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Friday, 29 March, 2024
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गैर-महत्वपूर्ण सेक्टरों से मोदी सरकार का हाथ पीछे खींचना क्यों अच्छा कदम है

बाज़ार में सरकार का दखल कभी कभार तो चल सकता है मगर यह नियम नहीं बनना चाहिए. विनिवेश की ताज़ा पहल सही दिशा में उठाया गया कदम है. 

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नरेंद्र मोदी सरकार ने उन महत्वपूर्ण सेक्टरों की सूची जारी की है जिनमें अधिक-से-अधिक चार सरकारी उपक्रमों (पीएसयू) को काम करने की मंजूरी दी जाएगी. इससे पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 23 पीएसयू की बिक्री की मंजूरी दी थी.

वैचारिक परिवर्तन

मोदी सरकार ने ‘आत्मनिर्भर भारत पैकेज’ के तहत एक विनिवेश योजना की घोषणा 17 मई को की थी. इसके साथ उसने यह भी कहा था कि अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण सेक्टरों में अधिकतम चार पीएसयू काम करेंगे. यह योजना विनिवेश की पिछली कोशिशों से अलग है.

पहले ऐसा होता था कि सरकार उन सरकारी उपक्रमों की पहचान करती थी जिनका निजीकरण करना होता था. इस बार इसका उलटा हो रहा है. सरकार कुछ पीएसयू को महत्वपूर्ण सेक्टर में शामिल कर देगी और बाकी सबमें विनिवेश करेगी. सरकार ने 7 अगस्त को महत्वपूर्ण सेक्टरों की सूची की घोषणा की. यह वैचारिक परिवर्तन का संकेत देता है. राष्ट्रीयकरण के पुराने विचार का मकसद अर्थव्यवस्था को अपने नियंत्रण में रखना था. मूल मकसद जो भी रहा हो, फर्मों का राष्ट्रीयकरण करने की सरकार की भूख बढ़ गई थी.

आज जो भी पीएसयू हम देखते हैं वह सरकार ने नहीं बनाई थी. वे निजी क्षेत्र की फर्में थीं, जिन्हें सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया था. जल्दी ही सरकार ने कई सेक्टरों में व्यवसाय को इस तरह कब्जे में लिया जिसे सीमा से ज्यादा कहा जा सकता है. जाहिर है, इस स्थिति में सुधार जरूरी था.


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विनिवेश का इतिहास

1991 में आर्थिक उदारीकरण के बाद भी राजनीतिक माहौल निजीकरण के लिए अनुकूल नहीं था. निजीकरण से उभरने वाले वैचारिक संदेश को नरम करने के लिए इसकी जगह विनिवेश शब्द का प्रयोग शुरू किया गया. एनडीए की पहली सरकार ने भारत अल्युमीनियम कं.लि. जैसे कुछ पीएसयू का निजीकरण किया लेकिन इसमें बाधा आई क्योंकि कुछ अहम बिक्री पर सवाल उठाए गए. यूपीए सरकार की न तो निजीकरण में राजनीतिक आस्था थी, न इसकी इच्छाशक्ति थी. यूपीए 1 और 2 दोनों ने कंपनियों का निजीकरण न करने का फैसला किया. कुछ कंपनियों के थोड़े-से शेयर ही बाज़ार में लिस्ट किए जाते लेकिन कंपनियों पर सरकार का पूरा नियंत्रण रहता.

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विदेशी निवेशकों और मीडिया समेत कई हलकों को उम्मीद थी कि मोदी सरकार के आर्थिक सुधार एजेंडा में निजीकरण पर कार्रवाई करना शामिल होगा. अपने पहले कार्यकाल में मोदी सरकार ने विनिवेश के तहत जो लेन-देन किए वे निजीकरण नहीं थे. महज एक पीएसयू को दूसरे पीएसयू के हाथ बेचा गया. उदाहरण के लिए, हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉपोरेशन लि. के शेयर तेल एवं प्राकृतिक गैस कॉर.लि. को बेचे गए. पीएसयू के आइपीओ में जनता की दिलचस्पी नहीं होती, तो एलआईसी को उनके शेयर खरीदने को कहा जाता. हिंदुस्तान एरोनौटिक्स लिमिटेड, न्यू इंडिया एस्योरेंस और जनरल इन्स्योरेंस कॉर. के आइपीओ में एलआईसी शेयरधारक बना.

अब पहली बार इस सवाल पर गंभीरता से फैसला किया जा रहा है कि व्यवसायों में सरकार की क्या भूमिका होनी चाहिए, कि सरकार को कुछ महत्वपूर्ण सेक्टरों को छोड़ बाकी से हाथ खींच लेना चाहिए. जून 2012 में गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी ने ‘इकोनॉमिक टाइम्स’ को दिए इंटरव्यू में कहा था कि ‘बिजनेस की दुनिया में सरकार का कोई काम नहीं है.’ आज जो घोषणा की गई है वह उसी दिशा में बढ़ाया गया एक कदम है.

सरकार को कुछ महत्वपूर्ण सेक्टरों में सीमित करने का कदम दरअसल व्यवसाय के क्षेत्र में उसके दखल को सीमित करने का कदम है लेकिन अहम मुद्दा यह तय करना है कि महत्वपूर्ण सेक्टर कौन से हैं. वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर ने इसका कुछ जवाब पिछले साल संसद में अपने इस बयान में दिया था कि सरकार ‘… इस बुनियादी आर्थिक सिद्धांत पर चलेगी कि सरकार को उन सेक्टरों में सामान और सेवाओं के निर्माण/ उत्पादन में हाथ नहीं डालना चाहिए जिनमें प्रतिस्पर्द्धी बाज़ार विकसित हो चुका हो.’

आगामी दिनों में पीएसयू की बिक्री में इसी सिद्धांत का पालन करने पर विचार किया जाना चाहिए.

आज, सरकार होटल (आइटीडीसी) और ट्रैवल एजेंसी (बामर लॉरी) के कारोबार से लेकर फ्लोर क्लीनर (बंगाल केमिकल्स ऐंड फार्मास्युटिकल्स) के उत्पादन तक कई कारोबार कर रही है.


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विनिवेश की वजहें

मोदी सरकार कोयला, बैंकिंग, परिवहन, और इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसे सेक्टरों पर अपना नियंत्रण रखना चाहती है. दूसरे उद्योगों को निजी सेक्टर के लिए छोड़ दिया जाएगा. कई लोग तर्क दे सकते हैं कि इस लिस्ट को छोटा रखा जा सकता है. कुछ लोग निजीकरण के तरीके को लेकर सवाल उठा सकते हैं. लेकिन इस इरादे का स्वागत ही किया जाना चाहिए कि सरकार का व्यवसाय में पड़ने की जरूरत नहीं है. और यही विनिवेश की सबसे बड़ी वजह है.

अतीत में विनिवेश पर बजट के नज़रिए से विचार किया जाता था. सरकार निरंतर घाटे में चल रहे उपक्रमों से पल्ला झाड़ना चाहती थी. लेकिन उनके खरीदार कम ही मिलते थे. एअर इंडिया को बेचने की कई कोशिशें विफल हो चुकी हैं. लेकिन घाटा देने वाले उपक्रमों को छोड़ दें तो सरकार को इस पर कोई आपत्ति नहीं थी कि पीएसयू निजी क्षेत्र से प्रतिस्पर्धा करें. लेकिन आज, सरकार यह मान रही है कि व्यवसाय के मामले में आमतौर पर उसकी कोई भूमिका नहीं है. बाज़ार में सरकार की भागीदारी अपवादस्वरूप भले हो, वह नियम न बने.

जब सरकार व्यवसाय से बाहर है और किसी उद्योग में कोई पीएसयू नहीं है, तब निजी क्षेत्र को इस बात का भरोसा रहेगा कि उसे ऐसे प्रतिस्पर्द्धी से खतरा नहीं होगा जिसके पास पूंजी की कोई समस्या नहीं है. तब निजी क्षेत्र की ओर से ज्यादा निवेश आएगा. निजी कंपनियों को पीएसयू से अनुचित मुकाबला करना पड़ता है. निजी क्षेत्र के लिए पूंजी की सीमा होती है मगर पीएसयू के पास सरकार के कर राजस्व के रूप में असीमित पूंजी होती है.

इसके अलावा, पीएसयू को बाज़ार से कम लागत पर पूंजी मिल जाती है क्योंकि उनके पक्ष में सरकारी गारंटी होती है. ऐसे भारी-भरकम प्रतिस्पर्द्धी से मुकाबला निजी क्षेत्र के लिए जोखिम भरा होता है. भारत की सभी निजी एयरलाइंस को एअर इंडिया से मुकाबला करना पड़ता है, जिसका घाटा 70,000 करोड़ रुपये तक पहुंच गया है और जिस पर 58,000 करोड़ का कर्ज चढ़ा हुआ है. गौरतलब है कि जेट एयरवेज 25,000 करोड़ के कर्ज के कारण कारोबार से बाहर ही हो गया.

हितों के टकराव को लेकर भी समस्या पैदा होती है. जिस सेक्टर में पीएसयू हैं उनमें सरकार खिलाड़ी की भूमिका भी निभाती है और रेगुलेटर की भी. सरकार पीएसयू के पक्ष में पलड़ा झुकाने की कोशिश करती है. यह हम पीएसयू बैंकों के मामले में कई बार देख चुके हैं, जिन्हें सरकार और रिज़र्व बैंक से सहारा मिलता रहता है.


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आगे की पहल

सरकार को ध्यान रखना चाहिए कि उसकी वजह से निजी बाज़ारों को अड़ंगा न लगे, चाहे यह नियमों के चलते लगे या सब्सिडी के चलते. हाल तक, सरकार ने निजी क्षेत्र को कानूनन बहिष्कृत कर रखा था. उदाहरण के लिए, निजी क्षेत्र को 1999 तक बीमा क्षेत्र से बाहर रखा गया. इसी तरह, टेलिकॉम पर भी सरकार का एकाधिकार था क्योंकि किसी निजी कंपनी को इस क्षेत्र में उतरने नहीं दिया जाता था. जब सरकार ने कानूनी बाधाएं हटाईं तब इन सेक्टरों में हमने निजी क्षेत्र को तेजी से बढ़ते देखा.

दूसरे क्षेत्रों में सरकारी सब्सिडी ने निजी क्षेत्र को पैर जमाने से रोक दिया. 2008 में सरकार ने डीजल को सब्सिडी देना शुरू किया. लेकिन पेंच यह था कि केवल पीएसयू तेल कंपनियों को ही सब्सिडी का लाभ मिला. रिलायंस को अपने फ्युल पंप 2015 तक बंद करने पड़े, जब तक कि सब्सिडी खत्म नहीं किया गया.

पीएसयू के निजीकरण को राजस्व बढ़ाने का उपाय न माना जाए. इससे, अनुत्पादक काम में फंसे संसाधन अधिक उत्पादक कामों के लिए मुक्त हो पाएंगे. आगामी महीनों में आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिए मोदी सरकार विनिवेश से होने वाली आमद पर नज़र न गड़ाए, बल्कि निजीकरण से जमीन, श्रम और पूंजी के बेहतर इस्तेमाल के रूप में जो लाभ होंगे और उत्पादकता में वृद्धि से अर्थव्यवस्था को जो ताकत मिलेगी उस पर ध्यान दे.

(इला पटनायक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं और शुभो रॉय शिकागो विश्वविद्यालय में रिसर्चर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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2 टिप्पणी

  1. अर्नव जैसे सैकड़ों मामले अदालतों में लम्बित हैं, सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि नीचे की कोर्टो
    में लम्बित ऐसे ही मामलों का निस्तारण करें।
    सत्यता के लिए उसकाने के आरोप में लिया
    चक्रवर्ती को एक माह जेल में रहना पड़ा जब तक कि जांच में क्लीनचिट नहीं मिली।दोहरा
    मापदण्ड कर्मों ? अर्नव ने इनटीरीयर सजावट
    के लिए अन्वय का देय र 5करोड देने से इंकार करता रहा।उधर बैंक वाले जिनसे कर्ज लेकर
    अन्वय ने काम किया था भारी दबाव बना रहे थे।समाज में उसकी प्रतिष्ठा को आघात पहुंचा
    रहा था।जब उसे लगा कि अर्नव पैसा नहीं देगा
    तो मानसिक दबावमें उसने आत्महत्या कर ली।
    यदिउसका पैसा मिल गया होता तो ऐसी स्थिति
    आती ही नहीं।अतः: यह कहना अनुचित है कि
    पैसे से आत्महत्या का कोई सम्बंध नहीं है।

  2. अर्नव जैसे सैकड़ों मामले अदालतों में लम्बित हैं, सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि नीचे की कोर्टो
    में लम्बित ऐसे ही मामलों का निस्तारण करें।
    सत्यता के लिए उसकाने के आरोप में लिया
    चक्रवर्ती को एक माह जेल में रहना पड़ा जब तक कि जांच में क्लीनचिट नहीं मिली।दोहरा
    मापदण्ड कर्मों ? अर्नव ने इनटीरीयर सजावट
    के लिए अन्वय का देय र 5करोड देने से इंकार करता रहा।उधर बैंक वाले जिनसे कर्ज लेकर
    अन्वय ने काम किया था भारी दबाव बना रहे थे।समाज में उसकी प्रतिष्ठा को आघात पहुंचा
    रहा था।जब उसे लगा कि अर्नव पैसा नहीं देगा
    तो मानसिक दबावमें उसने आत्महत्या कर ली।
    यदिउसका पैसा मिल गया होता तो ऐसी स्थिति
    आती ही नहीं।अतः: यह कहना अनुचित है कि
    पैसे से आत्महत्या का कोई सम्बंध नहीं है।

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