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Friday, 20 December, 2024
होमविदेश'टॉप सीक्रेट' से लेकर ट्विटर तक, यूक्रेन युद्ध ने कैसे ग्लोबल स्पाई एजेंसियों को 'इन्फ्लुएंसर्स' में बदला

‘टॉप सीक्रेट’ से लेकर ट्विटर तक, यूक्रेन युद्ध ने कैसे ग्लोबल स्पाई एजेंसियों को ‘इन्फ्लुएंसर्स’ में बदला

युद्ध ने वैश्विक खुफिया जानकारियां गोपनीय रखने की प्रकृति को बदल दिया है, और एमआई-6 और सीआईए जैसी खुफिया एजेंसियों के प्रमुख जैसे शीर्ष जासूस जानकारियां सार्वजनिक तौर पर साझा कर रहे हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि इसका मुख्य उद्देश्य प्रभावित करना है.

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नई दिल्ली: सरकारी जासूस न तो दिखने चाहिए और न ही उनकी बातें किसी को पता चलनी चाहिए—हालिया समय तक अंतरराष्ट्रीय खुफिया एजेंसियों के लिए यह एक सामान्य प्रोटोकॉल था. लेकिन पिछले छह माह से जारी रूस-यूक्रेन युद्ध ने सूरत एकदम बदल दी है.

एक तरफ यूक्रेन की जमीन पर विनाश और मौत का तांडव जारी है, तो दूसरी तरफ रूस और पश्चिमी देशों के बीच साइबर स्पेस में इन्फॉर्मेशन वार छिड़ चुकी है. इस युद्ध को लेकर अपने-अपने तर्क-वितर्कों के बीच वैश्विक स्तर पर जासूसी की गोपनीय प्रकृति एकदम बदल गई है. हमेशा गोपनीय तौर पर काम करने वाले जासूस अब सूचनाएं सार्वजनिक तौर जाहिर करते नजर आ रहे हैं.

युद्ध के शुरुआती दिनों से हर रोज की इंटेलिजेंस ब्रीफिंग, जंग के मैदान के अपडेट और ट्विटर पर विस्तृत जानकारी सब कुछ अमेरिकी और ब्रिटिश एजेंसियों की तरफ से जारी की जाती रही है, जबकि पहले यह सब ‘टॉप सीक्रेट’ डोजियर तक ही सीमित होती थी, जिन्हें सिक्योरिटी क्लीयरेंस के एक स्तर से ऊपर केवल सरकारों के बीच और उनके भीतर ही साझा किया जाता था.

उदाहरण के तौर पर, पिछले माह के अंत में ब्रिटिश खुफिया एजेंसी एमआई-6 के प्रमुख रिचर्ड मूर ने ट्वीट किया कि रूस यूक्रेन में ‘कमजोर पड़ने लगा है.’ इसी तरह, अमेरिका की सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) के निदेशक विलियम बर्न्स ने भी सार्वजनिक तौर पर जुलाई तक युद्ध के कारण 15,000 रूसियों की मौत का अनुमान लगाया.

भारत की रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के एक पूर्व अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘वैश्विक स्तर पर खुफिया जानकारियां सार्वजनिक रूप से साझा करने की यह प्रवृत्ति नई है.’

भारतीय खुफिया ब्यूरो (आईबी) के एक पूर्व विशेष निदेशक यशोवर्धन आजाद ने कहा कि यूक्रेन युद्ध ने ‘खुफिया मामलों पर एक नए और अलग तरह के दृष्टिकोण को जन्म दिया है’ लेकिन इस सब पर विशेष सावधानी बरतने की जरूरत है.

उन्होंने कहा, ‘वैश्विक खुफिया जानकारियों को सीक्रेट और गोपनीय रखने की प्रकृति बदल गई है. इसके नतीजे विनाशकारी और रचनात्मक दोनों ही तरह के हैं और यह इस पर निर्भर करता है कि आप इसे किस तरह लेते हैं.’


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‘प्रभाव’ के लिए खुफिया जानकारी का इस्तेमाल

आजाद ने कहा कि आम तौर पर युद्धक्षेत्र से जुड़े गोपनीय अपडेट, सुरक्षा और हथियार संबंधी आकलन और रूसी हताहतों के आंकड़ों को लेकर अनुमान आदि को लगातार सार्वजनिक करना निश्चित तौर पर पश्चिमी देशों की तरफ से इस युद्ध संबंधी नैरेटिव को नियंत्रित करने के प्रयासों  का हिस्सा है.

हालांकि, कुछ विद्वानों का मानना है कि यह सब इससे बहुत आगे की बात भी है.

ब्रिटेन स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रैटेजिक स्टडीज (आईआईएसएस) की द्वि-मासिक पत्रिका सर्वाइवल में इसी माह प्रकाशित एक पेपर में शोधकर्ता ह्यू डायलन और थॉमस मैगुइरे लिखते हैं, ब्रिटिश और अमेरिकी सरकारें न केवल सार्वजनिक स्तर पर समर्थन जुटाने, बल्कि स्टेट और नॉन-स्टेट भागीदारों और प्रॉक्सी ताकतों के ‘निर्णय लेने, कोई कदम उठाने और यहां तक कि वैश्विक दृष्टिकोण को प्रभावित करने तक के लिए खुफिया जानकारी का इस्तेमाल’ कर रही है.

उन्होंने लिखा, खुफिया जानकारी को इस तरह इस्तेमाल किए जाने का एक और मकसद है लगातार बढ़ते और ‘अमूमन गोपनीय’ रहने वाले खतरों को लेकर जागरूकता पैदा करना.

खुफिया क्षेत्र में अपनी सेवाएं दे चुके एक पूर्व वरिष्ठ भारतीय राजनयिक ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट से कहा कि खुफिया जानकारी को सार्वजनिक तौर पर जाहिर करने के तीन अलग-अलग लक्ष्य हैं.

उन्होंने कहा, ‘युद्ध के शुरुआती दिनों के दौरान खुफिया जानकारी पब्लिक डोमेन में लाने की पश्चिमी खुफिया एजेंसियों की हड़बड़ी के पीछे तीन प्रमुख फैक्टर माने जा सकते हैं—पहला यह दिखाना युद्ध रूस के लिए कोई वाकओवर नहीं था. दूसरा, रूस की तरफ से अपने नागरिकों के बीच बनाई जा रही धारणा की विसंगतियों को सामने लाना और तीसरा, यह दिखाना कि यूक्रेन अपनी संप्रभुता की रक्षा करने में सक्षम बना हुआ है.

हालांकि, पूर्व राजनयिक ने यह भी कहा कि खुफिया जानकारियों को इस तरह सार्वजनिक करने उद्देश्य केवल यूक्रेन की सहायता करना ही नहीं था, बल्कि पश्चिमी देशे अपने एजेंडे को भी आगे बढ़ा रहे थे. कुछ टिप्पणीकारों का मानना है कि दरअसल इसके पीछे एक मंशा यह भी रही है कि मास्को में पुतिन के एकाधिकार को कमजोर किया जा सके.


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चेताने के लिए किया इस्तेमाल

इंटेलिजेंस इंफॉर्मेशन का एक और उपयोग ‘रणनीतिक चेतावनी’ के लिए हुआ, जिसे इस साल 24 फरवरी को यूक्रेन पर हमले के लिए सार्वजनिक तौर पर जाहिर नहीं किया गया था.

उदाहरण के तौर पर दिसंबर 2021 में अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी जे. ब्लिंकन ने रूस को चेताया था कि अगर उसने यूक्रेन पर हमला किया तो उसे ‘गंभीर नतीजे’ भुगतने होंगे. ये टिप्पणियां ऐसे समय पर की गईं जब द वाशिंगटन पोस्ट जैसे मीडिया घरानों ने खुफिया सूचनाओं के आधार पर खबरें चलाईं कि रूस ने यूक्रेन की सीमा के पास अपने सैनिकों का जमावड़ा बढ़ाया है.

खुफिया जानकारियों के इस ट्रेंड ने यूक्रेन को देश की रक्षा के लिए अपने सहयोगियों से मदद की प्रतिबद्धता सुनिश्चित कराने का समय दे दिया. उसने लड़ाई के लिए बड़ी मात्रा में हथियारों और गोला-बारूद जुटाने की कवायद भी तेज कर दी. अंतत: इसने यूक्रेन और पश्चिम के सामने इस जंग की एक तस्वीर स्पष्ट कर दी.

हालांकि, इनपुट्स की वजह से न तो पुतिन ने ही अपने कदम पीछे खींचे और न ही कोई त्वरित समाधान निकल सका. ऐसे में विद्वानों का तर्क है कि दीर्घकालिक स्तर पर, संघर्ष रोकने के लिए खुफिया जानकारियों को ओपन सोर्स में डालने को सरकारों के लिए किसी प्रभावी रणनीति के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए.

पूर्व भारतीय राजनयिक ने कहा, ‘अब इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि इस खुफिया जानकारी का इस्तेमाल शांति बहाली के लिए कैसे किया जा सकता है.’


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खुफिया सूचनाएं जाहिर होने का नफा-नुकसान

खुफिया जानकारियों का इस्तेमाल पहले भी कुछ कार्रवाइयों को लेकर समर्थन जुटाने के उद्देश्य से पब्लिक नैरेटिव बनाने में किया गया है, जैसे 2003 के हमले से पहले इराक में सामूहिक विनाश के हथियारों की थ्योरी को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया, वहीं, क्यूबा मिसाइल संकट के दौरान भी अमेरिका ने खुफिया जानकारी का सार्वजनिक प्रसार किया.

हालांकि, यूक्रेन युद्ध के दौरान खुफिया सूचनाएं सार्वजनिक करने का पैमाना, तरीका और निहितार्थ ‘इवोल्यूशनरी’ रहा है और अतीत की तुलना में अधिक सफल रहा है. विद्वान डायलन और मैगुइरे कहते हैं कि युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार होने के क्रम में रूस के नैरेटिव को कमजोर करने के लिए खुफिया जानकारी के इस टेम्पलेट का सफल इस्तेमाल, खुफियागिरी का यह स्वरूप भविष्य के संकटों को लेकर काफी अहम हो सकता है.

अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा मंच वॉर ऑन द रॉक्स में प्रकाशित एक विश्लेषण में सुरक्षा विद्वानों ने तर्क दिया कि पश्चिम में खुफिया जानकारी में सार्वजनिक पहुंच और पारदर्शिता के निर्माण के साथ-साथ उपग्रहों और इमेजरी के माध्यम से बढ़ी ओपन-सोर्स इंटेलिजेंस तकनीक की उपलब्धता ने राजनेताओं, राजनयिकों और मीडिया के लिए युद्ध को लेकर सार्वजनिक संवाद में खुफिया सूचनाओं के उपयोग को संभव बना दिया है.

हालांकि, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह गोपनीय सूचनाएं सार्वजनिक होने के फायदे से ज्यादा नुकसान है. बाहरी ताकतों को इस तरह की संवेदनशील जानकारी मिलना जोखिम भरा हैं, जिससे दुश्मनों को सुराग मिल सकते हैं और उन्हें अपनी गतिविधियां बेहतर ढंग से आगे बढ़ाने में मदद मिल सकती है.

इस साल की शुरू में वैश्विक सुरक्षा पर एक भाषण में ब्रिटेन की इलेक्ट्रॉनिक खुफिया एजेंसी सरकारी संचार मुख्यालय (जीसीएचक्यू) के प्रमुख जेरेमी फ्लेमिंग ने स्वीकार किया था कि जिस ‘तेजी और पैमाने’ पर गोपनीय खुफिया जानकारी साझा की जा रही है, वह ‘अभूतपूर्व’ है, लेकिन साथ ही कहा था ‘खुफिया जानकारी एकत्र करना तभी सार्थक है, यदि हम इसका उपयोग करें.’

सीआईए के पूर्व निदेशक लियोन पैनेटा, माइकल हेडन और जॉन ब्रेनन भी ‘ओपेन इंटेलिजेंस’ के इस रूप की वकालत करते हैं.

रॉ के पूर्व अधिकारी ने कहा कि एक अच्छा संतुलन बनाए रखना महत्वपूर्ण होगा.

उन्होंने कहा, ‘इंटेलिजेंस की गोपनीय प्रकृति खत्म नहीं होगी. यह अभी भी जासूसी का एक अनिवार्य आधार होगा. हालांकि, सार्वजनिक रूप से खुफिया जानकारी का यह नया रूप बाकी दुनिया में फैल जाएगा.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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