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Friday, 3 May, 2024
होममत-विमतपुतिन ने ईरान और तुर्की से बात की लेकिन अपने 'दोस्त' मोदी या 'भाई' शी जिनपिंग से बात क्यों नहीं की

पुतिन ने ईरान और तुर्की से बात की लेकिन अपने ‘दोस्त’ मोदी या ‘भाई’ शी जिनपिंग से बात क्यों नहीं की

पुतिन के लिए भारत और चीन दोनों से दूरी बनाना मुश्किल हो सकता है. पेंटागन और उसके हथकंडे से उलझते हुए यह उसके लिए और भी मुश्किल काम है.

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रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के ‘भरोसेमंद’ दोस्त 62 वर्षीय येवगेनी प्रिगोझिन के नेतृत्व में वैगनर ग्रुप के भाड़े के सैनिकों द्वारा किए गए आश्चर्यजनक और निरस्त तख्तापलट पर अंतिम शब्द अभी लिखा जाना बाकी है. तख्तापलट की शुरुआत एक गुप्त योजना और दुनिया भर से विरोधाभासी रिपोर्टों को देखते हुए, इसका रहस्य बना रहेगा.

पुतिन द्वारा दिए गए समझौता फार्मूले के तहत वैगनर ग्रुप के लड़ाकों के पास तीन विकल्प हैं: वे रूसी सेना में शामिल हो सकते हैं, अपने गृह देशों में लौट सकते हैं या फिर बेलारूस जा सकते हैं. हालांकि, पुतिन ने अपने भाषण में अपने दोस्त प्रिगोझिन का कोई जिक्र नहीं किया. वैगनर “आर्मी” यूक्रेन के अलावा सीरिया, लीबिया, माली और मध्य अफ्रीकी गणराज्य जैसे कई संघर्ष वाले इलाके में अपनी सेवाएं प्रदान कर रही है. इन ताकतों का भविष्य अनिश्चित बना हुआ है. यह संदिग्ध है कि क्या उन्हें बेलारूस वापस लाया जाएगा या नियमित रूसी सेना में शामिल किया जाएगा.

ऐसा दिख रहा है कि बखमुत की घेराबंदी और कब्जा पूरी तरह से वैगनर का एक ऑपरेशन था. उनका मानना था कि  उनके सेनानियों को अनुबंध के अनुसार पर्याप्त रूप से इनाम नहीं मिला था. कुछ लोग यह भी सुझाव देते हैं कि मॉस्को में रक्षा प्रतिष्ठान ने कम कूटनीतिक तरीके से प्रिगोझिन के साथ स्थिति को गलत तरीके से संभाला. चेचन नेता रमज़ान कादिरोव, जो पुतिन के वफादार हैं, उन्होंने “वैगनर के विद्रोह को कम करने में मदद करने और यदि आवश्यक हो तो कठोर उपायों का उपयोग करने” की पेशकश की थी. प्रिगोझिन की बेटियों, पोलिना और वेरोनिका, साथ ही उनके बेटे पावेल, जो रूस के दूसरे सबसे बड़े शहर में प्रमुख व्यवसाय के मालिक हैं, को सेंट पीटर्सबर्ग में जमीन लेने से इनकार करने वाले मास्को के अधिकारियों पर तख्तापलट का आरोप लगाया. 

इस असफल तख्तापलट के पीछे चाहे जो भी कारण हो, वह चाहे व्यक्तिगत, राजनीतिक या वैचारिक हो, यह निश्चित है कि एक अजेय मजबूत नेता के रूप में पुतिन की छवि को नुकसान पहुंचा है. केवल समय ही बताएगा कि क्या वह इसकी मरम्मत कर पाते हैं या आगे बढ़ने का फैसला करते हैं. साथ ही इस बात के भी आसार हैं कि पुतिन के कवच में आई इस दरार के कारण वह गंभीर रूप से घायल हो सकते हैं.

पुतिन ने तख्तापलट का तुरंत जवाब देते हुए मॉस्को की किलेबंदी कर दी और मित्र से दुश्मन बने इन सैनिकों को स्पष्ट रूप से संदेश भेज दिया कि भाड़े के सैनिक अगर मॉस्को में प्रवेश करने के किसी भी प्रयास के परिणामस्वरूप उनका विनाश होगा. एक बैकअप योजना के तहत तुरंत पुतिन ने कथित तौर पर सहायता के लिए ईरान और तुर्की से संपर्क किया था. जबकि तेहरान और अंकारा ने कहा कि यह एक आंतरिक मामला था लेकिन संभवतः उन्होंने पुतिन को अपना समर्थन देने का आश्वासन दिया होगा. तभी पुतिन ने अपने भरोसेमंद सहयोगी, बेलारूस के राष्ट्रपति अलेक्जेंडर लुकाशेंको की ओर रुख किया होगा.

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अजीब बात है कि पुतिन, जो भारत को “एक महान शक्ति” और “पुराने मित्र” के रूप में बताते रहते हैं, ने मदद के लिए अपने “प्रिय मित्र” नरेंद्र मोदी को नहीं बुलाया, और न ही उनके बीजिंग से संपर्क करने की खबरें मिली.


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संघर्ष ख़त्म करने का समय आ गया है

जब वैगनर ग्रुप के तख्तापलट करने की खबर सामने आ रहा थी, भारत और अमेरिका प्रौद्योगिकी सहयोग और रणनीतिक साझेदारी को लेकर एक समझौते पर हस्ताक्षर कर रहे थे. दोनों देशों के नेताओं के संयुक्त बयान में यूक्रेन में संघर्ष पर गहरी चिंता व्यक्त की गई और विनाशकारी मानवीय परिणामों पर शोक व्यक्त किया गया. साथ ही संकल्प लिया गया कि यूक्रेनवासियों को मानवीय सहायता जारी रखा जाएगा. हालांकि, संघर्ष पर नई दिल्ली के तटस्थ रुख के करीब रहते हुए, बयान में स्पष्ट रूप से रूस का नाम नहीं लिया गया या आरोप-प्रत्यारोप में उसे शामिल नहीं किया गया.

संयुक्त बयान में इस्तेमाल की गई भाषा को ध्यान में रखते हुए, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि पुतिन ने संकट की घड़ी में समर्थन के लिए भारत को नहीं बुलाया. भारत-अमेरिका संयुक्त बयान ने स्पष्ट रूप से रूस-यूक्रेन संघर्ष के नतीजों से विकासशील अर्थव्यवस्थाओं का समर्थन किया और युद्धग्रस्त यूक्रेन को मानवीय सहायता प्रदान करने की आवश्यकता को मान्यता दी. ऐसी परिस्थितियों में, सहायता के लिए नई दिल्ली पर भरोसा न करने का मॉस्को का निर्णय समझ में आता है.

हालांकि, दिलचस्प बात यह है कि पुतिन ने अपने मित्र और वैचारिक सहयोगी, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मदद क्यों नहीं मांगी. शायद ऐसा इसलिए था क्योंकि तख्तापलट की खबर सामने आने के बाद से ही बीजिंग ने चुप्पी साध रखी थी. तख्तापलट की विफलता का आधिकारिक घोषणा के बाद ही चीनी विदेश मंत्री किन गैंग ने बीजिंग में रूस के उप विदेश मंत्री आंद्रेई रुडेंको से मुलाकात की. बैठक के तुरंत बाद, बीजिंग ने अपनी चुप्पी तोड़ी और पुतिन की सरकार के प्रति समर्थन व्यक्त करते हुए भाड़े के विद्रोह को रूस का “आंतरिक मामला” बताया. चीनी विदेश मंत्रालय ने घोषणा की, “एक मित्रवत पड़ोसी और नए युग के व्यापक रणनीतिक सहयोगी भागीदार के रूप में, चीन राष्ट्रीय स्थिरता की रक्षा करने और विकास और समृद्धि प्राप्त करने में रूस का समर्थन करता है.”

तख्तापलट असफल होते हुए भी निस्संदेह क्षेत्र की भू-राजनीति और भारत-रूस-चीन संबंधों पर स्थायी प्रभाव डालेगा. चीन और रूस दोनों अमेरिका के साथ भारत की रणनीतिक साझेदारी को वाशिंगटन के प्रति सकारात्मक झुकाव के रूप में देखेंगे. जबकि चीन इस तरह के ‘झुकाव’ के परिणामों के लिए तैयार है, पुतिन को पेंटागन और इसके विभिन्न हथकंडो के साथ संघर्ष करने के दौरान चीन और भारत दोनों से दूरी बनाना मुश्किल हो सकता है. मॉस्को तुर्की और ईरान की ओर रुख कर सकता है और यहां तक ​​कि अपने भाड़े के लड़ाकों की सेवाएं भी दे सकता है, जो क्षेत्र में सुरक्षा स्थिति पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है. भारत को जल्द से जल्द संघर्ष को समाप्त करने के लिए मास्को के साथ बातचीत करते हुए सतर्कता बढ़ाने की जरूरत है. युद्ध के बाद रूसी अर्थव्यवस्था का पुनर्गठन, जो युद्ध और तख्तापलट दोनों से तबाह हो गया है, शायद यूक्रेन में युद्ध के बाद के पुनर्निर्माण से भी अधिक महत्वपूर्ण है.

(शेषाद्री चारी ‘ऑर्गेनाइजर’ के पूर्व संपादक है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख़ को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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