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Monday, 18 November, 2024
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जेल की सलाखों के पीछे यासीन मलिक और दशकों पुरानी शांति पहल, क्या है दिल्ली का नया रोडमैप

मनमोहन सिंह ने 2014 में अपने गुप्त दूत की पाकिस्तान से बातचीत के अहस्ताक्षरित ब्यौरे चुपचाप नरेंद्र मोदी को सौंप दिया, मगर हम फिर उसी दोराहे पर खड़े.

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मौत के फरिश्ते के स्पर्श से मेढक़ का कायापलट हो गया और वह राजकुमार बनकर लौटा: मोहम्मद यासीन मलिक 1994 की उस सुबह अपने शहर की सडक़ पर ऐसे शान से घूमे, मानो सल्तनत पर दावा ठोंक रहे हो. श्रीनगर की सडक़ों पर हजारों की भीड़ उन पर गुलाब की पंखुडिय़ां बरसा रही थी. चार साल पहले मलिक जेल भेज दिए गए थे. आरोप था भारतीय वायु सेना के अफसर की हत्या और तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबाइया सईद का अपहरण. तब तक हालात में फंसे एक अनजाना चेहरे मलिक कश्मीर के सबसे खास अलगाववादी नेता बन गए.

मलिक की रिहाई के चार महीने पहले खुफिया ब्यूरो के अधिकारी अमरजीत सिंह दुलत और आसिफ इब्राहिम ने उनकी ताजपोशी की योजना बनाई थी. उनके औजार थे कनॉट प्लेस की एक दुकान से खरीदा फेबरिक सूट, एकाध ब्लैक लेबल की बोतल और थोड़ी छल-कपट.

इस हफ्ते नई दिल्ली की एक अदालत ने मलिक को आतंकवाद को वित्तीय मदद देने के लिए सजा सुनाई, तो कश्मीर में अलगाववादियों को सत्ता सौंपकर कश्मीर में अमन लाने की दशकों पुरानी पहल पर भी दरवाजे बंद हो गए. अब नरेंद्र मोदी सरकार की कश्मीर के लिए एक नई योजना है. पुरानी पहल की तरह इस रास्ते में भी बारूदी सुरंगे भरी पड़ी हैं.

दुश्मन से बातचीत

दुश्मन से दोस्ती भारतीय अलगाववाद विरोधी अभियान का अहम पहलू रहा है: तेलंगाना, मिजोरम, मणिपुर, नगालैंड और पंजाब हर जगह राज्य के दुश्मनों को घूस देने, फुसलाना-लालच देना या वैचारिक तौर पर अपने पाले में करने की कोशिशें दिख्0ाी हैं. भारत को पता था कि कश्मीर का अलगाववाद राजनैतिक व्यवस्था में रच-बस गया है. सैयद अली शाह गीलानी जैसे आला अलगाववादियों ने कई चुनाव लड़े. धांधली के कुख्यात 1987 के चुनाव में मलिक मुस्लिम यूनाइटे फ्रंट के उम्मीदवार मुहम्मद युसूफ शाह के चुनाव एजेंट थे. शाह बाद में पाकिस्तान जाकर हिज्बुल मुजाहिदीन के मुखिया बने.

शांति पहल का मूल विचार सरल-सा था: आतंकवादी कमांडरों को चुनावी लोकतंत्र में वापस लाना.

मलिक ने 1994 में जेल से रिहाई के बाद संघर्ष-विराम का ऐलान किया, जिसका खुफिया बिरादरी ने कुछ वक्र मुस्कराहट के साथ स्वागत किया. हिज्बुल मुजाहिदीन और भारत की शह वाले उग्रवादियों के हमलों से जम्मू-कश्मीर मुक्ति मोर्चा (जेकेएलएफ) काफी कमजोर हो गया. मलिक का अहिंसा को अपनाना सिद्धांत के साथ जरूरत का तकाजा भी था.

जब 1990 के दशक में भारतीय बलों ने कश्मीर में अलगाववाद पर धीरे-धीरे काबू पा लिया, गोपनीय शांति पहल आगे बढ़ी. जमात-ए-इस्लामी के पूर्व मुखिया गुलाम मोहम्मद भट 1997 में जेल से निकले और ‘राजनैतिक बातचीत’ की बात की. दो साल बाद अलगाववादी ऑल पार्टी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के एक प्रमुख नेता अब्दुल गनी बट ने भारत समर्थक राजनैतिक पार्टियों से बातचीत की पेशकश की.


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फिर 2000 में हिज्बुल-उल-मुजाहिदीन के बागी कमांडर अब्दुल मजीद डार की भारत सरकार से बातचीत शुरू हुई. उनके अनौपचारिक दूत की भूमिका निभा रहे अलगाववादी नेता फज्ल-उल-हक कुरैशी ने एक समाधान सुझाया कि ‘जम्मू-कश्मीर अद्र्ध-स्वायत्त दर्जा हो और भारत और पाकिस्तान दोनों का साझा नियंत्रण हो.’

इसमें पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटकलिजेंस (आइएसआइ) भी जुड़ गई थी. रॉ ने 2002 में हुर्रियत के अब्दुल गनी लोन और आइएसआइ प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल एहसान-उल-हक के बीच एक बैठक भी करवाई थी. उस बातचीत से वाकिफ अधिकारियों के मुताबिक, लोन ने आइएसआइ से शांति वार्ता का समर्थन करने की नाकाम पेशकश की और उसके फौरन बाद उनकी हत्या हो गई.

पाकिस्तान की ओर रुख

दुलत की अगुआई में नई दिल्ली के वार्ताकारों ने इस कजहादी हमले से बातचीत को बचाने की कोशिश की. जनवरी 2004 में तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी हुर्रियत के नेताओं से मिले, जिनकी अगुआई मीरवायज उमर फारूक कर रहे थे. मार्च में फिर कई दौर की बातचीत हुई. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2005 में दो दौर की और बातचीत की. उसके फौरन बाद पूर्व अलगाववादी सज्जाद लोन भी मनमोहन सिंह से मिले. बाद में फरवरी 2006 में मलिक खुद पूर्व प्रधानमंत्री से एक गुप्त बैठक में मिले.

हालांकि जिहादियों और अपने खुद के राजनैतिक समर्थकों दोनों से डरे हुए अलगाववादी नेताओं ने औपचारिक एजेंडा रखने का दबाव बनाया, चुनावी लोकतंत्र में हिस्सेदारी की बात तो दूर थी. इससे तंग आकर नई दिल्ली ने इस्लामाबाद की ओर रुख किया.

2002 में भारत-पाकिस्तान टकराव के बाद फौजी शासक जनरल परवेज मुशर्रफ ने नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर संघर्ष-विराम की पहल की और कश्मीरी जिहादियों से समर्थन खींच लिया. जनरल मुशर्रफ समझते थे कि जंग पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में जान फूंकने की उनकी कोशिशों पर पानी फेर देगी.

फिर, 2005 में भारतीय राजनयिक एस.के. लांबा और तारीक अजीज ने गुप्त बातचीत का सिलसिला चलाया और पाकिस्तान के साथ एक सौदे पर बात की कि नियंत्रण रेखा को असली सीमा मान लिया जाए और दोनों तरफ के कश्मीर को व्यापक स्वायत्तता दी जाए.

ऐसा लगा कि इस्लामाबाद से संदेश अलगाववादियों को समझाने में कामयाब है. मीवायज उमर फारूक का दावा है, ‘एजेंडा काफी कुछ तय हो चुका था.’ पाकिस्तानी फौज की शह से कबायलियों के श्रीगनर की सडक़ों पर धावा बोलने के छह दशक बाद कश्मीर में युद्ध के लंबे, दुखद दौर का अंत नजदीक था. वे कहते हैं, ‘सितंबर 2007 में भारत और पाकिस्तान कश्मीर पर कुछ ऐलान करने पर विचार कर रहे थे.’ वे सही हैं, मगर सौदा टूटने लगा था.

पूर्व मुख्यमंत्री मुपु्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने अलगाववादी प्लेटफॉर्म का काफी कुछ हथिया लिया था और जमात-ए-इस्लामी तथा दूसरे जिहादियों से रिश्ते गहरे कर लिए थे. इससे चिंतित होकर नेशनल कॉन्फ्रेंस ने भी मजहबी दक्षिणपंथ के प्रति डोरे डालना शुरू किया. फिर 2008 में पास्तिान के नए फौज प्रमुख जनरल अश्फाक परवेज कियानी ने सब पर पानी फेर दिया. उन्हें डर था कि इससे जेहादियों को उनके बलों से भिडऩे की ताकत मिल जाएगी, उन्होंने गुप्त शांति योजना को चुपचाप खत्म कर दिया.

उधर, कश्मीर में तनाव बढऩे लगा. वर्षों से इस्लामवादी दिग्गज सैयद अली शाह गीलानी स्थानीय-महजबी मुद्दों के जरिए लोगों को उसके खिलाफ गोलबंद करते आए थे, जिसे बेच डालना कहते थे. उन्होंने बारामुला की एक रैली में चेताया कि भारत ‘फौजियों को उनके परिवार के साथ यहां बसाकर मुसलमानों को बहुसंख्यक से अल्पसंख्यक बनाना चाहता है.’ फिर, उन्होंने दावा किया, ‘वे मुसलमानों का कत्लेआम जम्मू में 1947 की तरह या गुजरात की तरह करेंगे.’

उस गर्मियों में नया मोड़ आ गया. एक नए इस्लामी गुट की अगुआई में बड़े पेमाने पर हिंसा भडक़ उठीख् जिसे यकीन था कि भारत उनकी स्थानीय पहचान और मजहब के खिलाफ है. कश्मीर में इस्लामी राजनैतिक भावनाओं में होड़ करके दोनों बड़ी पार्टियों और अलगाववादियों ने भी अपनी जमीन गीलानी के हाथों सौंप दी.


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अंधे मोड़ पर?

अपने हाथों में इतिहास की चाबी थामें तीन शख्स 2009 में नई दिल्ली के खान मार्केट की पार्किंग में मिलते हैं, ताकि मृतप्राय शांति पहल में जान डाली जा सके. मीरवायज फारूक अपने हुर्रियत के साथी बिलाल लोन और अब्दुल गनी बट को पास में ही खुफिया ब्यूरो के एक सुरक्षित मकान में तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम से मिलने ले जाए गए. हालांकि उस बैठक में आरोप-प्रत्यारोप से ज्यादा कुछ नहीं निकला: 1994 में शुरू हुई शांति प्रक्रिया में खंडहर के अलावा कुछ बाकी नहीं रहा.

मई 2014 में मनमोहन सिंह ने अपने गुप्त दूत की पाकिस्तान से वार्ता के अहस्ताक्षरित ब्यौरे चुपचाप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सौंप दिए. उस कोशिश में , जेसा नए प्रधानमंत्री बताते हैं, ‘इतिहास को मोडऩे के लिए’ मोदी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मिले.

लेकिन बैंड, बाजा, बारात भी पाकिस्तान के जनरलों को नहीं लुभा पाई: मोदी ने शरीफ के साथ करीबी रिश्ता बनाया, यहां तक उनके परिवार की एक शादी में अचानक पहुंच गए, लेकिन आइएसआइ ने जवाब में पंजाब और कश्मीर में अपनी करतूत दिखा दी. 2019 में पुलवामा संकट हुआ और कश्मीर का विशंष दर्जा हटा दिया गया.

तो, क्या शांति का रास्ता यहीं खतम हो गया? अलगाववाद को साथ जोडऩे की कोशिशें खत्म हुईं. मलिक की कहानी इसे साफ कर रही है. मीरवायज फारूक कोई राजनैतिक बयान नहीं देते, उनके पूर्व हुर्रियत साथी चुप हैं. यहां तक कि 2008 में भी जमीन पर घटनाओं को मोड़ देने की उनकी काबिलियत मामूली ही थी. आज, तो वह ताकत हवा होती जा रही है. जिनकी आज कुछ पकड़ है, वे वही हैं जिन्होंने चुनावी राजनीति को अपना लिया है, जैसे सज्जरद लोन.

चुनावी क्षेत्रों के विवादास्पद परिसीमन की पृष्ठभूमि में आने वाले महीनों में कश्मीर में चुनाव की उम्मीद है. नई दिल्ली को ऐसे विधायक चाहिए होंगे, जो 2019 के बाद के संवैधानिक बदलावों को बेमानी न बनाएं या स्थिरत भंग करने की कोशिश न करें. उसके लिए कश्मीर की बड़ी रातनैतिक पार्टियों से राजनेतिक बातचीत की दरकार होगी.

भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और पाकिस्तान के फौज प्रमुख कमर जावेद बाजवा के बीच अनौपचारिक संपर्क की बात बताई जाती है. दिप्रिंट ने मार्च में खुलासा किया था कि बाजवा भारत पर कश्मीर में गैर-बाशिंदों को जमीन की बिक्री पर कुछ कानूनी बंदिश बहाल करने का जोर डाल रहे हैं, बदले में वे जिहादियों को काबू में रखेंगे. हालांकि कुछ महीनों बाद विदा होने वाले फौज प्रमुख कितना कर सकते हैं और वह कितना टिकाऊ होगा, यह साफ नहीं है.

चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सघन सैन्य दबाव मा सामना कर रहे भारत को पाकिस्तान के साथ अमन की दरकार है, और दिवालियापन के कगार पर पाकिस्तान को भारत के साथ अमन की दरकार है. दोनों के लिए यह अहम है कि रास्ता फिर बुरे दौर की ओर न ले जाए.

(लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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