जाति आधारित जनगणना कराना चूंकि नीतिगत मामला है, इसलिए बहुत संभव है कि राजनीतिक दबाव में विधानसभा चुनावों से पहले शुरू होने वाली जनगणना की प्रक्रिया में जाति के आधार पर भी गणना को शामिल कर लिया जाए.
ये सवाल उठने की प्रमुख वजह उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव नजदीक आते ही देश में जाति आधारित जनगणना कराने और सरकारी नौकरियों तथा शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से बढ़ाने की मांग का जोर पकड़ना है.
इस संबंध में राजनीतिक दलों ने अपना दबाव बनाना शुरू कर दिया है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में राज्य के विभिन्न दलों के प्रतिनिधियों ने इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात भी की है. नीतीश कुमार के अनुसार प्रधानमंत्री ने इस मांग से इंकार नहीं किया है.
संसद के मॉनसून सत्र में अन्य पिछड़े वर्गों की सूची में जातियों को जोड़ने का अधिकार राज्यों को प्रदान करने संबंधी 127वें संविधान संशोधन पर चर्चा के दौरान भी सभी दलों के सदस्यों ने जाति आधारित जनगणना कराने और आरक्षण के लिए निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा में बदलाव करने की मांग की थी.
संशोधन विधेयक पर हुई बहस का जवाब देते हुए हालांकि सरकार ने इस विषय पर कोई राय व्यक्त नहीं की थी लेकिन सत्र के दौरान गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने यह जरूर कहा था कि भारत सरकार ने जनगणना के दौरान अनुसूचित जाति और जनजातियों के अलावा किसी अन्य आबादी की जाति के आधार पर गणना नहीं करने का नीतिगत फैसला लिया है. सरकार की वर्तमान नीति के तहत जातियों और जनजातियों की गणना का संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 और संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश 1950 को स्पष्ट उल्लेख है.
केन्द्र सरकार हमेशा यह दलील देती रही है कि जाति आधारित जनगणना कराने में व्यावहारिक कठिनाइयां हैं और इसके आंकड़े एकत्र करने में हमारे गणना करने वाले प्रशिक्षित नहीं है. सरकार का कहना है कि जनगणना करने वाले अंशकालिक और आमतौर पर स्कूल शिक्षक ही होते हैं.
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संसद में सरकार के इस वक्तव्य के बावजूद राजनीतिक दलों को ऐसा लगता है कि जातिगत जनगणना होनी चाहिए और इसके लिए वे सरकार पर अपना दबाव बना रहे हैं.
वैसे इस समय जातिगत आधारित जनगणना कराने के लिए एक जनहित याचिका उच्चतम न्यायालय में भी लंबित है. यह याचिका तेलंगाना के एक सामाजिक कार्यकर्ता जी मलेश यादव ने दायर की है और 26 फरवरी, 2021 को इस पर तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एसए बोबडे, न्यायमूर्ति एएस बोपन्ना और न्यायमूर्ति वी रामासुब्रमण्यन की तीन सदस्यीय पीठ ने केंद्र और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को नोटिस भी जारी किये थे, लेकिन इसके बाद से मामला सुनवाई के लिए सूचीबद्ध नहीं हुआ है.
इस याचिका में न्यायालय से जाति आधारित जनगणना कराने और अन्य पिछड़े वर्गों के बारे में आंकड़े एकत्र करने का निर्देश केन्द्र सरकार को देने का अनुरोध किया गया है.
याचिका में दलील दी गयी अन्य पिछड़े वर्गों की बेहतरी के लिए जाति आधारित आंकड़े एकत्र करना बहुत ही जरूरी है क्योंकि इस तरह के आंकड़ों के अभाव में अन्य पिछड़े वर्ग के लिए उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण का प्रतिशत निर्धारित करने में दिक्कत आ रही है.
एक तथ्य और दिलचस्प है कि भले ही इस साल फरवरी में उच्चतम न्यायालय ने जाति आधारित जनगणना के लिए जनहित याचिका पर नोटिस जारी कर दिया है लेकिन इसे शीर्ष अदालत ने Census Commissioner & Ors vs R.Krishamurthy प्रकरण में 7 नवंबर, 2014 को जाति आधारित जनगणना कराने का मद्रास उच्च न्यायालय का आदेश निरस्त कर दिया था. न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति रोहिंटन फलि नरीमन और न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित की पीठ ने अपने फैसले में कहा था कि यह सरकार का नीतिगत मामला है. पीठ ने कहा था कि सरकार की नीति को चुनौती दिए जाने की स्थिति में ही न्यायालय इसमें हस्तक्षेप कर सकता है और उसकी नीति संविधान विरोधी हो.
जाति आधारित जनगणना के बारे में मद्रास उच्च न्यायालय के 24 अक्टूबर, 2008 और 12 मई 2010 के आदेशों को जनगणना आयुक्त ने शीर्ष अदालत में चुनौती दी थी. न्यायालय में सरकार का कहना था कि जनगणना कराना नीतिगत मामला है और कानून के तहत इसके लिए अधिसूचना जारी कर इसकी प्रक्रिया निर्धारित करने का अधिकार उसके पास है.
केंद्र ने शीर्ष अदालत में दलील दी थी कि उच्च न्यायालय को जाति आधारित जनगणना के लिए आदेश देने का अधिकार नहीं है और इस बारे में निर्देश देकर उसने न्यायिक समीक्षा के अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया है. न्यायालय किसी भी कानून की व्याख्या कर सकता है और जरूरत पड़ने पर इसे असंवैधानिक घोषित कर सकता है.
केंद्र की ओर से दलील दी गयी थी कि उच्च न्यायालय के आदेश और निर्देश जनगणना कानून, 1940 की धारा 8 और इसमें 1993 में किए गए संशोधन के तहत तैयार नीतिगत फैसले में हस्तक्षेप करने जैसा है.
जाति आधारित जनगणना का मामला सामने आने पर मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा था कि सामाजिक न्याय के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए सरकार को जल्द से जल्द जाति आधारित जनगणना कराना चाहिए. उच्च न्यायालय का कहना था कि 1931 के बाद कभी भी जाति आधारित जनगणना नहीं हुई है जबकि इस दौरान अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों की आबादी में कई गुना वृद्धि हुई है. ऐसी स्थिति में कमजोर वर्गों के हितों के मद्देनजर 1931 की जनगणना के आधार पर निर्धारित आरक्षण के प्रतिशत में वृद्धि होनी चाहिए.
उच्च न्यायालय ने जनगणना आयुक्त को निर्देश दिया था कि वह जल्द से जल्द देश में जाति आधारित जनगणना के लिए सभी आवश्यक कदम उठाये ताकि सही मायने में सामाजिक न्याय का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके.
उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यह जिक्र भी किया था कि जाति आधारित 1931 की जनगणना के अनुसार उस समय अन्य पिछड़े वर्गों की आबादी कुल जनसंख्या का करीब 52 प्रतिशत थी. इसी तरह की गणना 1941 में भी हुई थी लेकिन धन बचाने के लिये उनके आंकड़े दर्ज नहीं किए गए थे. इसलिए अब होने वाली जनगणना में जाति आधारित आंकड़े एकत्र करके सही स्थिति की जानकारी प्राप्त की जानी चाहिए.
जनगणना के संबंध में 1951 से ही नीतिगत मामले के रूप में जाति आधारित जनगणना समाप्त कर दी गयी है. इस नीतिगत निर्णय के अनुरूप 1951 की जनगणना से ही अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के अलावा किसी अन्य जाति की गणना नहीं की गयी है. सरकार के अनुसार 2011 में भी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के अलावा किसी अन्य जाति की गणना नहीं की गयी थी.
अब देखना यह है कि राजग के प्रमुख घटक जदयू के नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार के नेताओं की प्रधानमंत्री से मुलाकात और रांकांपा के नेता शरद पवार द्वारा भी जाति आधारित जनगणना कराने और आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से बढ़ाने की मांग पर मोदी सरकार झुकती है या फिर पहले की नीति पर ही अडिग रहती है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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