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Tuesday, 23 April, 2024
होममत-विमतNDA ने 2014 के बाद से अपना 19वां सहयोगी खोया, इसके बावजूद मोदी-शाह की जोड़ी क्यों बेपरवाह दिखती है

NDA ने 2014 के बाद से अपना 19वां सहयोगी खोया, इसके बावजूद मोदी-शाह की जोड़ी क्यों बेपरवाह दिखती है

साथ छोड़ने वाले सहयोगी दलों के प्रति मोदी और शाह की उदासीनता को अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार की भाजपा की योजनाओं तथा अवांछित और अतिरिक्त बोझ से छुटकारा पाने की उसकी तत्परता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए.

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राजस्थान में हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (आरएलपी) ने शनिवार को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का साथ छोड़ दिया, जो 2014 के बाद से सत्तारूढ़ गठबंधन छोड़ने वाली उन्नीसवीं पार्टी है. उनकी बताई वजह है- नरेंद्र मोदी सरकार को किसानों के हित की चिंता नहीं है.

एक दिन पहले जयपुर से 2,200 किलोमीटर दक्षिण चेन्नई में कमल हासन की मक्कल निधि मय्यम के महासचिव ए. अरुणाचलम ने भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने की ठीक उलट वजह बताई: कमल हासन कृषि कानूनों का समर्थन नहीं कर रहे थे.

नए कृषि कानूनों ने भारत के राजनीतिक वर्ग को दोफाड़ कर दिया है. राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (आरएलपी) से पहले, शिरोमणि अकाली दल ने सितंबर में एनडीए से नाता तोड़ लिया था. शुक्रवार को एनडीए का एक और घटक जनता दल (यूनाइटेड) गुस्से में बिलबिलाता दिखा क्योंकि अरुणाचल प्रदेश में उसके सात में से छह विधायकों ने भाजपा का दामन थाम लिया.

एनडीए की एक अन्य घटक पार्टी, तमिलनाडु में सत्तारूढ़ ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) यह नहीं जान पा रही है कि भाजपा आखिर क्या चाहती है. पिछले महीने अमित शाह की चेन्नई यात्रा के दौरान तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ई.के. पलानीस्वामी और उपमुख्यमंत्री ओ. पन्नीरसेल्वम ने घोषणा की थी कि एआईएडीएमके और भाजपा 2021 का विधानसभा चुनाव साथ मिलकर लड़ेंगे. भाजपा तब से एआईएडीएमके को अनिश्चय की स्थिति में रख रही है.

शुक्रवार को चेन्नई दौरे पर गए केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को इस बारे में सवालों की बौछार झेलनी पड़ी कि क्या भाजपा अगले चुनाव में पलानीस्वामी को एनडीए के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में स्वीकार करती है. जावड़ेकर जवाब नहीं दे सके. इसी तरह विधानसभा चुनावों से पूर्व असम में, राज्य में सत्तारूढ़ एनडीए के घटक बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट के हाग्रामा मोहिलरी को बोडोलैंड प्रादेशिक परिषद (बीटीसी) के चुनाव में भाजपा द्वारा उन्हें किनारा कर एक नए संगठन को बढ़ावा देने की बात समझ नहीं आ रही होगी.

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भाजपा के पूर्व और वर्तमान सहयोगियों से पूछेंगे तो सबकी एक जैसी शिकायत है: भगवा पार्टी गठबंधन धर्म का पालन नहीं करती. तो फिर ऐसा क्यों है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के मुख्य रणनीतिकार अमित शाह 19 सहयोगी गंवाने के बाद भी उनकी शिकायतें नहीं सुनते हैं? लगता नहीं कि पार्टियों के एनडीए छोड़ने से उन्हें कोई परेशानी है.


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सोच समझकर ली गई जोखिम

मोदी और शाह की उदासीनता को प्रभाव क्षेत्र के विस्तार की भाजपा की योजनाओं तथा अवांछित और अतिरिक्त बोझ से छुटकारा पाने की उसकी इच्छा के संदर्भ में देखा जाना चहिए. आइए उन 19 सहयोगियों के राजनीतिक या चुनावी उपयोगिता पर एक नज़र डालें जिन्हें भाजपा ने गंवा दिया या अलग होने दिया.

आरएलपी के हनुमान बेनीवाल का जाना भाजपा का नुकसान है लेकिन उतना बड़ा नहीं. अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा 1999 में राजस्थान के जाटों को आरक्षण देने की घोषणा के बाद से भाजपा ने नागौर, सीकर, झुंझनू, चूरू और कुछ अन्य जिलों समेत राज्य की जाट पट्टी में काफी पैठ बनाई है. हालांकि जाटों का भाजपा की ओर झुकाव शुरू होने के बावजूद, परसराम मदेरणा और शीशराम ओला जैसे अपने दिग्गजों और नागौर के प्रसिद्ध मिर्धा परिवार की बदौलत कांग्रेस ने इस समुदाय पर अपनी पकड़ बनाए रखी.

बेनीवाल ने पिछले चुनाव में ज्योति मिर्धा को हराया था लेकिन भाजपा के समर्थन के बिना उनकी कोई खास ताकत नहीं है. अपने तीन विधायकों के सहारे वह राजस्थान में भाजपा की योजनाओं के लिए अहम साबित हो सकते थे. लेकिन कांग्रेस नेता सचिन पायलट के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के दबदबे की स्थिति को स्वीकार करता दिखने के कारण, बेनीवाल निकट भविष्य में ज्यादा उपयोगी नहीं रह जाते हैं. अगला चुनाव तीन साल दूर है और भाजपा उन्हें अपना खेमा छोड़ने दे सकती है— कम से कम अभी के लिए.

आइए 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा के अन्य ‘नुकसानों’ पर नज़र डालते हैं— शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना और ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू).

1996 के बाद से, जब अकाली दल ने पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी सरकार का समर्थन किया था, पंजाब में गठबंधन में उसकी हैसियत हमेशा बड़े भाई की रही और भाजपा ने राज्य की 13 लोकसभा सीटों में से 3 और 117 विधानसभा सीटों में से 23 पर चुनाव लड़ा. यह हमेशा से एक गैरबराबरी वाला गठबंधन था. और वैसे भी मोदी की भाजपा अपने अलग रास्ते की संभावनाएं तलाश रही थी. महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ ब्रेकअप जल्दी ही होने वाला था. मोदी की अगुआई वाली पार्टी को अब एक क्षेत्रीय दल के साथ अपना हिंदुत्व समर्थक वर्ग साझा करने की आवश्यकता नहीं रह गई थी.

झारखंड में आजसू के साथ गठबंधन तब तक चला जब तक कि भाजपा को उसकी उपयोगिता थी. रघुबर दास सरकार के लिए 81 सदस्यीय विधानसभा में आजसू की पांच सीटें महत्वपूर्ण थीं क्योंकि सदन में भाजपा के खुद के केवल 37 सदस्य ही थे. लेकिन भाजपा को अपनी बैसाखियों से छुटकारा पाना था और इसलिए उसने 2019 के विधानसभा चुनावों में अधिक सीटों की आजसू की मांग को नहीं माना.

अब आइए 2014 और 2019 के बीच एनडीए छोड़ने वाले 15 दलों पर नज़र डालते हैं.

कुलदीप बिश्नोई की हरियाणा जनहित कांग्रेस (एचजेसी) 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद एनडीए छोड़ने वाली पहली पार्टी थी. उसका तीन साल बाद कांग्रेस में विलय हो गया. हरियाणा में 2014 के विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने और 2019 में फिर से सरकार बनाने के बाद निश्चय ही भाजपा को एचजेसी की गठबंधन से विदाई का अधिक अफसोस नहीं हो रहा होगा.

2014 और 2016 के बीच तमिलनाडु की तीन पार्टियों- पट्टाली मक्कल काची (पीएमके), देसिया मुरपोक्कु द्रविड़ कड़गम (डीएमडीके) और मारुमलारची द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एमडीडीके) ने भाजपा से नाता तोड़ा लेकिन इनमें से पहले दो 2019 के लोकसभा चुनावों से पूर्व भाजपा के पाले में लौट आए.

एआईएडीएमके को 2021 के विधानसभा चुनाव से पहले अनिश्चय की स्थिति में रखा जाना शायद अच्छा नहीं लगता हो लेकिन उसके पास ज्यादा विकल्प भी नहीं हैं. एक तो उसके पास जयललिता जैसा कोई करिश्माई नेता नहीं है और फिर उसके नेताओं को केंद्रीय एजेंसियों की जांच का भी सामना करना पड़ रहा है.

पड़ोसी राज्य केरल की बात करें तो वहां क्रांतिकारी सोशलिस्ट पार्टी ऑफ केरल (बोल्शेविक) और जनाधिपत्य राष्ट्रीय सभा (जेआरए) ने 2016 में एनडीए छोड़ दिया था. लेकिन भाजपा को बहुत परेशानी नहीं हुई होगी क्योंकि उसे राज्य में कोई सफलता वैसे भी नहीं मिल रही है.

किसान नेता राजू शेट्टी के स्वाभिमानी पक्ष ने 2017 में महाराष्ट्र में एनडीए का साथ छोड़ दिया लेकिन शायद ये भाजपा के लिए बड़ा नुकसान नहीं था. शेट्टी 2019 के लोकसभा चुनाव में खुद अपनी सीट शिवसेना के हाथों गंवा बैठे.

2018 में बिहार की कम से कम तीन पार्टियों- जीतनराम मांझी की हिंदुस्तान आवाम मोर्चा (हम), मुकेश साहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) ने एनडीए का साथ छोड़ दिया लेकिन इनमें से पहले दो 2020 के राज्य विधानसभा चुनावों के दौरान एनडीए में लौट आए. अपने दम पर, उनकी खुद की कोई बड़ी हैसियत नहीं है. भाजपा के सहयोगी के नाते वे अपने सीमित प्रभाव का विस्तार कर सकते थे.

टॉलीवुड अभिनेता पवन कल्याण की जन सेना पार्टी (जेएसपी) 2014 में तेलुगु देशम पार्टी-भाजपा गठबंधन के साथ थी, लेकिन 2019 में उन्होंने वाम दलों और बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन का विकल्प चुना. वह खुद दो विधानसभा सीटों पर हार गए. वह अब दोबारा भाजपा के साथ आ गए हैं और आंध्र की राजनीति में तीसरे विकल्प के रूप में उभरने की कोशिश कर रहे हैं.

2018 में नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) तब एनडीए से बाहर हो गया जब भाजपा ने नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी के साथ गठबंधन किया. अक्टूबर में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने 2021 का पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव तृणमूल कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ने के लिए एनडीए का साथ छोड़ दिया. लेकिन भाजपा गोरखालैंड राज्य के निर्माण के मुख्य लक्ष्य वाले एक सहयोगी के बिना काम चला सकती है क्योंकि यह लक्ष्य पश्चिम बंगाल में उसकी खुद की व्यापक योजना से मेल नहीं खाता है.

ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) ने भी एनडीए का साथ छोड़ दिया है लेकिन उत्तर प्रदेश में अपनी वर्चस्व की स्थिति के कारण भाजपा का उसके बिना काम चल सकता है. जहां तक कि तेलुगु देशम पार्टी के एनडीए छोड़ने की बात है तो आंध्र प्रदेश में अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार की भाजपा की योजना को देखते हुए देर-सबेर ऐसा होना तय था.


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असल मुद्दा

तो क्या भाजपा सहयोगी दलों के बिना बेहतर स्थिति में है? दिल्ली स्थित थिंक टैंक, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के संजय कुमार का मानना है कि भाजपा ऊंची जातियों के अपने पारंपरिक वोट बैंक से बहुत आगे तक अपने सामाजिक गठबंधन का ‘विस्तार’ करने में सक्षम है और इसलिए सहयोगियों पर उसकी निर्भरता बहुत कम है.

कुमार अपनी जगह सही हो सकते हैं लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या मौजूदा सामाजिक गठबंधन भाजपा के लिए पर्याप्त और विस्तृत है कि वह अपने सहयोगियों से किनारा करना शुरू कर दे. उदाहरण के लिए, 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में सीएसडीएस-लोकनीति के चुनाव बाद के सर्वे में जाहिर हुआ कि 33 प्रतिशत दलित महिलाओं और 27 प्रतिशत दलित पुरुषों ने एनडीए को वोट दिया था, जबकि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की अगुआई वाले गठबंधन के लिए ये आंकड़ा क्रमश: 24 और 31 प्रतिशत का था.

वास्तव में, इनमें से अधिकांश दलित मतदाताओं ने अन्य दलों के लिए मतदान किया था. इसी तरह अधिकांश गैर-यादव ओबीसी और अति पिछड़े वर्गों ने भी एनडीए को वोट दिया लेकिन पांच साल पहले 2015 के विधानसभा चुनावों में जब जदयू नेता नीतीश कुमार ने लालू यादव की राजद के साथ गठबंधन किया था तो इन समुदायों की पसंद अलग थी.

अमित शाह शायद इस तथ्य को लेकर सचेत हों कि भाजपा को बढ़त दिलाने वाले नए सामाजिक गठबंधन का समर्थन काफी कुछ मोदी की निजी लोकप्रियता के कारण है और जरूरी नहीं कि ये उनकी पार्टी के पक्ष में कोई स्थाई बदलाव हो. लेकिन इस पर हम किसी अन्य कॉलम में विचार करेंगे.

अभी की स्थिति तो ये है कि मोदी-शाह इन दर्जन भर दलों— वापस लौटने वालों को छोड़कर— के एनडीए छोड़ने को लेकर शायद ज्यादा परेशान न होंगे क्योंकि यह उनके विस्तारवादी एजेंडे के अनुकूल है.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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