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Friday, 19 April, 2024
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संसद में कानून के प्रावधानों पर चर्चा जरूरी, CJI रमन्ना की चिंताओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए

अपेक्षा की जाती है कि विधायिका में निर्वाचित होने वाले सदस्य अनुभवी और अपने-अपने क्षेत्र में दक्षता रखने वाले होंगे ताकि वे जनकल्याण के निमित्त बनने वाले कानूनों में अपना महत्वपूर्ण योगदान कर सकें.

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संसद में बहस के गिरते स्तर के प्रति देश के प्रधान न्यायाधीश एन वी रमन्ना की चिंता के मद्देनजर अब लोकतांत्रिक अधिकारों और संसदीय मर्यादाओं तथा परंपराओं पर गहराई से मंथन करने की आवश्यकता है. आवश्यकता इस बात पर विचार करने की भी है कि संसद के सत्र के दौरान सदस्य विधायी कार्य में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं डालें ताकि विभिन्न विषयों के बारे में पेश विधेयकों पर गंभीर चर्चा हो सके और वे न्यायिक समीक्षा पर पूरी तरह खरे उतरें.

लेकिन सवाल है कि वोट की राजनीति और येन केन प्रकारेण सत्ता तक पहुंचने के इस दौर में क्या लोकतांत्रिक अधिकारों और संसदीय मूल्यों के बीच सामंजस्य कायम करने तथा सर्वमान्य रास्ता निकालना संभव है? पहली नज़र में इसका जवाब नहीं में ही मिलेगा.

नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिए आरक्षण बहुत ही संवेदनशील विषय है. मराठा, जाट, पटेल और लिंगायत जातियों सहित कई जातियां अन्य पिछड़े वर्ग की सूची में खुद को शामिल कराने के लिए आंदोलन कर रही हैं.

उच्चतम न्यायालय ने महाराष्ट्र में मराठा समुदाय को आरक्षण प्रदान करने के सवाल पर इस साल पांच मई को DR. JAISHRI LAXMANRAO PATIL VS STATE OF MAHARASHTRA, THE CHIEF MINISTER & ORS. प्रकरण में अपने फैसले में कहा था कि अन्य पिछड़े वर्गों की सूची में किसी भी जाति को जोड़ने का अधिकार राज्यों के पास नहीं अपितु केंद्र के पास हे.

इस मुद्दे ने राजनीतिक रंग लिया और राज्यों को यह अधिकार बहाल करने की मांग उठी. नतीजा यह हुआ कि नरेंद्र मोदी सरकार ने हाल ही में संपन्न संसद के मानसून सत्र में प्रतिपक्ष के सदस्यों के भारी हंगामे के बावजूद 127वें संविधान संशोधन के माध्यम से इस फैसले को निष्प्रभावी बनाने में सफलता हासिल कर ली.

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देश की एक बड़ी आबादी से संबंधित इस महत्वपूर्ण संविधान संशोधन विधेयक पर मात्र दो दिन चर्चा हुई जिसमें दोनों सदनों में विपक्ष ने भी हिस्सा लिया. अब देखना यह है कि न्यायिक समीक्षा होने की स्थिति में यह न्याय की कसौटी पर किस सीमा तक खरा उतरेगा.

यह संशोधन विधेयक संसद से मंजूर होते ही अब सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिये आरक्षण की 50 प्रतिशत की सीमा में बदलाव की मांग शुरू हो गयी है. एक ओर मंडल आयोग के फैसले को बड़ी संविधान पीठ को सौंपने की मांग उठी तो दूसरी ओर 50 प्रतिशत की सीमा खत्म करने के लिये कानून बनाने की मांग हो रही है.

इसी तरह, न्यायालय ने पिछले महीने ही देश में सहकारी समितियों के प्रभावी प्रबंधन को लेकर 15 फरवरी, 2012 से लागू 97वें संविधान संशोधन के एक हिस्से को निरस्त कर दिया. यह हिस्सा सहकारी समितियों के कामकाज से संबंधित है.


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न्याय की कसौटी पर कानून के खरे उतरने की चुनौती

विविधता भरी संस्कृति वाले भारत में एक समय में सभी वर्गों की अपेक्षाओं पर खरा उतरना असंभव है. उदारीकरण और बदलते सामाजिक परिवेश में लगातार संविधान के विभिन्न प्रावधानों और विभिन्न कानूनों में संशोधन किये जा रहे हैं.

ये संविधान संशोधन और कानूनों में किये गये संशोधन तथा नये कानून अक्सर न्यायिक समीक्षा के लिए न्यायपालिका के समक्ष आते हैं जहां वे न्याय की कसौटी पर पूरी तरह खरे नहीं उतरते. वजह इन्हें पारित करते समय इसके विभिन्न पहलुओं पर गंभीरता से चर्चा नहीं होना भी रहता है.

कई बार देखा गया है कि न्यायालय की व्यवस्था राजनीतिक दृष्टि से किसी एक वर्ग, विशेषकर जिसका अपना प्रभावशाली वोट बैंक है, को नागवार लगती है तो वह उसे निष्क्रिय कराने के लिए पूरा जोर लगा देता है.

इस संबंध में तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता दिलाने के लिए Mohd. Ahmed Khan vs Shah Bano Begum And Ors मामले में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के बारे में संविधान पीठ की अप्रैल, 1985 की व्यवस्था को ही लें.

शाह बानो नाम से चर्चित इस फैसले को निष्क्रिय कराने के लिए पूरा जोर लगाया गया. अंतत: राजीव गांधी सरकार ने इसे निष्प्रभावी बनाने के लिए जनवरी, 1986 में The Muslim Women Protection of Rights on Divorce Act लेकर आई. यह कानून मई, 1986 से देश में लागू है. इसके तहत तलाकशुदा महिला को सिर्फ इद्दत के दौरान ही गुजारा भत्ता मांगने की इजाजत है.

इसी तरह, उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों का ही मुद्दा लें. न्यायाधीशों की नियुक्तियों की व्यवस्था पहले कार्यपालिका के हाथ में थी. लेकिन दिसंबर, 1981 में S.P. Gupta vs Union of India प्रकरण और फिर Supreme Court Advocates-on-Record Association and another VS Union of India प्रकरण में अक्टूबर, 1996 में उच्चतम न्यायालय के दो फैसलों और इस बारे में अक्टूबर, 1998 में राष्ट्रपति को संविधान पीठ की राय ने इस विषय में कार्यपालिका के हाथ पांव बांध दिए थे.

यह विवाद लगातार बढ़ता जा रहा था और न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायाधीशों द्वारा ही करने की व्यवस्था में सुधार की मांग हो रही थी. कई असफल प्रयासों के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने 99वें संविधान संशोधन के माध्यम से 2014 में THE NATIONAL JUDICIAL APPOINTMENTS COMMISSION ACT बनाया लेकिन यह न्यायिक समीक्षा के दौरान पूरी तरह खरा नहीं उतरा. नतीजा यह हुआ कि संविधान पीठ ने 2015 में इसे निरस्त कर दिया.

सूचना प्रौद्योगिकी कानून को ही अगर लें तो यह कानून 2000 में बना था लेकिन संसद ने 2009 में इसमें संशोधन करके धारा 66ए जोड़ी थी. न्यायालय ने धारा 66ए को नागरिकों की अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन करने वाला पाया और मार्च 2015 में इसे रद्द कर दिया. इसके बावजूद इस धारा के तहत मामले दर्ज होते रहे.


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संसद में कानूनों पर चर्चा में कमी

प्रधान न्यायाधीश एन वी रमन्ना इस बात से चिंतित थे कि संसद द्वारा बनाए जा रहे कानूनों में अब स्पष्टता नहीं है. उनकी राय में पहले किसी भी विधेयक को कानून का रूप देते समय इन पर विस्तार से समझदारी भरी चर्चा होती थी लेकिन अब स्थिति खेदजनक है.

निश्चित ही प्रधान न्यायाधीश के दिमाग में हाल ही में संपन्न मानसून सत्र के दौरान पारित विधेयक रहे होंगे.

संसद से बगैर चर्चा के पारित हुए विधेयकों में दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता संशोधन विधेयक, 2021, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और निकटवर्त क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता प्रबंध आयोग विधेयक, अधिकरण सुधार विधेयक, अनिवार्य रक्षा सेवा विधेयक, कराधान विधि संशोधन विधेयक, 2021, साधारण बीमा कारोबार राष्ट्रीयकरण संशोधन विधेयक, राष्ट्रीय भारतीय आयुर्विज्ञान प्रणाली संशोधन आयोग विधेयक, निक्षेप बीमा एवं प्रत्यय गारंटी निगम संशोधन विधेयक और सीमित दायित्व भागीदारी संशोधन विधेयक भी शामिल हैं.

निश्चित ही इन विधेयकों में से कई बहुत ही महत्वपूर्ण होंगे जिनके प्रावधान देश की आम जनता को प्रभावित करते होंगे लेकिन विपक्षी सदस्यों के हंगामे की आड़ में सरकार ने इन्हें बगैर चर्चा के ही पारित करा लिया.

राष्ट्रपति की संस्तुति मिलते ही ये विधेयक कानून बन जायेंगे और निश्चित ही इनमें से कई कानूनों की संवैधानिकता को चुनौती दी जायेगी और वे न्यायिक समीक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय के सामने होंगे.

न्यायमूर्ति रमन्ना का कहना था कि पहले बेहतर चर्चा के साथ कानून बनते थे जिस वजह से अदालतों पर इन कानूनों की व्याख्या या इन्हें लागू करने का बोझ थोड़ा कम होता था क्योंकि हमे पता रहता था कि इस कानून को बनाने के पीछे विधायिका का उद्देश्य क्या है.

प्रधान न्यायाधीश ने कानून बनाने की वर्तमान शैली पर प्रत्यक्ष रूप से अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहा कि अब हम नहीं जानते कि कानून किस उद्देश्य से बनाए गए हैं. इस तरह से बगैर चर्चा और गंभीर मंत्रणा के कानून बनने से मुकदमेबाजी बहुत बढ़ रही है. इससे सरकार के साथ ही जनता को भी असुविधा और नुकसान हो रहा है. सदनों में अगर बुद्धिजीवी और वकीलों जैसे पेशेवर नहीं हों तो ऐसा ही होता है.

स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधान न्यायाधीश का यह संबोधन विधायिका द्वारा कानून बनाने में चर्चा और मंत्रणा के अभाव को इंगित करने के साथ ही संसद में निर्वाचित होकर पहुंच रहे सदस्यों की बुद्धिमत्ता और राजनीति में अपराधीकरण के हावी होने की ओर भी इशारा करता है.

यह सही है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में देश के प्रत्येक नागरिक को चुनाव लड़ने का अधिकार है और इसके लिए किसी विशेष शैक्षणिक योग्यता की आवश्यकता नहीं है. इसके बावजूद यह अपेक्षा की जाती है कि विधायिका में निर्वाचित होने वाले सदस्य अनुभवी और अपने-अपने क्षेत्र में दक्षता रखने वाले होंगे ताकि वे जनकल्याण के निमित्त बनने वाले कानूनों में अपना महत्वपूर्ण योगदान कर सकें.

ऐसा तभी संभव होता है जब निर्वाचित सदस्यों में अधिक शिक्षित और पेशेवर ज्ञान रखने वाले भी शामिल हों तथा इसमें असामाजिक तत्वों की कोई पैठ नहीं हो. उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधान न्यायाधीश के उद्बोधन को सही परिप्रेक्ष्य में लेकर इस पर गंभीरता से ध्यान दिया जाएगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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