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Thursday, 9 May, 2024
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अमेरिका की यूज एण्ड थ्रो पॉलिसी से 3 बार जूझने के बाद अब अफगानिस्तान के आगे क्या बचा है

इस बार अमेरिका ने अफगानिस्तान में न केवल युद्ध लड़ा बल्कि उसके नवनिर्माण में जज़्बात के साथ काफी वक़्त और धन भी दिया. लेकिन अंत में उसे एशिया का सीरिया बनने के लिए छोड़कर चल दिया.

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तालिबान की फतह अवश्यंभावी दिख रही है. अफगानिस्तान पिछले एक-दो सप्ताह से दुनिया भर में सुर्खियों में, लेखों में छाया है. गौर कीजिए कि 90 फीसदी लेखों और बहसों में यही मुद्दा उठाया जा रहा है कि अमेरिका से लेकर भारत और चीन तथा बेशक पाकिस्तान आदि दूसरे देशों पर इसका क्या असर पड़ेगा. लेकिन जिस मुल्क, अफगानिस्तान और उसके चार करोड़ आवाम को सबसे ज्यादा तवज्जो और जज़्बाती मदद की जरूरत है उसके लिए कुछ नहीं सोचा जा रहा है.

है न हैरत की बात? नहीं, वास्तव में ऐसा नहीं है. अमेरिका ने अपने विशेष राजनयिक जल्मे खलीलजाद के न्यूनतम मुमकिन सौदे के विचार को जब लागू कर दिया तो तालिबान की फतह तो होना ही थी. न्यूनतम यों कि अमेरिका अपनी पीठ पर तालिबानी बुलेट के जख्म लिये बिना वापस लौट सका. अफगान लोग जाएं भाड़ में. लेकिन अब वह न्यूनतम भी अनिश्चित दिख रहा है क्योंकि वे तालिबान से अपील कर रहे हैं वे अमेरिकी दूतावास को बख्श दें.

खलीलजाद अफगानिस्तान के उत्तरी शहर मज़ार-ए-शरीफ में पैदा हुए और नूरज़ई कबीले के पख्तून हैं. उन्होंने अपने मुल्क के इतिहास, जातीय पहचान और अपने लोगों की किस्मत को अपनी उम्दा अमेरिकी शिक्षा-दीक्षा के चश्मे से देखने की कोशिश नहीं की है. वे जानते हैं कि उनके अफगान भाइयों की किस्मत में क्या बदा है, वही जो वे अपने मूल मुल्क के लिए छोड़कर अमेरिका लौट सकते थे- शाश्वत संघर्ष, अराजकता, इस्लामवाद की एक-न-एक छाया और आगे चलकर एक और युद्ध. इसलिए, यहां से निकल चलो. जैसा कि उन्होंने स्कूली छात्रों के सांस्कृतिक आदान-प्रदान की एक योजना के तहत अमेरिका रवाना होने वाले एक किशोर के रूप में किया था. स्मार्ट लोग इस मुल्क के लिए नहीं बने हैं.

अच्छी शिक्षा आपको बुद्धि तो दे सकती है, संवेदनशील नहीं बना सकती. आपको यह फितरत या तो खुदा से मिलती है या नहीं मिलती है. हकीकत यह है कि अफगानिस्तान में कई स्मार्ट लोग बचे हुए हैं. इसकी शानदार क्रिकेट टीम को ही देख लीजिए.


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लेकिन अगर आप इसके इतिहास को जानते हैं और खलीलजाद की तरह इसके किसी हिस्से में रह चुके हों तो आप आसानी से संवेदनहीन बन जाएंगे. इसके पूरे इतिहास में या दो सदी पहले जब बड़ी ताकतों ने इसका पता लगा लिया और अपने भौगोलिक-रणनीतिक हितों के लिए इसकी भौगोलिक स्थिति के महत्व को समझा, तब से इस मुल्क और इसके लोगों के साथ संवेदन शून्य व्यवहार ही किया जा रहा है. साम्राज्यवादी ब्रिटेन के लिए यह एक ऐसा देश था जिसकी जरूरत उसे अपने और शक्तिशाली ज़ारशाही/स्टालिनवादी साम्राज्य के बीच एक ‘बफर’ देश के रूप में थी. उसने इस पर काबू करने की फौजी कोशिश की मगर शुरू में ही उसे झटका लगा, फिर भी वह कोशिश में जुटा रहा.

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अंततः, 19वीं सदी में दो एंग्लो-अफगान युद्धों में बड़ी संख्या में अफगानों की मौत और तबाही के बाद उन्होंने वैसी संधि की जैसी कोई उपनिवेशवादी देश पराजित देश के साथ करता है. उसकी संप्रभुता तो बहाल रखी मगर उसकी विदेश तथा रणनीतिक नीतियों पर कब्जा कर लिया. यानी वह एक मुकम्मिल ‘बफर’ देश बन गया.

मोर्टिमर डूरंड ने उपनिवेशवादी भारत के साथ उसकी उस सीमा पर अफगान शासक से दस्तखत करवा लिया, जिसे डूरंड रेखा कहा गया. कागज पर तो अफगान शासक संप्रभुतासंपन्न था मगर वास्तव में, दूसरे एंग्लो-अफगान युद्ध के बाद ब्रिटेन ने उसकी सेना और विदेश नीति को अपने कब्जे में ले लिया.

ऐसा लगता है कि डूरंड मेज के दूसरी तरफ से भी खुद ही वार्ता कर रहे थे. इसमें अचरज नहीं कि किसी अफगान शासक या सरकार ने इस सीमा को कभी मंजूर नहीं किया. 1947 के बाद, 75 वर्षों से ब्रिटेन उसके मामले में पाकिस्तान का इस्तेमाल करता रहा है. करीब चार दशकों से अफगानिस्तान सोवियत संघ और उसके दक्षिण-पूर्व, खासकर इसके कमजोर आंतरिक मध्य एशियाई क्षेत्र के बीच ‘बफ़र’ देश बना रहा है.

अगर आप अपने रणनीतिक हितों को एकपक्षीय दृष्टि से देखते हैं, जैसा कि पाकिस्तान करता है, तब इसे एक ऐतिहासिक अवसर माना जा सकता था. अगर अफगानिस्तान सोवियत संघ के लिए ‘बफर’ देश था, तो पाकिस्तान अमेरिका का स्वाभाविक साथी था.

पाकिस्तान की रणनीति में अगर कोई एक चीज मायने रखती है, तो वह सिर्फ यह है कि भारत से कैसे बढ़त हासिल हो. कम्युनिस्ट विस्तार को रोकने के लिए इस्तेमाल किए गए अग्रिम मोर्चे का देश होने के नाते पाकिस्तान को जो लॉटरी लगी थी उसे उसने भारत के खिलाफ अपनी आर्थिक व सैनिक ताकत बढ़ाने के लिए भुनाया. लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. उसने भारत के साथ दो आत्मघाती युद्ध किए और 1971 में अपना आधा मुल्क गंवा दिया.

पाकिस्तान ने 1954 से 1971 के बीच कयामत को खुद ही दावत दी लेकिन अफगानिस्तान के लिए राहत छोटी ही रही. पाकिस्तान और उसकी एजेंसियों ने पश्चिमी साथियों के साथ जल्दी ही काबुल में सोवियत समर्थक सरकार का तख़्ता पलटकर दोस्ताना इस्लामी निजाम बहाल करने का खेल शुरू कर दिया. इसके फलस्वरूप 1979 में सोवियत आक्रमण हुआ. अमेरिकी नेतृत्व में पूरा पश्चिमी खेमा, इस्लामी दुनिया और चीन ने मिलकर मुजाहिदीन को हथियार, पैसा देकर खड़ा कर दिया. फिर जो युद्ध हुआ उसमें लाखों अफगान लोग मारे गए, करीब एक करोड़ लोग बेघर हो गए. भारत को ध्यान में रखते हुए पाकिस्तान अग्रणी भूमिका में आया और उसके लिए इनामों की बरसात होने लगी.


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सोवियत संघ 1989 में वहां से निकल गया और पाकिस्तान चूंकि यह मान रहा था कि उसने एक महाशक्ति को परास्त कर दिया है इसलिए वह सोवियत संघ और भारत के प्रति दोस्ताना रखने वाली नजीबुल्लाह सरकार को बने नहीं रहने दे सकता था. वे इसे परास्त करने के लिए मुजाहिदीन को मदद देते रहे. अंततः, उन्होंने काबुल पर कब्जा कर लिया. लेकिन अभी उनका काम पूरा नहीं हुआ था. मुजाहिदीन बंटे हुए थे, उनके कई नेता थे जो अलग-अलग दिशाओं में सोचते थे, जबकि पाकिस्तान को काबुल में एक मजबूत, एकजुट ताबेदार चाहिए था.

इसलिए कई मदरसे खोले गए, जो तालिबान (युवा अफगान छात्रों) को इस्लाम का सबसे कट्टरपंथी पाठ पढ़ाने लगे और उन्हें सिर्फ युद्ध लड़ने का प्रशिक्षण दिया. तालिबान जब मुजाहिदीनों को खदेड़कर अपने हिसाब से शरीआ की हुकूमत कायम करने लगे तब फिर कई अफगान मारे गए. 1960 में जैसे खलीलजाद मुल्क छोड़कर चले गए थे, उसी तरह अब कई प्रतिभाशाली युवा अफगान मुल्क छोड़कर भाग गए. मुल्क में प्रतिभाओं, पूंजी और संस्कृति का अकाल पड़ गया. बदले में उसे मिला अल-क़ायदा और मजहबी उग्रवाद के प्रतीक दूसरे गुट, जिनकी वजह से अमेरिका अंततः 9/11 कांड के बाद अमेरिका वहां आ धमका.

1979 से 2021 के बीच अमेरिका ने अफगानिस्तान को, जो कि एक सक्रिय राज्यतंत्र था भले ही उसमें खामियां भी थीं, तीन बार बांट दिया. इस क्रम में लाखों लोग मारे गए. उन्होंने सोवियतों को हरा दिया लेकिन अपना मतलब पूरा होते ही अफगानिस्तान को त्याग दिया. 2001 में वे तालिबान को खत्म करके एक आधुनिक, नया, लोकतांत्रिक अफगानिस्तान बनाने के वादे के साथ ‘ऑपरेशन एंडयोरिंग फ़्रीडम’ के लिए वापस आए.

2021 में वे अफगानिस्तान को त्याग कर चले गए हैं. वजह? यह कि उन्होंने अब यह फैसला किया है कि उन्हें एक सुरक्षित और सम्मानजनक वापसी की जरूरत है, जो उनकी हार न दिखे. पहला लक्ष्य, सुरक्षा हासिल की जा सकती है. दूसरा लक्ष्य खो गया है.

इसलिए, अमेरिका को एक सक्रिय राज्यतंत्र को 1979 के बाद तीन बार नष्ट करने का श्रेय जाता है. पाकिस्तान हमेशा उनका सहयोगी रहा है. एक बार फिर बड़ी संख्या में अफगान मारे जाएंगे. एक और शिक्षित कुलीन पीढ़ी पलायन करेगी और महिलाएं वहां होंगी जहां तालिबान उन्हें पहुंचाना चाहेंगे. वे सुरक्षित होंगी मगर ऐसा जीवन जीने को मजबूर होंगी जिसकी इजाजत उनकी दृष्टि में शरिया उन्हें देता है.

इस बार एक नया, शिक्षित कुलीन अफगान तबका इसलिए मौजूद है क्योंकि अमेरिका ने केवल युद्ध ही नहीं लड़ा, उसने वहां राष्ट्र निर्माण में समय, पैसा और जज्बा भी लगाया, भले ही राष्ट्रपति जो बाइडन खारिज करते हुए यह क्यों न कह रहे हों कि ऐसा कोई विचार कभी नहीं था. हम जिसे अमेरिकी कब्जे के 20 साल कह सकते हैं, उसमें अफगान आबादी ने काफी तरक्की की.

इसे मैंने वाशिंगटन में रह रहे रणनीति विशेषज्ञ ध्रुव जयशंकर के ट्वीट में देखा, जिसमें 2000-18 के बीच के अफगानिस्तान में आए परिवर्तन के विश्व बैंक के आंकड़ों को उदधृत किया गया है. इनमें सबसे महत्वपूर्ण संकेतक है लोगों की आयु संभाव्यता का. यह 56 साल से बढ़कर 65 साल हो गया है. प्राथमिक स्कूल में भर्ती का आंकड़ा 21 प्रतिशत से बढ़कर 104 हो गया है. महिला साक्षरता दर 17 से 30 फीसदी पर पहुंच गई, बिजली की उपलब्धता 22 प्रतिशत से 99 प्रतिशत हो गई, प्रति व्यक्ति जीडीपी 1.190 डॉलर से करीब दोगुना बढ़कर 2,034 डॉलर के बराबर हो गया.

अमेरिका ने यह सब हासिल करने में मदद की, लेकिन यह आधुनिकता और परिवर्तन के लिए अफगानियों की क्षमता, आकांक्षा, और महत्वाकांक्षा के कारण ही संभव हुआ. अब, 9/11 की 20वीं वर्षगांठ पर अमेरिका अफगानिस्तान को उस बर्बर सत्ता के हाथों में सौंप रहा है जिसे उसने 2001 में परास्त किया था. अफगानिस्तान के सामने तीन संभावनाएं हैं. सबसे कम बुरी संभावना यह है कि तालिबान लगभग शांतिपूर्वक पूरा कब्जा कर ले और अपना इस्लामी अमीरात स्थापित करे, जो उनके कानून के मुताबिक काम करे. इससे कम बुरी संभावना, जो तालिबान के पिछले दौर में घट चुकी है, यह है कि देश के कुछ हिस्से तालिबान के कब्जे से बाहर रहें और सबसे बुरी संभावना यह है कि युद्ध जारी रहे और अफगान गुटों की आपसी मारामारी में पाकिस्तान, चीन, रूस, और ईरान घालमेल मचाएं. दूसरे शब्दों में, दक्षिण एशिया के शिखर पर पर एक सीरिया बन जाए. बहरहाल, जो भी सामने आए, बदकिस्मत अफगानियों के बस में कुछ नहीं होगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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