दिल्ली ने उसके साथ ‘संप्रभुता, समानता और क्षेत्रीय अखंडता के साथ साथ पारदर्शिता, आर्थिक व्यवहार्यता, और वित्तीय उत्तरदायित्व पर आधारित क्वालिटी इनफ्रास्ट्रक्चर’ की ज़रूरत को जोड़ दिया’.

लेकिन नई दिल्ली को उससे आगे नहीं जाना था. इस बीच, वो एससीओ और रूस-भारत-चीन त्रिपक्षीय जैसे मंचों में शामिल होता रहा. इससे अमेरिकी पर्यवेक्षक चकरा जाते हैं, कि आख़िर चीन-भारत के रिश्तों की स्थिति क्या है. लेकिन वास्तविकता ये है कि रिश्ते कभी ख़त्म नहीं किए जाते, विशेषकर संकट के दौरान, जैसा कि अमेरिका को क्यूबा के मिसाइल संकट से पता होना चाहिए. शीत युद्ध के चरम पर भी, दोनों पक्ष एक दूसरे के संपर्क में रहे. लेकिन, मामला दर मामला आधार पर, अमेरिका को इन बैठकों की मंशा और नतीजों से अवगत रखना, उपयोगी हो सकता है. कभी कभी, पारदर्शिता से फाइलों के हरकत करने की रफ्तार तेज़ हो सकती है, और कांग्रेस के भीतर ख़राब टिप्पणियों से बचा जा सकता है.

क्वॉड को अगले स्तर पर ले जाना

अमेरिका के साथ सभी चार बुनियादी समझौतों पर दस्तख़त करने, और नई दिल्ली को एक प्रमुख रक्षा साझीदार नामित करने का मतलब है, कि द्विपक्षीय रिश्ते एक नए स्तर पर पहुंच गए हैं, हालांकि ये कोई संधि गठबंधन नहीं है. इसकी संभावना नहीं है कि भारत किसी ऐसे संधि संबंध पर सहमत होगा, जो उसे अमेरिका का एक जूनियर पार्टनर बना दे, जब तक कि चीनी ख़तरा उस स्तर तक न पहुंच जाए, जहां परमाणु निवारक को भी प्रभावी माना जाता है. उसकी संभावना नहीं है, चूंकि बीजिंग अच्छी तरह जानता है कि किसी भी सीधी आक्रामकता के, गंभीर नतीजे हो सकते हैं.

लेकिन, उससे कम ये संभव है कि रिश्तों को व्यापक करके, उसमें क्वॉड के भीतर एक मज़बूत ख़ुफिया साझेदारी को शामिल किया जाए, ठीक उसी तरह जैसे फाइव आईज़ एलायंस है, जिसमें अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड और यूके शामिल हैं. सभी चार क्वाड सदस्यों को बहुत ज़रूरत है कि एक साथ बैठकर दस साल बाद के ख़तरे और उस सहमत ख़तरे के खिलाफ, ज़रूरी क्षमताओं की बारीकियों के बारे में फैसला करें. वो फिर आंशिक रूप से, भारत की अपनी दीर्घ-कालिक रक्षा योजना का आधार बन सकता है.

चीन पर निर्भरता कम करने के लिए, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत, पहले ही सप्लाई चेन के लचीलेपन के लिए बातचीत कर रहे हैं. टेक्नोलॉजी नवीनीकरण के लिए सहयोग जैसी, इसी तरह की पहलक़दमियों पर भी ग़ौर किया जा सकता है. लेकिन यहां अहम बात ये है, कि क्वॉड सदस्य बैठकर सिर्फ रक्षा पर नहीं, बल्कि रणनीतिक ख़तरे पर गंभीरता से विचार करें. वो ‘सबके लिए एक, और एक के लिए सब’ की रक्षा प्रतिबद्धता को पूरा नहीं करता. लेकिन ये सबको, चीन से साइबर हमलों, जासूसी, और तकनीक चोरी जैसे विविध ख़तरों से बचने के, एक समान रास्ते पर लगा सकता है.

कहा जाता है कि नौकरशाहों समेत, सभी पुरुषों के मामलात में एक लहर आती है. अब समय है उस लहर के मूल्यांकन का, जो एक पश्चिम से है और दूसरी पूर्व से, और फिर मंत्रालयों को एकजुट करके वांछित दिशा में बढ़ाने का. सभी संबंधित पक्षों के लिए सहयोग ज़रूरी है, जिनमें अमेरिका भी शामिल है, जिसकी ऐसे मुद्दों पर दूसरों को भाषण देने की आदत, जिनकी उसे कोई समझ नहीं होती, नाव को विपरीत दिशा में ढकेल देती है. उसे भी तटस्थ रहना कहा जा सकता है, जिसे स्वीकार करना बहुत तकलीफदेह हो सकता है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

लेखिका राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय की पूर्व निदेशक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.


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