पटना: बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रविवार को एक पूर्व आईएएस अधिकारी राम चंद्र प्रसाद (आरसीपी) सिंह के रूप में जनता दल यूनाइटेड के लिए एक नया राष्ट्रीय अध्यक्ष तलाश लिया जिन्होंने लगभग एक दशक पहले सक्रिय राजनीति में कदम रखा था.
आरसीपी और नीतीश कुमार जो अब तक इस पद पर रहे हैं— दोनों नालंदा के हैं. दोनों की मुलाकात तब हुई थी जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में नीतीश रेल मंत्री थे. समाजवादी पार्टी के नेता स्वर्गीय बेनी प्रसाद वर्मा ने आरसीपी को नीतीश से मिलवाया था और उनसे आरसीपी को अपना निजी सचिव बनाने का आग्रह किया था. इन तीनों के बीच एक साझा सूत्र था- उनका कुर्मी जाति का होना.
जाति ने आरसीपी की प्रगति, खासकर राजनेता के तौर पर, में एक भूमिका निभाई है. जदयू में नंबर दो नेता के रूप में उन्हें पार्टी का नेतृत्व करने और उसे संगठित करने का जिम्मा सौंपा गया है, वहीं गठबंधन सहयोगी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ भी संबंधों को उन्हें बेहतर बनाए रखना है.
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राजनीति में आने से पहले आईएएस
उत्तर प्रदेश कैडर में एक आईएएस अधिकारी के रूप में अपना करियर शुरू करने वाले आरसीपी सिविल सर्वेंट बनने से पहले ही दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में अपने साथियों के समूह के बीच किसी स्टार से कम नहीं थे.
उन्होंने 1970 के दशक में उस समय ही संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की सिविल सेवा परीक्षा पास कर ली थी, जब पटना विश्वविद्यालय में अपनी स्नातक की परीक्षा दे रहे थे. हालांकि, वह तब सेवा में शामिल नहीं हो पाए क्योंकि स्नातक के परिणाम समय पर नहीं आए थे.
इसके बाद वह जेएनयू में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में आ गए, जहां कम उम्र में ही यूपीएससी परीक्षा पास करने के कारण आईएएस बनने के इच्छुक उम्मीदवारों के बीच काफी लोकप्रिय हो गए. इस नेता के जेएनयू वाले एक साथी ने बताया, ‘आरसीपी ने आईएएस अधिकारी बनने के लिए दो साल बाद फिर परीक्षा दी.’
उन्होंने कहा कि आरसीपी हमेशा अपने राजनीतिक आकाओं की अपेक्षाओं पर खरे उतरते रहे और उत्तर प्रदेश में बनने वाली सरकारों में उन्हें बेहतरीन पोस्टिंग दी जाती रहीं.
बाद में केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के दौरान नीतीश कुमार के सचिव के तौर पर काम करते हुए आरसीपी उनके संकटमोचक बनकर उभरे, खासकर बिहार में रेलवे परियोजनाओं को लागू कराने के मामले में जहां विरोधी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल की सरकार थी.
इस दौरान ही आरसीपी ने नीतीश का विश्वास हासिल कर लिया. बाद में 2005 में जब नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री बने तो आरसीपी को साथ ले गए और उन्हें मुख्यमंत्री का प्रधान सचिव बनाया. आरसीपी के प्रति नीतीश का भरोसा इतना गहरा था कि जब बिहार में उनका कार्यकाल समाप्त हुआ, तो उन्हें सेवा विस्तार देने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिले.
2010 में आरसीपी ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली और बतौर राजनेता जदयू के साथ जुड़ गए. उन्हें उसी वर्ष राज्य सभा सदस्य के रूप में चुना गया और बाद में 2016 में फिर निर्वाचित हुए.
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नीतीश कुमार के लिए ‘छोटा भीम’
मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव के रूप में आरसीपी राज्य में सबसे शक्तिशाली सिविल सर्वेंट बन गए थे और कहा जाता है कि अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग में उनकी ही चलती थी.
जदयू नेताओं के अनुसार, एक सिविल सर्वेंट रहने के कारण आरसीपी ने राजनीति में दबदबा कायम किया. नतीजा यह कि नीतीश तक पहुंच नहीं होने के कारण पार्टी के विधायक, कार्यकर्ता और यहां तक कि मंत्री भी अपने काम कराने के लिए उनके घर पर जमे रहते. जदयू नेताओं और कार्यकर्ताओं ने ये देखते हुए कि पार्टी में वास्तव में वही नंबर 2 की हैसियत रखते हैं, आरसीपी को ‘छोटा भीम ’ का नाम दे दिया था.
नौकरशाही और राजनीति दोनों में अपनी शक्तियों के चलते आरसीपी भ्रष्टाचार के आरोपों में भी घिरे. राजद ने राज्य में व्याप्त भ्रष्टाचार के लिए ‘आरसीपी टैक्स’ जैसे शब्द गढ़े लेकिन आरसीपी ने इस पर पलटवार करते हुए सबूत मांगे.
उनके राजनीतिक कैरियर में तब कुछ समय के लिए जरूर ग्रहण लगता नज़र आया जब चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने और दोनों के बीच अभियान की रणनीति, भाजपा के साथ सीट बंटवारे जैसे मुद्दों को लेकर मतभेद सामने आए.
हालांकि, 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान किशोर ने यह कहते हुए पार्टी छोड़ दी कि वह चुनाव का जिम्मा ‘आरसीपी के सक्षम नेतृत्व’ पर छोड़ रहे हैं.
जदयू की कोर कमेटी में होने के नाते आरसीपी हमेशा उस टीम का हिस्सा रहे जो भाजपा के साथ सीटों के बंटवारे पर बात करती थी. पिछले साल लोकसभा चुनावों के बाद उन्हें जदयू के खाते से केंद्रीय मंत्री बनाने की तैयारी थी. लेकिन तब जदयू ने सहयोगी दलों के प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व के भाजपा के प्रस्ताव को खारिज कर दिया.
जदयू नेताओं का कहना है कि हालांकि, 2010 के बाद से आरसीपी की दिल्ली में लगातार मौजूदगी भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के साथ उनकी नजदीकी बढ़ाने में मददगार रही है.
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अब नीतीश कुमार को उनकी जरूरत क्यों है
2014 के लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन के बाद नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री का पद छोड़ दिया और जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया. लेकिन यह एक ऐसा निर्णय था जिस पर उन्हें पछताना पड़ा क्योंकि मांझी ने बाद में विद्रोह किया और अपनी पार्टी बना ली.
अब, उन्होंने आरसीपी को पार्टी अध्यक्ष चुना है क्योंकि उन्हें उन पर अटूट भरोसा है. अभी मुख्यमंत्री के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि कोई ऐसा नेता नहीं है जो भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के साथ तालमेल कायम कर सके.
पहले जब पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली जीवित थे तो नीतीश खुद ही समन्वय का जिम्मा संभाले रहते थे. इसके बाद पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी थे जो केंद्र सरकार के साथ मसलों और यहां तक कि गठबंधन से जुड़े गतिरोधों को सुलझा लिया करते थे.
अब, अपना कद घटने के बाद नीतीश के पास ऐसा कोई नहीं है. नतीजतन, वह मंत्रिमंडल का विस्तार भी नहीं कर पाए हैं क्योंकि बिहार में भाजपा की रणनीति तय करने वाले भूपेंद्र यादव जैसे नेताओं ने नीतीश से बात तक नहीं की है. ऐसे में केंद्रीय भाजपा नेतृत्व के साथ आरसीपी की निकटता ने उन्हें जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष की स्वाभाविक पसंद बना दिया है.
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