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Friday, 19 April, 2024
होममत-विमतचीन को बाहर रखने के लिए अमेरिका को मालदीव में आने देना महंगा पड़ सकता है. ऐसा क्यों कर रहा है भारत?

चीन को बाहर रखने के लिए अमेरिका को मालदीव में आने देना महंगा पड़ सकता है. ऐसा क्यों कर रहा है भारत?

रक्षा और सुरक्षा फ्रेमवर्क पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद माइक पोम्पियो का मालदीव में दूतावास खोलने का ऐलान, 2013 के बाद से भारत की नीति में एक बड़ा बदलाव है.

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टू प्लस टू मीटिंग के लिए नई दिल्ली के अपने हालिया दौरे में चीन के साथ टकराव में भारत के साथ खड़े होने का वादा करने के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने मालदीव और श्रीलंका में भी यही भावनाएं व्यक्त कीं, जिससे बीजिंग ज़रूर चिढ़ गया होगा. राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के साथ मुलाक़ात में पोम्पियो ने कहा कि चीन मालदीव सिर्फ आराजकता लाया था, हालांकि एक छोटे से देश के नाते, जो चीन के एक अरब डॉलर से अधिक का क़र्जदार है, ख़ुद राष्ट्रपति ने बीजिंग का नाम तक नहीं लिया.

लेकिन जो बात अहम थी वो ये कि मालदीव से 54 वर्षो के राजनयिक रिश्तों के बाद अब जाकर पोम्पियो ने द्वीपसमूह में दूतावास खोलने का ऐलान किया. अब इस पर चीन को विचार करना है. रक्षा व सुरक्षा फ्रेमवर्क पर दस्तख़त किए जाने के साथ मिलकर इस क्षेत्र में ये एक बड़ा बदलाव है और 2013 के बाद से ये भारतीय नीति में भी एक अहम बदलाव है, जब नई दिल्ली ने इस क्षेत्र में अमेरिकी मौजूदगी का कड़ा विरोध किया था. तो आख़िर क्या बदल गया?

भारत ने बहुत एहतियात से इस बात को लीक किया, कि ‘रक्षा और सुरक्षा रिश्तों का फ्रेमवर्क’ माले में नई दिल्ली के अधिकारियों को (पहले?) दिखाया गया था. ये काफी दिलस्प है क्योंकि ये समझौता मालदीव की रक्षा मंत्री मारिया दीदी की अमेरिका की निजी यात्रा के दौरान, ख़ामोशी के साथ साइन किया गया था, अभी तक इसका ब्योरा उपलब्ध नहीं है.

भारत के विदेश मंत्रालय (एमईए) ने इस क़दम का ‘स्वागत’ किया और चौंकाने वाला बयान दिया कि ये समझौता सुरक्षा प्रदाता की भारत की भूमिका को ख़त्म नहीं करता बल्कि उसका पूरक है. ये एक कायापलट है, चूंकि 2013 में माले ने 10 साल के लिए, स्टेटस ऑफ फोर्सेज़ अग्रीमेंट साइन करने की कोशिश की थी, जिससे अमेरिकी सेनाओं को सभी 1,192 द्वीपों में एक ठिकाना और स्वतंत्र संचार व्यवस्था के साथ बहुत कुछ मिल सकता था. इसका पता तब चला जब वरिष्ठ मालदीव अधिकारियों को फ्लाइट से यूएसएस जॉन सी स्टेनिस पर ले जाया गया, जो एक परमाणु संचालित सुपर कैरियर था. ये सारा घटनाक्रम किसी जासूसी थ्रिलर फिल्म की तरह था. लेकिन नई दिल्ली की कड़ी आपत्ति के बाद, ये समझौता मिट्टी में मिल गया.

भारत की बदली मानसिकता

तो, अब क्या बदल गया? पहला ये, कि ये केवल चीनी निवेश के घातक प्रभाव का मुद्दा नहीं है, चूंकि ये 2012 में ही ज़ाहिर हो गया था, जब माले इंटरनेशनल एयरपोर्ट बनाने के काम में एक चीनी कंपनी का पक्ष लेते हुए भारत की इनफ्रास्ट्रक्चर कंपनी जीएमआर ग्रुप को तक़रीबन बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था. उसके नतीजे में हुआ ये कि नई दिल्ली, पूरी तरह नई सरकार के पीछे खड़ी हो गई और उसके बाद नए अनुदानों और क़र्ज़ों से उसने वहां अपने निवेश बढ़ा दिए. इसलिए इस सब के पीछे कारण यही लगता है कि चीनी दुश्मनी अब एक मानी हुई सच्चाई है और आकर्षक स्थानों पर हुए शिखर सम्मेलन, अतीत की तस्वीरों की तरह धूमिल पड़ते जा रहे हैं.

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दूसरा, राष्ट्रपति सोलिह के अंतर्गत मौजूदा मालदीव सरकार भरोसेमंद है और ज़ाहिर है कि उनके विदेश मंत्री अब्दुल्ला शाहिद ने, एक संतुलन बनाए रखने की कोशिश की और गर्मजोशी से पर्यटन (जिसका देश की जीडीपी में दो-तिहाई का योगदान है) में चीन के भारी योगदान का ज़िक्र किया. उनका ये बयान भारत की ओर से, ग्रेटर माले कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट की घोषणा के कुछ ही दिन बाद आया, जिसे अपनी तरह का सबसे बड़ा अकेला प्रोजेक्ट बताया गया था. इसके बाद विपक्षी गठबंधन ने विशाल भारत-विरोधी प्रदर्शन किए, जिसके नतीजे में द्विपक्षीय इतिहास में पहली बार, भारत के राजनयिक प्रतिष्ठानों की सुरक्षा के लिए, सशस्त्र बलों को बुलाना पड़ा. साफ ज़ाहिर है कि चीन या उसके हिमायती, वहां भारत का प्रभाव नहीं होने देंगे.


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तीसरा, हालांकि उसके बाद से राष्ट्रपति सोलिह ने, ‘संयुक्त महासागर अवलोकन केंद्र’ (जो चीनी शब्दावली में नौसैनिक चौकी होती है) के चीन के एक प्रस्ताव को रद्द कर दिया है, लेकिन केवल कुछ सौ नौटिकल माइल्स दूर स्थित भारत की रक्षा, भेंट में दिए गए दो एडवांस्ड लाइट हेलीकॉप्टर्स के कुछ पायलट्स, और अनियमित मेडिकल टीम के भरोसे, नहीं छोड़ी जा सकती. और न ही भारत किसी संप्रभु देश को चीनी युद्धपोतों का सत्कार करने से रोक सकता है, जैसा कि माले ने 2017 में किया था. निश्चित रूप से अमेरिकी युद्धपोत की स्थाई मौजूदगी उसे रोकेगी; लेकिन पेंच यही है. चीनी मौजूदगी की दूर की संभावना के मुक़ाबले, कोई भी अमेरिकी मौजूदगी अब कहीं अधिक स्थाई है. चीनियों को मालदीव से बाहर रखने के लिए, ये एक भारी क़ीमत दिखाई पड़ती है.

पार्टी की तैयारी

इस समय कोई भी क़ीमत मंज़ूर होगी. विश्व बैंक भारत की जीडीपी में 9.6 प्रतिशत गिरावट की अपेक्षा कर रहा है. सार्वजनिक ऋण-जीडीपी अनुपात बढ़कर 90 प्रतिशत हो जाने की संभावना है. लद्दाख़ में चीन के खिलाफ टकराव में रक्षा ख़र्च को छोड़ दें, तो भी ये एक भयावह स्थिति है. जीडीपी के 2.1 प्रतिशत हिस्से के साथ, रक्षा बजट अभी भी मंदी का शिकार है. ऐसा लगता है कि संकट के समय, चीन के ख़िलाफ समुद्री विकल्प को संचालित करने का एकमात्र रास्ता यही है, कि हिंद महासागर में दुनिया की सबसे ताक़तवर नौसेना की मौजूदगी को सहमति दे दी जाए. 2+2 को जोड़कर ज़रूरी संख्या हासिल करने का मतलब है, कि अमेरिकी नौसैनिक जहाज़ों के माले पर लंगर डालने की अपेक्षा की जा सकती है, प्रकट रूप से ‘समुद्री लूट-विरोधी मिशंस’ के लिए, एक अमेरिकी राजदूत अपना आवास स्थापित करेगा, जो फिलहाल के लिए कही अधिक अनुभवी भारतीय मिशन के साथ का करेगा.

इस बीच, चारों बुनियादी समझौतों पर हस्ताक्षर होने के साथ ही, एक संभावना है कि केस-टु-केस बेसिस पर सही भू-स्थानिक जानकारी साझा की जा सकती है. दूसरे शब्दों में, अमेरिका वही साझा करेगा जो उसे उचित लगेगा. पाकिस्तान के बारे में ख़ुफिया जानकारी में कोई भारी बदलाव की अपेक्षा मत कीजिए. चीन के मामले में भी, मसलन, मिसाइल लॉन्च के लिए दिया गया डेटा, चयनात्मक हो सकता है. लेकिन इससे दिल्ली को संकट के समय में, संभावित ही सही, लेकिन एक बहुमूल्य ताकत मिल सकती है.

ये सब चीज़ें इसे एक लगभग खुला हुआ सा गठबंधन बना देती हैं. इसमें निश्चित रूप से भारत के प्रभाव क्षेत्र को बनाए रखने में, पिछली सरकारों के संदेहों को दरकिनार किया जा सकता है. ‘नेट सुरक्षा प्रदाता’ की भाषा भी भूल जाईए. उस दिशा में जो भी सहायता चाहिए, वो अमेरिकी दूतावास से उपलब्ध है.

इस बीच, उज्जवल पक्ष देखिए. चीनी मिशन ने पोम्पियों के बयानात पर नाराज़गी ज़ाहिर की है, और ग्लोबल टाइम्स ने चिढ़कर लिखा है, कि अमेरिकी मौजूदगी से चीन की बजाय भारत को ख़तरा होगा. बीजिंग को समुद्र में भीड़ बढ़ने के लिए तैयार रहना चाहिए. जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे दूसरे क्वॉड सदस्य भी वहां आ सकते हैं. कुल मिलाकर, एक पार्टी की तैयारी हो रही है. उम्मीद है कि भारतीय मिशन उसमें डिस्क जॉकी होगा.

(लेखक राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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