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Friday, 26 April, 2024
होममत-विमतपाकिस्तान के सेना प्रेम में अब चीनी धन की भी भूमिका है और शीघ्र ही इसके पीछे विधायी ताकत भी होगी

पाकिस्तान के सेना प्रेम में अब चीनी धन की भी भूमिका है और शीघ्र ही इसके पीछे विधायी ताकत भी होगी

अमेरिका को पुनर्विचार करने की ज़रूरत है. चीनी पैसे पर मौज करती पाकिस्तानी सेना हर तरह से बुरी खबर है, चाहे मैंडरिन में कही जाए या पंजाबी या अंग्रेजी में.

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पाकिस्तान की संसद ने हाल ही में एक नया कानून पास किया है. इस कानून में चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा प्राधिकरण स्थापित करने का प्रस्ताव है जो वास्तव में अरबों डॉलर की इस गलियारा परियोजना (सीपेक) का नियंत्रण असैनिक नौकरशाही से छीनकर पाकिस्तानी सेना को सौंपने का काम करेगा. अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में इस तरह की परियोजना को संभालने के लिए अधिकारियों और ऑडिटरों की एक बड़ी टीम तैनात होती है. लेकिन पाकिस्तान में ऐसा नहीं है. वहां सेना द्वारा संचालित एक अधिराष्ट्रीय प्राधिकरण उन अन्य बातों की कड़ी में है कि जिनकी वजह से देश सैनिक शासन के इतना करीब आ गया है कि उत्तरोत्तर अंतर करना मुश्किल हो रहा है.

पाकिस्तानी ‘सैन्य प्रतिष्ठान’ से लंबे समय से परिचित भारत और अन्य देशों के नीति निर्माता, आमतौर पर अपनी उदासीनता दिखाते हुए बेहतर परिणाम की उम्मीद करेंगे. लेकिन इस बार स्थिति थोड़ी अलग है. ये पूरा उपक्रम चीन के धन से संचालित है. इसका मतलब यही है कि चीन ने एक सेना खरीद ली है, जिसके साथ एक राष्ट्र भी संलग्न है.

शासन और नौकरशाही

एक स्तर पर, ये सच है कि लगभग सतत सैन्य प्रभुत्व के कारण पाकिस्तान की नौकरशाही में आरामदायक पदों पर सेवारत और सेवानिवृत दोनों ही तरह के सैनिक अधिकारियों को नियुक्त किया जाता रहा है. यहां तक कि लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो जैसे नेता ने भी विभिन्न स्तरों के 83 पदों पर सैनिक अधिकारियों की सीधी भर्ती (लैटरल एंट्री) की थी. ज़ियाउल हक़ ने और भी आगे बढ़ते हुए आज्ञाकारी सैनिक अधिकारियों को अपनी सरकार में शामिल करने के लिए रक्षा सेवा चयन बोर्ड का गठन किया था. जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के कार्यकाल में ‘राष्ट्रीय पुनर्संरचना ब्यूरो’ के ज़रिए हर स्तर पर सैनिक अधिकारियों को नियुक्त किया गया, जिसके पीछे यह आम धारणा थी कि एक औसत सैनिक अधिकारी अपने असैनिक समकक्ष से बेहतर होता है.

लेकिन इमरान ख़ान सरकार ने असैनिक पदों पर सैनिक अधिकारियों की नियुक्ति के मामले सभी को पीछे छोड़ दिया है. हाल की एक रिपोर्ट में असैनिक सरकार के ऊपर सेना के नियंत्रण को रेखांकित किया गया है — पाकिस्तान इंटरनेशनल एयरलाइंस का प्रमुख एक एयर मार्शल है, नया पाकिस्तान आवास एवं विकास प्राधिकरण की शीर्ष टीम में एक मेजर जनरल और एक ब्रिगेडियर शामिल हैं, गृह मंत्री ब्रिगेडियर एजाज़ शाह समेत पांच केंद्रीय मंत्रियों का सेना से संबंध है, पोर्ट क़ासिम ऑथिरिटी का अध्यक्ष एक सेवानिवृत रियर एडमिरल है, तथा जल एवं ऊर्जा विकास प्राधिकरण का प्रमुख एक सेवानिवृत लेफ्टिनेंट जनरल है. हाल तक सूई सदर्न गैस कंपनी का प्रमुख भी एक सेवानिवृत सैनिक अधिकारी ही था. सेना आज हर तरफ है, उसके लिए इतनी अच्छी स्थिति पहले कभी नहीं रही थी. विशेषकर इसलिए कि इन सारे विभागों के कार्यक्षेत्र में चीनी निवेश भी शामिल है.

सेना का प्रभाव बढ़ाने वाले कानून

जैसे इतना भर ही काफी नहीं था कि संसद में ऐसे कानून लाए गए जोकि राजनीतिक सत्ता को और कमज़ोर करते हैं. इनमें भारतीय समुद्री सीमा के पास सक्रिय पाकिस्तान समुद्री सुरक्षा एजेंसी (पीएमएसए) का नियंत्रण प्रधानमंत्री कार्यालय से वापस लेने वाला कानून शामिल है. इसकी वजह ये बताई गई कि सरकार नहीं चाहती है कि पीएमओ खुद को ‘साधारण’ कार्यों में उलझाए. इसी तरह वित्तीय कार्रवाई कार्यबल (एफएटीएफ) की अपेक्षाओं के अनुरूप धनशोधन विरोधी कानून 2010 में संशोधन किया गया, जिसमें अन्य बातों के अलावा बिना वारंट गिरफ्तारी का भी प्रावधान है, और जो राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो और अन्य जांच एजेंसियों की शक्तियों को बढ़ाता है. साफ तौर पर, इसका उद्देश्य विपक्षी नेताओं को घुटने टेकने पर मजबूर करना था.

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इसके अलावा सोशल मीडिया पर नियंत्रण के लिए नए कानून लाए गए हैं जो सरकार को ये तय करने की असीमित शक्ति देते हैं कि कौन सी बातें ‘अतिवाद’ के तहत आएंगी और किन बातों को ‘आपत्तिजनक’ माना जाएगा. साथ ही, शकीलुर्ररहमान जैसी मीडिया की प्रमुख हस्तियों को गिरफ्तार किया गया है तथा डॉन और अन्य मीडिया कंपनियों को डराया-धमकाया जा रहा है, ताकि मीडिया को चुप कराया जा सके. संसद वास्तव में प्रभावी नहीं रह गई है, आमतौर पर साहसिक रहे मीडिया का मुंह बंद कर दिया गया है और सोशल मीडिया पर पाबंदियां लगा दी गई हैं. यानि ज़्यादा कुछ बचा नहीं रह गया है.

राष्ट्रीय स्तर पर प्रबंधन

खुद सीपेक का उदाहरण उल्लेखनीय है. पाकिस्तानी सेना ने 2015 में इस परियोजना को हथियाने की कोशिश की थी, लेकिन तत्कालीन नवाज़ शरीफ़ सरकार उसकी राह में बाधक बनी हुई थी. लेकिन प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने पूरी तरह घुटने टेक दिए. सीपेक को 2019 में राष्ट्रपति के एक आदेश के ज़रिए सेना के अधीन कर दिया गया. सेवानिवृत जनरल असीम सलीम बाजवा ‘सीपेक प्राधिकरण’ के प्रमुख हैं, और इस कारण चीन सरकार और संबंधित कंपनियों से उनका सीधा लेनदेन है.

अगस्त 2020 में एक घोटाला सामने आया. ये पता चला कि बाजवा की अमेरिका और पाकिस्तान में अरबों की संपत्ति है. एक तथ्यान्वेषी रिपोर्ट के अनुसार, उनकी पत्नी फ़ारूख ज़ेबा ‘85 कंपनियों से या तो संबद्ध हैं या उनमें शेयरधारक हैं, जिनमें से 82 विदेशी (71 अमेरिकी, 7 अमीराती और 4 कनाडाई) कंपनियां हैं.’ ज़ेबा के पूरे परिवार की रंक से राजा बनने की कहानी है, और ये सब तब हुआ जब उनके पति की पाकिस्तानी सेना के भीतर हैसियत धीरे-धीरे बढ़ रही थी. घोटाला सबके सामने आ जाने के बावजूद जनरल बाजवा सीपेक से संबंधित सारा कामकाज संभालते रहे.

राष्ट्रपतीय आदेश की अवधि मई में समाप्त हो जाएगी, और उसके बाद नए कानून के ज़रिए प्रस्तावित प्राधिकरण को पहले से भी अधिक अधिकार मिल जाएंगे. यह सीपेक से ‘प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष’ ढंग से जुड़े किसी भी व्यक्ति या संगठन से कोई भी ‘प्रासंगिक जानकारी’ और ‘सहायता या सुविधा’ मांग सकता है, और इस कार्य के लिए प्रांतों को विशेष अधिकारियों की नियुक्ति करनी होगी. प्राधिकरण को सार्वजनिक पदों पर बैठे अधिकारियों की जांच का अधिकार होगा, जिन्हें उसके साथ सहयोग करना होगा. प्राधिकरण के अधिकारियों को राष्ट्रीय जवाबदाही ब्यूरो और अन्य जांच एजेंसियों के खिलाफ उन्मुक्ति प्राप्त होगी. स्पष्ट है कि इसके ‘चेयरमैन जनरलों’ द्वारा अर्जित संपत्तियों की आगे से कोई जांच नहीं होगी. नया कानून ऐसे समय आया है जब सरकार ने सबसे महंगी सीपेक परियोजना को मंजूरी दी है, जोकि मुख्यतया चीन द्वारा वित्तपोषित रेलवे के आधुनिकीकरण की 6.8 अरब डॉलर की परियोजना है. साथ ही, सीपेक के तहत पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में 3.9 अरब डॉलर की पनबिजली परियोजनाओं को भी स्वीकृति दी गई है.

राष्ट्रीय स्तर की बुनियादी ढांचा परियोजनाएं

पाकिस्तान की लगभग सारी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का श्रेय फ्रंटियर वर्क्स ऑर्गनाइजेशन (एफडब्ल्यूओ) को दिया जा सकता है, जोकि सीपेक राजमार्गों के पश्चिमी और पूर्वी हिस्सों के निर्माण में भी शामिल है, और जिसकी कमान एक मेजर जनरल के हाथों में है. डन एंड ब्रैडस्ट्रीट के अनुसार इस संगठन की अनुमानित आय 38 लाख डॉलर है और इससे 56 कंपनियां संबद्ध हैं. एफडब्ल्यू पसंदीदा कंपनियों और अर्धसैनिक बलों से अपने काम करवाता है. हाल ही में बलूचिस्तान में सीपेक की परियोजनाओं में, जोकि एफडब्ल्यूओ के अधीन आती हैं, बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के आरोपों में फ्रंटियर कॉर्प्स के 40 अधिकारियों को निलंबित किया गया था.

पाकिस्तानी सेना की वेबसाइट के अनुसार एफडब्ल्यूओ पाकिस्तान रेलवे की मुख्य मालवाहक रेल लाइन के निर्माण के अलावा ताप बिजली और पनबिजली परियोजनाओं तथा स्कार्दू और वाना में हवाई पट्टियों के निर्माण से भी जुड़ा है. इसकी एक शाखा सामरिक महत्व के खनन का काम देखती है जिनमें परमाणु एवं मिसाइल परियोजनाओं के लिए अहम मोलिब्डेनम का खनन भी शामिल है. उसके कार्यों में सोना और तांबे का खनन भी शामिल है. ये सब प्रभाव बढ़ाने वाली परियोजनाएं हैं क्योंकि इससे संबंधित काम विभिन्न कॉरपोरेट कंपनियों को आउटसोर्स किए जाते हैं, जिनमें से अनेक अक्सर राजनीतिक नेताओं या उनके रिश्तेदारों के होते हैं. उल्लेखनीय है कि ट्रांसमिशन से संबंधित सीपेक परियोजना से जुड़े एक बड़े घोटाले में इमरान ख़ान के दो करीबी सहयोगियों के नाम भी सामने आए हैं.

उपरोक्त कार्यों के साथ-साथ पाकिस्तानी सेना के लॉजिस्टिक्स और दूरसंचार से जुड़े उद्यम भी हैं. सेना के नेशनल लॉजिस्टिक्स सेल का प्रबंधन सेवारत अधिकारी संभालते हैं, लेकिन उसमें 6,500 से अधिक असैनिक कर्मचारी भी काम करते हैं, जिनमें से ज़्यादातर सेवानिवृत सैनिक अधिकारी हैं. यह संगठन 2,000 से अधिक भारी वाहनों का संचालन करता है. यह 1980 के दशक में इंटरसर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) के साथ मिलकर नशीले पदार्थों की खेप अफगानिस्तान से पाकिस्तान पहुंचाने के काम में शामिल रहा था. इसी तरह एक और उपक्रम है विशेष संचार संगठन (एससीओ), जिसने हुवावे के साथ मिलकर रिकॉर्ड समय में पाकिस्तान-चीन ऑप्टिकल फाइबर केबल परियोजना को पूरा किया है. कहने की ज़रूरत नहीं कि एससीओ का संचालन पूरी तरह से पाकिस्तानी सेना के हाथों में है. यह संचार लाइन पीओके से होकर गुजरती है, लेकिन बेहतर कनेक्टिविटी की छात्रों की व्यापक मांग के बावजूद जनता को इसकी सेवा नहीं के बराबर सुलभ कराई गई है. इसका लाभ अंतत: ग्वादर बंदरगाह को, और विभिन्न रक्षा संचार एवं उपग्रह संस्थानों को मिलेगा.

इसके अलावा भी बहुत कुछ है, जैसे ये तथ्य कि सेना करीब 50 अन्य बड़े व्यवसाय भी संचालित करती है जिनमें चीनी मिल और स्टड फार्म शामिल हैं. इन सबके कारण सैनिक अधिकारियों की जेबें गरम रहती हैं. पाकिस्तान अब एक तरह से सैनिक शासन के अधीन है जोकि चीन को, और शायद अमेरिका को भी, भा रहा होगा. इसकी वजह भी है, क्योंकि स्मार्ट वर्दीधारी एक व्यक्ति से लेनदेन करना, छोटी-छोटी बातों पर झगड़ते नेताओं के झुंड के साथ सौदेबाज़ी के मुकाबले कहीं आसान जो होता है. लेकिन अमेरिका को पुनर्विचार करने की ज़रूरत है. चीनी पैसे पर मौज करती पाकिस्तानी सेना हर तरह से बुरी खबर है, चाहे मैंडरिन में कही जाए या पंजाबी या अंग्रेजी में. जहां तक भारत की बात है, तो दो मोर्चों पर एक साथ लड़ाई की आशंका वास्तविकता के और करीब पहुंच चुकी है.

लेखिका राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय की पूर्व निदेशक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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