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Friday, 29 March, 2024
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गुजरात भाजपा जबर्दस्त बगावत झेल रही, प्रत्याशी के ‘जीतने की क्षमता’ को टिकट का आधार बनाना बड़ी वजह

भाजपा उम्मीदवारों की सूची में कई मौजूदा विधायकों के नाम नहीं हैं. ‘नए चेहरों’ को तरजीह के साथ-साथ कांग्रेस से आए कई दलबदलुओं को भी टिकट मिला है, जिससे कम से कम 12 सीटों पर पार्टी में बगावत की स्थिति उत्पन्न हो गई है.

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अहमदाबाद: चुनावी टिकट न मिलने पर नेताओं का असंतुष्ट होना कोई नई बात नहीं है, लेकिन शायद यह पहला मौका है जब भाजपा को गुजरात में इतने बड़े पैमाने पर बगावत का सामना करना पड़ रहा है, जहां 1 दिसंबर और 5 दिसंबर को मतदान होने जा रहा है.

गुजरात, जहां भाजपा लगातार सातवीं बार जीतने की उम्मीद कर रही है, में आम तौर पर ट्रेंड यही रहा है कि पार्टी नेता कोई सवाल किए बिना हाईकमान के फैसले स्वीकार लेते हैं. आखिरकार, यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके लेफ्टिनेंट अमित शाह का गृह राज्य जो है. लेकिन इस बार कम से कम 12 सीटों पर पार्टी के अंदर बगावत के संकेत मिल रहे हैं.

असल संकट तब शुरू हुआ जब भाजपा ने इस महीने की शुरुआत में पार्टी उम्मीदवारों की पहली दो सूची—182 में से 166—जारी कीं. इसमें पार्टी ने मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल के मंत्रिमंडल के पांच मंत्रियों के अलावा विधानसभा अध्यक्ष निमाबेन आचार्य सहित 42 मौजूदा विधायकों का टिकट काट दिया गया था. इसके अलावा, जिन्हें टिकट मिला, उनमें से कई कांग्रेस से आए नेता हैं.

राज्य में पहले चरण की वोटिंग के लिए बुधवार को पर्चा भरने की आखिरी तारीख थी और तब तक असंतोष की यह लहर गांधीनगर स्थित राज्य भाजपा कार्यालय, श्री कमलम में पूरी तरह फैल गई थी. असंतुष्ट कैडर यहां पर जुटे और कुछ उम्मीदवार के चयन को लेकर उन्होंने एक सुर में अपनी आपत्ति दर्ज कराई. सूरत के नाराज कार्यकर्ताओं ने भी मंगलवार को जिले के चोरयासी निर्वाचन क्षेत्र के मौजूदा विधायक का टिकट कटने को लेकर यहां नारेबाजी की थी.

भाजपा के गांधीनगर कार्यालय के बाहर विरोध प्रदर्शन करते पार्टी कार्यकर्ता | फोटो: ट्विटर screengrab/GujaratTak

पार्टी का कहना है कि उम्मीदवारों के चयन में ‘जीतने की क्षमता’ को सबसे बड़ी योग्यता माना गया है, और जिन्हें इस लायक नहीं माना गया, उनमें से कुछ ने निर्दलीय उम्मीदवारों के तौर पर पर्चा भर दिया है.

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इनमें वाघोडिया से छह बार के विधायक मधु श्रीवास्तव भी शामिल हैं, जिन्होंने दिप्रिंट से कहा कि भाजपा ने उनकी ‘बलि दे दी. वहीं आदिवासी नेता हर्षद वसावा नंदोद (सुरक्षित) सीट से चुनाव लड़ेंगे, जिसे पहले राजपीपला के नाम से जाना जाता था. वसावा यहां से दो बार विधायक रह चुके हैं.

ऐसे उम्मीदवार को भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती माना जा रहा है, जिसे हिमाचल प्रदेश में भी इसी तरह की समस्या का सामना करना पड़ा. वहां गत शनिवार को मतदान के समय पार्टी के 21 बागी मैदान में थे.

गुजरात में पार्टी अब डैमेज कंट्रोल मोड में है. इसी क्रम में राज्य के मंत्री हर्ष सांघवी को पिछले हफ्ते वड़ोदरा भेजा गया, जहां कई जगहों पर असंतोष के सुर तेज हैं. हालांकि, उन्हें बगावत रोकने में कोई खास सफलता नहीं मिली. खुद गृह मंत्री अमित शाह भी इस हफ्ते गांधीनगर पहुंचे और उन्होंने कथित तौर पर नाराज नेताओं को शांत करने की कोशिश की. लेकिन क्या उनकी ये पहल सफल रहेगी, यह तो कुछ समय बाद ही पता चल पाएगा.

अगर हिमाचल की बात करें तो प्रधानमंत्री का फोन कॉल भी पूर्व सांसद किरपाल परमार को मनाने के लिए पर्याप्त साबित नहीं हुआ था और वह बतौर निर्दलीय मैदान में डटे रहे.

यद्यपि भाजपा की गुजरात इकाई के पदाधिकारियों का कहना है कि राज्य में स्थिति बहुत ज्यादा चिंताजनक स्तर तक नहीं पहुंची है, अन्य नेता मजबूत नेतृत्व के अभाव और दलबदलू कांग्रेस नेताओं को अपने पाले में लाने और ‘जीतने की योग्यता’ को आधार बनाकर उन्हें टिकट दिए जाने की ‘संस्कृति’ को लेकर गंभीर सवाल उठा रहे हैं. वहीं, विशेषज्ञ यह दावा भी करते हैं कि जातिवाद की राजनीति पार्टी के भीतर असंतोष को और भी भड़का सकती है.

आइये यहां एक नजर डालते हैं कुछ हाई-प्रोफाइल नेताओं की बगावत और उन पर काबू पाने के लिए पार्टी की तरफ से किए जा रहे प्रयासों पर. और साथ ही राजनीतिक पर्यवेक्षकों से यह जानने की कोशिश करते हैं कि आमतौर पर अनुशासित गुजरात कैडर में असंतोष फैलने के पीछे और क्या वजहें हो सकती हैं.

वडोदरा में क्यों भड़का असंतोष

नेताओं के असंतोष के मामले में सबसे ज्यादा हंगामा जिस जिले में मचा है, वो वड़ोदरा ही है. वाघोडिया विधायक मधु श्रीवास्तव तो सार्वजनिक रूप मोर्चा खोल बैठे हैं, जिन्हें हटाकर जिला इकाई अध्यक्ष अश्विन पटेल को चुनाव मैदान में उतार दिया गया है.

एक लैंड डेवलपर, फिल्म अभिनेता और चर्चित बाहुबली मधु श्रीवास्तव ने पार्टी छोड़ दी है और निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर मैदान में उतरने की घोषणा कर दी है.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘कुछ दिन पहले, एक वरिष्ठ नेता ने मुझे फोन किया और कहा कि वे एक पाटीदार नेता को मैदान में उतारना चाहते हैं. मैं उत्तर भारतीय पृष्ठभूमि से आता हूं और इसलिए उन्होंने मेरी बलि दे दी. मुझे विधायक बनाने वाले अब मुझ पर चुनाव लड़ने का दबाव बना रहे हैं.’

यहां भाजपा के नर्वस होने की कुछ वजहें भी हैं. श्रीवास्तव 1995 से ही वाघोडिया से विधायक हैं, जब पहली बार बतौर निर्दलीय उम्मीदवार जीते थे. उन्होंने और अन्य निर्दलीयों ने 1996 में सुरेश मेहता के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार गिराने में अहम भूमिका भी निभाई थी.

उन्होंने कहा, ‘उस समय, भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने मुझसे पार्टी ज्वाइन करने का अनुरोध किया और तबसे मैं उनके साथ ही रहा. पीएम मोदी से मेरे अच्छे संबंध हैं, लेकिन इस फैसले से कार्यकर्ता नाराज हैं. इसलिए मैं लड़ूंगा, मैं मर्द का बच्चा हूं.’

मधु श्रीवास्तव निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर प्रचार कर रहे हैं | फोटो: विशेष प्रबंधन

श्रीवास्तव ने राज्य के मंत्री हर्ष सांघवी से मिलने से इनकार कर दिया, जिन्हें आलाकमान ने बगावत शांत करने के लिए वड़ोदरा भेजा था.

संघवी और उनके साथ दूत बने राज्य भाजपा महासचिव भार्गव भट्ट के साथ डैमेज-कंट्रोल मीटिंग में शामिल होने से इनकार करने वाले वड़ोदरा के ही अन्य असंतुष्ट नेताओं में दिनेश ‘दीनू मामा’ पटेल और सतीश निशालिया शामिल हैं जो क्रमशः पाडरा और कर्जन के पूर्व विधायक हैं.

बड़ौदा डेयरी के अध्यक्ष दिनेश पटेल ने पाडरा से निर्दलीय चुनाव लड़ने का ऐलान किया है. उनकी नाराजी इस बात को लेकर है कि भाजपा ने लंबे समय से कट्टर विरोधी रहे पाडरा नगरनिगम पार्षद चैतन्य सिंह जाला को चुना.

वडोदरा में भाजपा के शहर अध्यक्ष विजय भाई शाह का कहना है कि पार्टी ने जाला को इसलिए चुना क्योंकि वो एक राजपूत उम्मीदवार चाहती थी. हालांकि, उन्होंने स्वीकार किया कि दीनू मामा के पास धनबल के अलावा कैडर का भी भरपूर समर्थन रहा है.

उन्होंने कहा, ‘वह अधिक पटेल वोट हासिल करके पार्टी वोटों में सेंध लगा सकते हैं क्योंकि अन्य उम्मीदवार (आप और कांग्रेस) भी राजपूत हैं.’

करजन में, भाजपा ने मौजूदा विधायक अक्षय पटेल को टिकट दिया है, जो 2020 में कांग्रेस छोड़कर पार्टी में आए थे. 2017 के चुनाव में उन्होंने भाजपा के सतीश पटेल को हराया था. और सतीश पटेल अब इस बात से नाराज हैं कि पार्टी ने उनकी जगह ‘कांग्रेस से आयातित’ नेता को चुना.

सतीश पटेल ने दिप्रिंट को बताया, ‘पार्टी कार्यकर्ता कांग्रेस से आने वाले दलबदलू नेताओं को तरजीह देने की बढ़ती संस्कृति से नाराज़ हैं. इस बार वे (भाजपा को) सबक सिखाएंगे.’

‘विश्वासघात’ का लगाया आरोप

नर्मदा जिले में, पूर्व विधायक हर्षद वसावा ने भाजपा अनुसूचित जनजाति मोर्चा अध्यक्ष के तौर पर अपना पद छोड़ दिया है और नंदोद सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में नामांकन कराया है, जहां मौजूदा विधायक कांग्रेस से हैं. वसावा 2002 में और फिर 2007 में यहां से विधायक चुने गए थे.

स्टैच्यू ऑफ यूनिटी यहां स्थित होने के मद्देनजर नंदोद सीट भाजपा के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई बन चुकी है, जिसने यहां पर दिवंगत पूर्व सांसद चंदू देशमुख की बेटी डॉ. दर्शना देशमुख को मैदान में उतारा है.

वसावा ने दिप्रिंट को बताया, ‘पार्टी ने एक प्रतिबद्ध कार्यकर्ता की अनदेखी की है, जिसने उसके लिए अपना सर्वस्व लगा दिया और आदिवासी क्षेत्रों में इसे मजबूत किया…भाजपा ने मुझे धोखा दिया है.’

नर्मदा में भाजपा जिला अध्यक्ष घनश्यामभाई पटेल ने कहा कि विश्वासघात का आरोप अनुचित है क्योंकि वसावा को पार्टी में पूरी अहमियत दी गई थी. उन्होंने कहा, ‘सभी को टिकट मिलना संभव नहीं है.’

लेकिन इस बात का उन नेताओं पर कोई असर नहीं पड़ रहा, जो पार्टी टिकट से वंचित कर दिए गए हैं.

सौराष्ट्र में, पूर्व विधायक अरविंद लाडानी ने केशोद सीट से टिकट पाने में विफल रहने के बाद पार्टी छोड़ दी है, जहां से वे आखिरी बार 2012 में चुने गए थे. उन्होंने भी निर्दलीय चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है.

सूरत में चोरयासी निर्वाचन क्षेत्र की मौजूदा विधायक जंखाना पटेल का टिकट कटने को लेकर भी खासी नाराजगी है. उन्होंने 2017 के विधानसभा चुनाव में 1.10 लाख से अधिक वोटों के अंतर से जीत हासिल की थी, और इस मामले में भूपेंद्र पटेल के बाद दूसरे स्थान पर रही थीं, जो 1.17 लाख वोटों से जीते थे और फिलहाल राज्य के सीएम हैं. उनके समर्थकों ने मंगलवार को भाजपा के गांधीनगर स्थित कार्यालय में हंगामा किया.

ऐसा लगता है कि इस सबके बीच बगावत खत्म करने की जिम्मेदारी गृह मंत्री अमित शाह ने खुद भी संभाल ली है. उन्होंने इस सप्ताह भाजपा मुख्यालय में कैबिनेट मंत्री और रावपुरा के विधायक राजेंद्र त्रिवेदी समेत कुछ असंतुष्ट नेताओं के साथ बैठकें भी कीं. त्रिवेदी को इस साल के शुरू में राजस्व जैसे प्रमुख मंत्रालय से वंचित कर दिया गया था.


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‘जीतने की क्षमता’ को लेकर छिड़ी बहस

हालांकि, भाजपा की गुजरात इकाई का कहना है कि राज्य में असंतोष को लेकर चिंता जैसी कोई बात नहीं है. राज्य भाजपा उपाध्यक्ष जयंती भाई कावड़िया ने कहा, ‘4,000 से ज्यादा लोगों ने टिकट के लिए आवेदन किया था, लेकिन पार्टी हर किसी को तो उम्मीदवार नहीं बना सकती. जाहिर है कुछ नाराजगी तो होगी है. लेकिन वे जानते हैं कि भाजपा ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसमें उनका भविष्य है, इसलिए उन्हें मना लिया जाएगा.’

राज्य के ही एक अन्य पार्टी उपाध्यक्ष महेंद्रभाई एस. पटेल ने दिप्रिंट को बताया कि ‘जीतने की योग्यता’ को अन्य सभी बातों से ऊपर रखा गया है और नए चेहरों को तैयार करने के लिए ऐसा जरूरी भी है.

उन्होंने कहा, ‘कुछ नेता पिछले 40 वर्षों से चुनाव लड़ रहे हैं. अगर बुजुर्ग रिटायर नहीं होंगे तो युवा नेता कैसे उभरेंगे?’

हालांकि, राज्य के अन्य नेताओं की राय है कि ‘जीतने की क्षमता’ को सर्वोपरि रखे जाने का पार्टी संस्कृति पर नकारात्मक असर पड़ा है, खासकर उन मामलों में जहां हाल ही में कांग्रेस छोड़कर आए दलबदलुओं को टिकट दिया गया है.

गुजरात भाजपा के वरिष्ठ नेता ने दिप्रिंट को बताया, ‘पांच साल में कांग्रेस के करीब 20 विधायक अपनी पार्टी छोड़कर भाजपा में आए हैं. फिर वे उपचुनाव जीते (अपनी सीट बरकरार रखने के लिए) और अब उनमें से ज्यादातर को टिकट मिल गया है. यह एक प्रमुख कारण है कि कैडर इस बात को लेकर गुस्से में हैं कि दलबदलुओं को टिकट मिला है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘सत्ता की राजनीति में उम्मीदवारों का चयन करते समय जीतने की क्षमता ही सबसे अहम मानदंड होता है, लेकिन यह पार्टी और कार्यकर्ताओं को प्रभावित करता है. दूसरे दल से आए लोगों को चुनाव टिकट देते समय साल के 365 दिन पार्टी के लिए काम करने वालों को नजरअंदाज किया गया है. इसने कई जगहों पर असंतोष बढ़ा दिया है.’

वरिष्ठ आदिवासी नेता और छोटा उदेपुर के विधायक मोहनसिंह राठवा के बेटे राजेंद्रसिंह राठवा को भाजपा का टिकट मिलना इसी ट्रेंड का एक उदाहरण है. सीनियर राठवा इसी महीने कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे और अपने बेटे के लिए टिकट पाने में सफल रहे.

इसके अलावा तलाला के विधायक भागा बराड का मामला भी सामने है जो एक प्रमुख अहीर नेता हैं. उन्होंने 9 नवंबर को कांग्रेस छोड़ी थी और भाजपा में शामिल होने के तीन दिनों के भीतर ही उन्हें टिकट दे दिया गया.

‘कोई गाइडिंग लाइट नहीं’, जातीय समीकरण हावी

गुजरात के एक पूर्व भाजपा सांसद ने राज्य में कोई ‘गाइडिंग लाइट’ न होने को लेकर पार्टी में जारी मंथन के जिक्र किया, जहां 2014 में मोदी के कुर्सी छोड़ने के बाद से तीन मुख्यमंत्री बदल चुके हैं.

उन्होंने कहा, ‘किसी मार्गदर्शक के अभाव में जुड़ाव की एकमात्र वजह सत्ता में हिस्सेदारी ही है और जब इसमें अनिश्चितता की स्थिति आती है तो बगावत शुरू हो जाती है.’ उन्होंने याद दिलाया कि कैसे जब अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता सबसे निजी स्वार्थों को परे रखकर पार्टी के लिए काम करने को कहते थे, तो लोग उनकी बातों पर ध्यान भी देते थे. लेकिन मौजूदा नेताओं के ऐसे भाषण ‘खोखले’ लगते हैं.

गुजरात यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफेसर गौरांग जानी इससे सहमत हैं. उनके मुताबिक, पिछले साल सितंबर में तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय रूपाणी और उनके मंत्रिमंडल को अचानक बेदखल कर दिए जाने नतीजे अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहे हैं.

जानी ने कहा, ‘भाजपा ने मुख्यमंत्री रूपाणी बस अचानक ही बदल दिया. ऐसे में विधायक और मंत्री कोई भी अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर आश्वस्त नहीं है. उन्हें लगता है कि भाजपा सत्ता की राजनीति कर रही है और दलबदलुओं को लाकर अपने आदर्शों से समझौता कर रही है. अब विधायक पार्टी के लिए अपनी सीटें छोड़ना नहीं चाहते.’

उन्होंने कहा कि भाजपा के कुछ नेताओं के ‘असंतोष और बेचैनी’ के पीछे जाति भी एक बड़ा फैक्टर है.

उन्होंने आगे कहा कि भाजपा एक तरफ तो ‘हिन्दुत्व के नाम पर’ तमाम जातियों को एकजुट करने की कोशिश कर रही है, वहीं साथ ही वोटों को ध्यान में रखकर ‘हर वर्ग में उस जाति के एक नेताओं को भी तैयार’ कर रही है.

जानी ने कहा, ‘जाति के आधार पर तैयार किए गए ये नेता, चाहे अहीर हों या कोली, अब राजनीति में अपनी हिस्सेदारी भी चाहते हैं और चूंकि भाजपा हर नेता को टिकट नहीं दे सकती है, इसलिए पार्टी को व्यापक स्तर पर असंतोष झेलना पड़ रहा है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवाद: रावी द्विवेदी)

(संपादन: ऋषभ राज)


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