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Wednesday, 11 December, 2024
होममत-विमतक्वाड चुनौतियों का सागर है, नौसेना को अंग्रेजों के जहाज डुबोने वाले मराठा सरखेल से सीख लेनी चाहिए

क्वाड चुनौतियों का सागर है, नौसेना को अंग्रेजों के जहाज डुबोने वाले मराठा सरखेल से सीख लेनी चाहिए

सरखेल यानी एडमिरल का दर्जा रखने वाले कान्होजी की नौसेना ने अंग्रेजों और पुर्तगालियों के सामने खुद को कमजोर नहीं पड़ने दिया जबकि उनके बेड़े का कभी सही मायने में आधुनिकीकरण तक नहीं हुआ था. भारतीय नौसेना इससे बहुत कुछ सीख सकती है.

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इसे फ्राम कहा जाता था: पुराणों में वर्णित सागरों के देवता वरुण के उग्र मकर जैसे वाहन की तरह यह आधे हाथी और आधे मगरमच्छ की तरह था जो जब समुद्र में तैरता तो लगता कोई अजीबो-गरीब जानवर मौत को मात देता हुआ चल रहा है. ईस्ट इंडिया कंपनी का ये वाहन आसानी से धोखा देने में भले ही सक्षम हो लेकिन इसमें ट्रोजन हॉर्स जैसी कुटिलता का अभाव था. लेकिन उसने इसे घातक क्षमता जरूर प्रदान कर दी थी. घेरिया के मराठा किले की दीवारों के करीब पहुंचने के साथ समुद्र पर तैरते प्लेटफॉर्म पर लगी अड़तालीस पाउंड की बंदूकों को निकाल लिया गया. यूरोपीय सैनिक, अफ्रीकी भाड़े के सैनिक, बॉम्बे सिपाही, पठान—पैदल सेना ने कत्ले-आम मचाने के लिए कमर कस ली थी.

तमाम अन्य बेहतरीन विचारों की तरह इस कोशिश की नियति भी एक आपदा ही साबित हुई: फ्राम कोई नुकसान पहुंचाने से पहले ही डूब गया. इतिहासकार अनिरुद्ध दासगुप्ता ने लिखा है कि स्थितियों को बिगाड़ने में ‘मनोबल बढ़ाने के नाम पर नौसैनिकों के बीच मुफ्त में बांटी गई रम की भी अहम भूमिका थी.’

अब से ठीक तीन शताब्दी पहले घेरिया में विजयी रहने वाले कान्होजी आंग्रे—जो दो महान औपनिवेशिक ताकतों इंग्लैंड और पुर्तगाल की संयुक्त नौसेनाओं पर मराठाओं की जीत के रणनीतिकार थे—ने अंतत: कोंकण तट के बेताज बादशाह के तौर पर अपनी ताकत का लोहा मनवा दिया था.

इस सप्ताह के अंत में, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चार देशों के इंडो-पैसिफिक क्वाड्रीलैटरल अलायंस यानी क्वाड के नेताओं से मिलेंगे, तो भारतीय नौसैनिक शक्ति उनकी चर्चा के मूल विषय में शामिल होगी. चीन की बढ़ती ताकत के मद्देनजर भारत भी महत्वपूर्ण निवेश करने में जुटा है. भारत को अच्छी तरह पता है कि हिंद महासागर की सुरक्षा का भार अकेले अमेरिका ही नहीं उठाएगा—इसलिए वह अपने वाहक बेड़े के लिए नए विमानों का परीक्षण कर रहे है और नई पनडुब्बियों को भी नौसेना में शामिल किया जा रहा है.

लेकिन कान्होजी की सफलताएं—और उन्हें मिलीं रणनीतिक नाकामियां भी—आने वाले समय में भारतीय नौसैनिक शक्ति के भविष्य के लिए अहम सबक साबित हो सकती है.


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कान्होजी ने कैसे बनाया अपना नौसैनिक बेड़ा

कान्होजी के पूर्वजों के बारे में बहुत ही कम जानकारी उपलब्ध है. उनका जन्म वर्सोवा द्वीप पर हुआ था और उनके पिता राजा शिवाजी भोंसले के अधीन सेवारत थे. अपने करियर की शुरुआत उन्होंने मराठाओं के प्रतिद्वंद्वी सिद्दी से खंडेरी द्वीप छीनकर की. फिर, जैसा कि इतिहासकार पेट्रीसिया रिसो ने लिखा है, उन्होंने अपने इस बेस का इस्तेमाल कुछ छोटे, सशस्त्र जहाजों पर कब्जा करने के लिए किया. कान्होजी के शुरुआती बेड़े में पुर्तगालियों से छीना गया कम से कम एक जहाज था और बंगाली के स्वामित्व वाला एक बड़ा जहाज भी इसमें शामिल था, जिसे मुंबई में माल ढोते समय जब्त कर लिया गया था.

आज के समय कुछ लोग इसे पायरेसी (समुद्री डाका) करार दे सकते हैं. उस समय भी उनके दुश्मनों ने यही कहा था.

1698 के अंत में सूरत में ईस्ट इंडिया कंपनी के एक नाराज एजेंट ने लिखा, पड में मराठा सेना ने ‘इस द्वीप के नमक के दो जहाजों पर कब्जा कर लिए हैं और उसमें सवार व्यापारियों और अन्य लोगों को पकड़कर बंधक बना लिया है, और सबसे बुरी बात यह है कि उन्हें यह कहते हुए मारा-पीटा भी गया है कि उन्हें अंग्रेजों की कोई परवाह नहीं है.’

पद्मदुर्ग से फिरौती लेने के लिए भेजे गए दूतों को गिरफ्तार कर लिया गया, और उनके अपने नमक के जहाज भी कब्जा लिए गए. इस दृढ़ता ने अपना असर दिखाया. पत्र में आगे लिखा गया है, ‘कोनागी आंग्रे के सूबेदार ने डिप्टी गवर्नर को लिखकर वादा किया है कि वह पदमद्रूक की तरफ से कैद किए गए दो लोगों को रिहा कर देंगे, और भविष्य में हमारे किसी भी निवासी से दुर्व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए, हम नमक से भरे पोत जाने का रास्ता दे देंगे.’

हालांकि, कान्होजी ने जल्द ही फिर वहीं से शुरुआत कर ली जहां से उन्होंने छोड़ा था. अन्य कार्यों के अलावा, उनके दल ने ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी को सूरत स्थित उसकी व्यापार चौकी ले जा रहे एक जहाज को जब्त कर लिया. अधिकारी को मार दिया गया और कान्होजी ने जहाज अपने कब्जे में ले लिया और अधिकारी की पत्नी के बदले तीस हजार रुपये की फिरौती मांगी. एक राजा की नौसेना के कमांडर होने के नाते वह तत्कालीन प्रथा के मुताबिक चौथ—यानी कमाई का एक-चौथाई हिस्सा—लेने के हकदार थे.

हालांकि, ये गतिविधियां उस समय की बड़ी समुद्री ताकतों के लिए कोई अपवाद नहीं थीं. पुर्तगाली लंबे समय तक लाल सागर में व्यापारी बेड़ों को लूटते रहे थे, जिसमें मक्का के संरक्षकों के लिए मुगल-युग के उल्लेखनीय खजाने होते थे. इतिहासकार जीवी स्कैमेल हमें याद दिलाते हैं कि ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना, ‘अटलांटिक सागर में दुश्मन के जहाजों को लूटने का अनुभव रखने वाले’ लोगों ने की थी, और इसका फायदा पूर्वी अफ्रीका से दक्षिणी चीन तक पुर्तगाली जहाजों और संपत्तियों को कब्जाने के रूप में मिला.

आधुनिक हिंद महासागर की तरह, कान्होजी के समय भी प्रतिस्पर्धा बहुत ज्यादा थी. समुद्र पर शासन करने की इच्छा रखने वालों को खजाने की जरूरत थी. भारतीय नौसेना को भले ही इस साल काफी बढ़ा हुआ बजट मिला हो, लेकिन यह अभी भी उसकी अपेक्षित जरूरतों से कम है. जैसा विशेषज्ञ समीर पाटिल रेखांकित करते हैं कि पिछले दशक के दौरान रक्षा बजट बमुश्किल मुद्रास्फीति के अनुरूप रहा है.


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मराठा नौसेना का स्वर्णिम काल

अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में ही कान्होजी की नौसेना और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच संघर्ष तेज हो गया था. 1690 में मराठा नौसेना के उपप्रमुख नियुक्त किए गए कान्होजी अगले एक दशक में इसका नेतृत्व संभालने की स्थिति में पहुंच गए थे. ग्रांट डफ ने अपने एक संस्मरण में लिखा है, ‘सभी राष्ट्रों के जहाजों पर हमला किया गया. (और) समुद्र तट पर उतरते समय बार-बार यही किया जाता…त्रावणकोर से बॉम्बे तक कुछ ही व्यापारिक शहर इस तरह के हमलों से बचे हुए थे.’

इतिहासकार अनिरुद्ध दासगुप्ता ने दर्ज किया है, भले ही कान्होजी के जहाजों में अंग्रेजी बेड़े जैसी मारक क्षमता का अभाव था, लेकिन वे एक कुशल रणनीतिकार साबित हुए. उन्होंने अंग्रेजी जहाजों के साथ सीधी लाइन-टू-लाइन टक्कर से परहेज किया, जब भी सामना हुआ तो किनारे पर स्थित तोपखाने के सुरक्षा घेरे में रहकर उथले पानी में मुकाबला किया.

1718 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने कंधेरी में कान्होजी के किले पर हमला किया, जाहिर तौर पर भारी-भरकम सैन्य बल का इस्तेमाल किया गया, और खुफिया जानकारी एक भाड़े के पुर्तगाली से हासिल की गई थी. हालांकि, किले की दीवारें अंग्रेजी नौसैनिक तोपखाने के लिए अभेद्य साबित हुईं. और 1720 में द फ्राम का इस्तेमाल भी उनकी किस्मत नहीं बदल पाया.

कान्होजी की बढ़ती ताकत देख पुर्तगाल और इंग्लैंड ने अगस्त 1721 में गठबंधन किया, खुद को एक साझे हमले के लिए तैयार किया. इस बार, उन्होंने कोलाबा के किले को चुना, जो कि ‘बीस से पच्चीस फीट ऊंची दीवारों से घिरा था और इसमें 700 कदम पर सर्किट, दो द्वार, उत्तर-पूर्व में मुख्य द्वार और दक्षिण में एक छोटा द्वार, और सत्रह टावर थे.’

एडवर्ड टेगिन ने लिखा है, यह खतरनाक इरादा पालना कोई दरवाजा खुला मिलने की उम्मीद पर टिका था: इसके बजाये, ‘वहां तक पहुंचने का एक ही संकरा रास्ता था, जिस पर भारी-भरकम पहरा था.’ 50 हमलावर मारे गए. नौसैनिकों की बमबारी भी कुछ असर नहीं कर पाई. युद्ध के तीसरे दिन सेनापति पिलाजी जाधव और पेशवा बाजी राव किले में मोर्चा संभालते नजर आए, जिससे घबराकर यूरोपीय भाग निकले.

आधुनिक भारतीय रणनीतिकारों के लिए यह दूसरा सबक होना चाहिए: एक दृढ़ निश्चयी और शानदार नेतृत्व वाली सेना अपने से कहीं ज्यादा ताकतवर दुश्मनों का बेहतर ढंग से सामना कर सकती है. तकनीकी दृष्टि से श्रेष्ठ होने के बावजूद यूरोपीय इस जंग में जीत हासिल नहीं कर पाए.


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दुखत अंत, एक महत्वपूर्ण सबक

इक्का-दुक्का घटनाओं को छोड़कर 1722 के बाद कान्होजी के शासन को चुनौती नहीं दी गई. कुडाल के सावंत की तरफ से दी गई चुनौती उनके राजा के गांवों के जलकर खाक हो जाने के साथ खत्म हो गई. जंजीरा के सिद्दी जैसे नेताओं ने कभी-कभार कोलाबा पर लालच भरी निगाह डाली तो उन्हें भी इसका नतीजा भुगतना पड़ा. कान्होजी ने पुर्तगाल के साथ शांति बहाली की कोशिश की और यहां तक कि 1724 में इंग्लैंड भी पहुंचे. हालांकि, करीब पांच साल बाद उनकी मौत हो गई और अपनी पत्नियों और कई रखैलों के जरिये जन्मे छह पुत्रों को पीछे छोड़ गए.

भले ही कान्होजी की नौसेना ने दो महान औपनिवेशिक ताकतों अंग्रेजों और पुर्तगालियों के सामने खुद को कमजोर नहीं पड़ने दिया लेकिन उनके बेड़े का कभी सही मायने में आधुनिकीकरण तक नहीं हुआ था. चप्पुओं से चलने वाली नौकाओं का बेड़ा पालों वाले समुद्री बेड़े से आगे नहीं बढ़ पाया. उनकी नौसेना विदेशी बंदूकधारियों, अक्सर भाड़े के सैनिकों पर बहुत अधिक निर्भर थी, और तोपखाने और बंदूकधारियों के तकनीकी विकास में पिछड़ गई. और शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आपूर्ति के लिए भीतरी इलाकों पर निर्भर रहने के कारण अंगरिया का किला चोक होने का जोखिम रहता था.

विद्वान सुरेंद्र नाथ सेन ने 1941 की एक किताब में उल्लेख किया है कि मराठा नौसेना का ‘विकास एक बौने बच्चे की तरह हुआ. यह एक बिंदु तक तो संतोषजनक ढंग से आगे बढ़ी, और फिर उसकी प्रगति रुक गई.’

कई मध्यकालीन कहानियों की तरह, उनका अंत भी सुखद नहीं रहा. कान्होजी के पुत्र आपस में लड़े. अंग्रेजों ने उनके प्रतिद्वंद्वियों का समर्थन किया और डच व पुर्तगालियों ने भी खुलकर दुश्मनी निकाली. खुद पेशवा बाजी राव भी अंततः कान्होजी के उत्तराधिकारी तुलाजी के खिलाफ हो गए, क्योंकि उन्हें लगने लगा था कि ईस्ट इंडिया कंपनी से बड़ा खतरा तो आंग्रे नौसेना बने गई है.

कान्होजी की मृत्यु के बाद यूरोपीय आर्थिक ताकतों के विकास के खतरनाक नतीजे नजर आए. यद्यपि जहाज से कारोबार करने वालों के बीच तुलाजी का आतंक बना रहा लेकिन वह कभी भी बड़ी ताकतों के लिए वास्तविक खतरा नहीं बन पाए.

फिर सबसे महत्वपूर्ण सबक यह है—भारत की नौसैनिक ताकत की पहुंच और प्रभाव उसकी समग्र आर्थिक शक्ति से ऊपर नहीं हो सकता. पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल अरुण प्रकाश काफी समय से भारत की तरफ से अपनी समुद्री क्षमताओं का पता लगाने के लिए व्यापक नजरिया अपनाने और वास्तव में जहाज निर्माण शक्ति बनने की दिशा में काम करने पर जोर देते रहे हैं. चीन के पास न केवल दुनिया की सबसे बड़ी नौसेना है बल्कि वह दुनिया का सबसे बड़ा जहाज निर्माता भी है.

तलवारों की तेज धार के दम पर बड़ी जीत तो हासिल की जा सकती है, लेकिन कान्होजी की कहानी हमें यही बताती है कि वास्तविक जीत तो रणनीतिक मोर्चे पर कामयाबी हासिल करना ही है.

(लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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