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Sunday, 3 November, 2024
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क्या मोदी अपने मंत्रिमंडल को आपराधिक छवि के सांसदों से मुक्त रख पाएंगे

नरेंद्र मोदी से आशा की जा रही है कि मंत्रिपरिषद को अंतिम रूप देते समय उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के पांच साल पहले की व्यवस्था को वे ध्यान में रखेंगे और दागी छवि वाले नेताओं को सरकार में जगह नहीं देंगे.

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देश की राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त कराने और भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने के चुनाव आयोग और न्यायपालिका के प्रयास राजनीतिक दलों की उदासीनता के कारण विफल होते नजर आ रहे हैं. इसका ताजा उदाहरण 17वीं लोकसभा के हाल ही में सम्पन्न चुनाव है जिसमें राजग के बड़ी संख्या में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशी विजयी हुए हैं.

ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी सरकार में ऐसे सांसदों को शामिल करेंगे जिनके खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं? साफ-सुथरी छवि वाली सरकार देने की प्रतिबद्धता दोहराने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से आशा है कि वह मंत्रिपरिषद को अंतिम रूप देते समय उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के पांच साल पहले की व्यवस्था को ध्यान में रखेंगे और दागी छवि वाले नेताओं को सरकार में जगह नहीं देंगे.

एसोसिएशन आफ डेमोक्रेटिक रिफार्म्स की रिपोर्ट के अनुसार लोकसभा चुनाव में 233 ऐसे प्रत्याशी विजयी हुये हैं जिन्होंने आपराधिक मामलों की घोषणा की है. इनमें अकेले भाजपा के ही 116 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं. इनमें से 87 सांसदों के खिलाफ गंभीर अपराध के मामले दर्ज हैं. रिपोर्ट के अनुसार भाजपा के पांच सांसदों पर हत्या, एक सांसद पर हत्या के प्रयास, चार सांसदों पर अपहरण और एक सांसद के खिलाफ महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले दर्ज हैं.

रिपोर्ट में कहा गया है कि राजग के घटक दल जद यू के छह और शिवसेना के पांच विजयी प्रत्याशियों ने भी अपने खिलाफ गंभीर अपराध के मामलों की घोषणा नामांकन के समय की थी.

सत्तारूढ़ गठबंधन के सदस्यों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामलों की इस सूची को देखते हुए केंद्रीय मंत्रिपरिषद में ऐसी पृष्ठभूमि वाले किसी भी सांसद या व्यक्ति को शामिल करने से पहले उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ की अगस्त 2014 की व्यवस्था को ध्यान में रखने की आवश्यकता है.


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तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 2005 में मनोज नरूला की जनहित याचिका पर करीब नौ साल बाद अपना फैसला सुनाया था. नरूला की याचिका में संगीन और जघन्य अपराधों में कथित रूप से संलिप्त कुछ व्यक्तियों की मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनी संप्रग सरकार की मंत्रिपरिषद में नियुक्ति को लेकर सवाल उठाये गये थे.

शीर्ष अदालत ने 27 अगस्त, 2014 को अपने फैसले में संविधान के अनुच्छेद 75:1ः की व्याख्या करते हुये कहा था कि इस तरह की अपेक्षा सर्वथा विधिसम्मत ही है कि प्रधानमंत्री अपने मंत्रिमंडल के लिये ऐसे व्यक्तियों का चयन नहीं करेंगे जिनके खिलाफ संगीन और गंभीर अपराधों या भ्रष्टाचार के आरोपों में अभियोग निर्धारित हो चुके हैं.

संविधान पीठ ने कहा था कि संविधान में ऐसा ही सुझाव दिया गया है और प्रधानमंत्री से इसी तरह की सांविधानिक अपेक्षा भी है. न्यायालय ने इसके साथ ही यह विषय प्रधानमंत्री के विवेक पर छोड़ते हुए कहा था कि हम इससे अधिक या कम कुछ नहीं कह रहे हैं.

यही नहीं, न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया था कि जो कुछ प्रधानमंत्री के बारे में कहा गया है वह पूरी तरह से संविधान के अनुच्छेद 164:1ः के तहत मुख्यमंत्रियों पर भी लागू होता है.

संविधान पीठ ने अपनी व्यवस्था के संबंध में किसी भी प्रकार के संशय की संभावना समाप्त करते हुये दो टूक शब्दों में कहा था कि जब न्यायपालिका और प्रशासनिक सेवाओं में संदिग्ध छवि वाले व्यक्तियों की नियुक्ति नहीं हो सकती तो फिर मंत्रिमंडल में ऐसे व्यक्तियों को जगह कैसे दी जा सकती है.

फैसले में संदेश साफ था कि संगीन और गंभीर अपराध के आरोप में मुकदमे का सामना कर रहे व्यक्ति को मंत्रिमंडल से बाहर किया जाये. यह सुझाव देकर न्यायपालिका ने सरकार के साथ ही राजनीतिक दलों को भी स्वच्छ राजनीति और आपराधिक तत्वों को इससे दूर रखने के बारे में सोचने पर मजबूर किया था.

शीर्ष अदालत की इस व्यवस्था के बाद उम्मीद की जा रही थी कि केन्द्र सरकार ही नहीं बल्कि राज्य सरकारें भी अपने मंत्रिमंडल में शामिल मंत्रियों की छवि और उनकी पृष्ठभूमि को लेकर आत्मचिंतन करेंगी. लेकिन इतनी स्पष्ट व्यवस्था के बावजूद केंद्रीय मंत्रिपरिषद से लेकर राज्यों के मंत्रिमंडलों में दागी छवि वाले सांसद और विधायकों को स्थान मिलता रहा है.

जहां तक दागी छवि वाले व्यक्तियों को मंत्रिपरिषद में जगह नहीं देने का सवाल था तो इस बारे में न्यायालय ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि किसी व्यक्ति को मंत्रिमंडल में मंत्री नियुक्त करने के बारे में प्रधानमंत्री की सलाह राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी है बशर्ते ऐसा व्यक्ति संविधान और जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 के तहत चुनाव लड़ने के अयोग्य नहीं हो.

राजनीति के अपराधीकरण और उच्च पदों पर व्याप्त भ्रष्टाचार जैसी समस्या से चिंतित न्यायालय ने कहा था कि लोकतंत्र को, जनता की सरकार, जनता के द्वारा और जनता के लिए, परिभाषित किया गया है और सकारात्मक शुचिता, समर्पित अनुशासन और सुशासन की पवित्रता के माध्यम से सांविधानिक नैतिकता के प्रति निरंतर अनुमोदन की अपेक्षा की जाती है.


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संविधान पीठ ने इन्दिरा गांधी बनाम राज नारायण और टीएन शेषन बनाम भारत सरकार के मामलों में शीर्ष अदालत की व्यवस्थाओं का जिक्र करते हुए स्पष्ट किया था कि लोकतंत्र संविधान की अकाट्य विशेषता है और लोकतंत्र संविधान का बुनियादी और मौलिक आधार है.

न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है कि भारत में लोकतंत्र कानून के शासन की देन है और इसमें समतावादी सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने की महत्वाकांक्षा व्यक्त की गई है. यह सिर्फ राजनीतिक दर्शन ही नहीं है बल्कि सांविधानिक दर्शन की भी अभिव्यक्ति है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं.)

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