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Tuesday, 23 April, 2024
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हिंदी में अरुंधति राय, विक्रम सेठ और चेतन भगत क्यों नहीं हैं?

सिर्फ हिंदी में लिखकर कोई कवि या कहानीकार जीवन यापन की नहीं सोच सकता. इसकी वजहें भारतीय समाज और राजनीति में छिपी हैं.

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हर साल की भांति इस बार भी सरकारी विभाग हिंदी दिवस  या हिंदी पखवाड़ा  या हिंदी मंथ  मना रहे हैं. यह सरकारी पाखंड पूरे पखवाड़ा चलेगा, कुछ लोगों को पुरस्कार दिया जाएगा, सरकारी आयोजन होगा, भाषण प्रतियोगिता, लेख या वाद-विवाद प्रतियोगिता में घोषित विजेताओं को पुरस्कृत किया जाएगा और वह सरकारी नाटक अगली बार फिर से इसी तरह दोहराया जाएगा.

भारत सरकार और राज्य सरकारों का भी यह कार्यक्रम वर्षों से थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ जारी है. इस ‘आयोजन’ का क्या उद्देश्य है, इससे किसे लाभ होता है, इसका आकलन संभवतः हुआ ही नहीं है. अगर आकलन हुआ होता तो सरकारी धन की इस बर्बादी या लूट को कब का बंद कर दिया गया होता. कहीं ऐसा तो नहीं कि सब जानते हैं कि यह आयोजन लूट के लिए है, इसी लिए इसे आयोजित किया जाता है?

भारत में लगभग 44 फीसदी लोग यानी लगभग 50 करोड़ व्यक्ति हिंदी बोलते हैं. हिंदी बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली की राजभाषा में शामिल है. लेकिन हिंदी का एक भी साहित्यकार ऐसा नहीं है जो हिंदी में कथा-कहानी लिखकर अपना जीवन यापन आसानी से कर ले रहा हो! यहां अपने लेखन से रोजगार पाने वाले न तो चेतन भगत जैसे पॉपुलर राइटर हैं और न ही प्रतिरोध की आवाज उठाने वाली अरुंधति राय जैसा कोई, जिसका लिखा इतना पढ़ा जाता है कि उनका जीवन सिर्फ लेखन से ही चल जाता है.

वर्षों से जब भी हिंदी के किसी लेखक-पत्रकार द्वारा हिंदी भाषा में स्वतंत्र काम करके जीवन यापन करने की बात हुई हो तो दो-तीन उदाहरण बार-बार आते हैं. एक निर्मल वर्मा, दूसरा राजेन्द्र यादव और तीसरा उदय प्रकाश. निर्मल वर्मा और राजेन्द्र यादव तो अब नहीं रहे लेकिन हम जानते हैं कि निर्मल वर्मा रचनात्मक लेखन भले ही हिंदी में करते थे मगर जीवनयापन के लिए वह अंग्रेजी में लिखते थे.

राजेन्द्र यादव सिर्फ लेखन से अपना जीवनयापन नहीं कर रहे थे बल्कि हंस जैसी वैचारिक पत्रिका का संपादन कर रहे थे, जिसकी अपनी अर्थव्यवस्था थी. हां, वह लेखक पूरी तरह हिंदी के ही थे. उदय प्रकाश आज हिंदी के सबसे लोकप्रिय लेखक हैं लेकिन उनका जीवनयापन का एक मात्र साधन सिर्फ हिंदी में लेखन नहीं है, बल्कि उन्हें जीवन जीने के लिए तरह-तरह के पापड़ बेलने पड़े हैं.

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हिंदी की गरीबी की वजह क्या है?

क्या कारण है कि देश का लगभग आधा भूभाग हिंदी भाषा बोलने और लिखने वालों से भरा है लेकिन एक भी आदमी पूरी तरह उस भाषा में लिखकर कमा खा नहीं पा रहा है? और फिर जो भाषा इतनी दरिद्र हो, उस भाषा का महिमामंडन क्यों किया जा रहा है? माना जा रहा है कि ये एक ऐसा समय है जब देश की राजनीति में बीजेपी का ‘हिन्दू, हिंदी, हिन्दुस्तान’ का नारा प्रभावी हो गया है. अगर सचमुच ऐसा है तो हिंदी की इतनी दुर्दशा क्यों है?

हिंदी की दरिद्रता को समझने के लिए सबसे जरूरी इस बात को समझना है कि हिंदी देश के रुलिंग क्लास यानी शासक वर्ग की भाषा क्यों नहीं बन पाई. अगर हिंदी शासक वर्गों की भाषा होती तो आम लोगों में इस भाषा को लिखने और पढ़ने में दिलचस्पी होती.

हिंदी भाषा का इलीट इंग्लिश में जीता है

इसे समझने के लिए हम उन प्रदेशों के राजनेताओं को देखना होगा कि वे भाषा को लेकर क्या बोलते थे और व्यवहार में इस भाषा को बोलने-लिखने वालों से कितनी नफरत या उनकी कितनी अनदेखी करते थे. इसके साथ ही हमें यह भी देखना पड़ेगा कि अनवरत अवहेलना झेलने के बाद हिंदी किन लोगों की भाषा रह गई थी. इसे बोलने-लिखने वाले कौन हैं?


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हिंदी भाषी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को देखें तो हम पाते हैं कि आजादी के बाद लंबे समय तक ज्यादातर मुख्यमंत्री ऐसे थे, जिनकी मातृ भाषा भले ही हिंदी हो, उनकी पढ़ाई लिखाई का अनिवार्य हिस्सा अंग्रेजी में हुआ. यह भी तथ्य है कि उनमें सभी सवर्ण जातियों के थे. हिंदी उन्हें भले ही आती हो लेकिन खासकर नौकरशाही और न्यायपालिका में अंग्रेजी का दबदबा इतना अधिक था कि वे अंग्रेजी में बात करके ज्यादा सहज महसूस करते थे.

अपनी संतानों के लिए हिंदी का निषेध

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिंदी में अनेक ऐसे लेखक-कवि हुए जिनकी शिक्षा अंग्रेजी में हुई लेकिन उन्होंने हिंदी में ही लिखना मुनासिब समझा. अज्ञेय, निर्मल वर्मा, रधुवीर सहाय, राजेन्द्र माथुर, अशोक वाजपेयी और विष्णु खरे जैसे अनेक नाम आपको वैसे मिल जाएंगे. इन लोगों ने हिंदी में नाम तो खूब कमाया लेकिन सभी नामचीन साहित्यकारों ने अपने बाल-बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूलों में भर्ती करवाया.

इतना ही नहीं, स्कूल-कॉलेजों में हिंदी पढ़ाने वाले शिक्षकों और प्रोफेसरों के बच्चों की शिक्षा-दीक्षा भी आम तौर पर इंग्लिश मीडियम स्कूलों में हुई क्योंकि तब तक उन्हें लगने लगा था कि हिंदी भाषा अपनी लड़ाई हार चुकी है. यह सिर्फ संयोग नहीं है कि हिंदी साहित्य के सबसे बड़े लेखक प्रेमचंद के दोनों बेटों की शिक्षा अंग्रेजी मीडियम स्कूल और कॉलेजों में हुई थी.

नौकरशाही में अंग्रेजी की बढ़ती ताकत का परिणाम यह हुआ कि हिंदी भाषी मध्यम वर्ग ने भी अपने बच्चों को हिंदी मीडियम स्कूलों में भेजना बंद कर दिया. वहां सिर्फ गरीबों और कमजोर जातियों के बच्चे रह गए. इसका असर हिंदी मीडियम स्कूलों पर भी हुआ और वहां भी शिक्षकों और विद्यार्थियों का मनोबल टूट गया.

इसका सबसे दुखद परिणाम यह हुआ कि हिंदी कभी भी विमर्श की भाषा नहीं बन पाई. ऐसा नहीं कि हिंदी में इसकी पहल नहीं हुई. आजादी के शुरूआती दशक में कुछेक अखबार और पत्रिकाओं में गंभीर बहस होती थी लेकिन बाद के दिनों में हिंदी का पूरा विमर्श अनुवाद की भाषा में विमर्श बनकर रह गया. इससे भी अलग परेशानी यह रही कि हिंदी में रोजगार के अवसर कम होने के कारण नई पीढ़ी के प्रतिभाशाली लोगों ने इस भाषा से मुख मोड़ लिया.

हिंदी पत्रकारिता का भाषायी और जातीय चरित्र

तीसरा बड़ा कारण यह भी रहा कि पहली पीढ़ी के हिंदी सीखने और लिखने वाले अधिकतर लोग दलित, पिछड़ा, आदिवासी, अल्पसंख्यक या फिर अति गरीब सवर्ण ही रह गए, जिन्हें रोजगार देनेवाला कोई नहीं था. भाई-भतीजावाद से प्रभावित हिंदी पत्रकारिता में स्वजातीय इलीट सवर्णों का बोलबाला हो गया क्योंकि ज्यादातर मीडिया संस्थानों में नौकरी देने की कोई पारदर्शी व्यवस्था है ही नहीं. ज्यादातर नियुक्तियां जान-पहचान से हो रही हैं और चूंकि पत्रकारिता के शिखर पर सवर्ण ज्यादा हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से उन्हें ही ज्यादा नौकरियां मिल रही हैं. हालांकि जातिवाद की बीमारी इंग्लिश मीडिया में भी कम नहीं है.


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आज हिंदी पढ़ने वाले अधिकांश लोग पहली पीढ़ी के साक्षर हैं जो मूलतः सामाजिक रूप से सबसे दीन-हीन व पिछड़े-दलित समुदाय से आते हैं जबकि हिंदी के अधिकांश लेखक व पत्रकार सवर्ण हैं. यह खाई भाषा को जीवंत बनने से रोक रही है.

बाद के दिनों में जब दलित-पिछड़े नेता सत्ता में आए तो उनके दिमाग में भाषा को लेकर कोई स्पष्ट सोच ही नहीं रह गई थी. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि जो भी संस्थान थे, उन्हें नष्ट होने से बचाने के लिए उन लोगों ने कोई पहल नहीं की. इस तरह पूरे हिंदी समाज से विमर्श और वैचारिकी खत्म हो गई. उनके पास न शिक्षा रह गई थी और न ही रोजगार रह गया था. अपवादों को छोड़कर हिंदी मीडियम में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे आधी लड़ाई तो रोजगार के लिए संघर्ष शुरू होने से पहले ही हार गए होते हैं.

हिंदी समाज का भाषा प्रेम एक ढकोसला है. हिंदी जबतक ज्ञान और विमर्श की भाषा नहीं बनेगी तब तक हिंदी में रोजगार के अवसर नहीं बढ़ेंगे और जिन्हें रोजगार मिलेगा वह असली हकदार नहीं होंगे.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार है.यह लेख उनके निजी विचार हैं)

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