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Friday, 29 March, 2024
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हिंदी की बात छिड़ी तो नेहरू ने क्यों कहा था, ‘अच्छा काम, गलत वक्त पर बुरा काम हो जाता है’

गांधी ने कहा था, 'हिंदुस्तानी भाषा न ही संस्कृतनिष्ठ और न ही परसियन होनी चाहिए. बल्कि ये इन दोनों की मिश्रण होनी चाहिए.

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एक देश में अलग-अलग जगह पर रहने वाले लोगों के बीच बोली जाने वाली भाषाएं भी भिन्न होती है. ऐसे में एक दूसरे से बात या संपर्क कैसे किया जाए यह सवाल हमारे आगे खड़ा होता है. भारत का संविधान जब बन रहा था उस समय संविधान सभा में इस बात को लेकर भी बात उठी और इस पर कई दिनों तक चर्चा चली. चर्चा के दौरान सभा में मौजूद नेताओं ने भाषा को लेकर अपनी-अपनी दलीलें दी.

वरिष्ठ पत्रकार और हिंदी भाषा पर लगातार काम कर रहे राहुल देव कहते हैं, ‘गांधी जी 1918 से हिंदी को लेकर बात करना शुरू कर चुके थे. उसी समय चैन्नई में गांधी जी ने राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना कर दी थी. गांधी जी हिंदुस्तानी भाषा की बात करते थे. इसके पीछे का कारण था हिंदू-मुस्लिम एकता. लेकिन विभाजन के बाद हिंदुस्तानी भाषा की बात बंद हो गई.’

महात्मा गांधी का मानना था कि ‘भाषा ऐसी होनी चाहिए जो सभी को आसानी से समझ आ सकें.’ ऐसे में हिंदुस्तानी जो कि हिंदी और उर्दू से मिलकर बनी भाषा है, महात्मा गांधी इसे भारत की आदर्श भाषा को तौर पर देखना चाहते थे. उनका मानना था कि यह भाषा ‘सांस्कृतिक विरासत’ की प्रतीक है और हिंदू-मुसलमान दोनों को एक भी करती है.

भाषा का संबंध मजहब से नहीं है

भाषा के सवाल को लेकर और किस भाषा को राजकाज की भाषा बनानी चाहिए इस पर देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की राय अपने समकक्ष के कई नेताओं से भिन्न थी. नेहरू मानते थे कि ‘भाषा के नाम पर हम मुल्क को नहीं तोड़ सकते हैं.’ उनका मानना था कि भाषा का संबंध ‘मजहब’ से नहीं है. भाषा ऐसी होनी चाहिए जो ज्यादा से ज्यादा लोगों के समझ में आए. नेहरू चाहते थे कि सभी की बुनियादी शिक्षा अपनी मातृभाषा में होनी चाहिए.


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13 मार्च 1948 को सेवाग्राम में नेहरू ने कहा था, ‘ड्राफ्ट कांस्टीट्यूशन में अंग्रेजी रखी गई है, तो वह सही रखी गई है. न रखना बड़े पैमाने पर झगड़ा-फसाद मोल लेना है. माना कि हमारी एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए. लेकिन उसके लिए यह मौका नहीं है. अच्छा काम, गलत वक्त पर बुरा काम हो जाता है.’

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19वीं सदी का अंत होते-होते भाषा के तौर पर हिंदुस्तानी में काफी बदलाव होने लगा. सांप्रदायिक वजहों से हिंदी और उर्दू दूर होते चले गए. वहीं दूसरी तरफ हिंदी को संस्कृतनिष्ठ करने की कोशिशें तेज़ होने लगीं तो उर्दू में परसियन प्रभाव दिखने लगा. इन सबके बावजूद महात्मा गांधी हिंदूस्तानी (हिंदी और उर्दू ) के पक्ष में खड़े रहें.

भाषा को लेकर समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया कहते थे, ‘अंग्रेजी गुलामी की भाषा है. अंगेजी भाषा ने देश को दो जातियों में बांट दिया है. एक, जो संभ्रांत लोगों के लिए है और अंग्रेजी बोलता है. दूसरे जो कमज़ोर हैं.’

हिंदी या उर्दू तक सीमित रहना राष्ट्रवाद की आत्मा के खिलाफ

12 अक्टूबर 1947 को हरिजन में महात्मा गांधी राष्ट्रभाषा में क्या गुण होने चाहिए उसे विस्तार से लिखते हैं. इस दौरान गांधी भाषा को लेकर उठ रहे सवालों पर भी अपने विचार रखते हैं. गांधी ने कहा था, ‘हिंदुस्तानी भाषा न ही संस्कृतनिष्ठ और न ही परसियन होनी चाहिए. बल्कि ये इन दोनों की मिश्रण होनी चाहिए. इसके अलावा दूसरी भाषाओं और विदेशी भाषाओं से भी इसमें शब्द जोड़ा जाना चाहिए. यह इस शर्त के साथ होनी चाहिए कि जोड़े गए शब्द हमारी राष्ट्रभाषा के साथ अच्छे से मिल जाए. इससे फायदा ये होगा कि हमारी भाषा पूरी मानव जाति के विचार को प्रतिबिंबित कर पाएगी. मेरा यह भी मानना है कि किसी व्यक्ति को सिर्फ हिंदी या उर्दू तक सीमित रखना भी राष्ट्रवाद की आत्मा के खिलाफ होगा जो कि सबसे बड़ा जुर्म है.’

संविधान सभा में भाषा को लेकर उठे सवालों को कैसे सुलझाया गया

राहुल देव कहते हैं, ‘दक्षिण खासकर तमिलनाडु में शुरू से ही एक अलगाववाद का भाव और विचार रहा है. उसी समय पेरियार के नेतृत्व में आर्य बनाम द्रविड की राजनीति शुरू हो गई.’

‘दक्षिण भारत के लोग 3-4 कारणों की वजह से उत्तर भारत के लोगों से अपने को अलग मानते थे. जिसमें आर्य बनाम द्रविड संघर्ष, हिंदी बनाम तमिल, संस्कृत बनाम तमिल और ब्राह्मणवाद बनाम द्रविडवाद शामिल था. इन्हीं खंभों पर दक्षिण का विरोध था.’

‘जिसे पेरियार ने मुद्दा बनाकर अलग द्रविडनाडु( मलयालम, कन्नड, तेलुगू और तमिलनाडु) बनाना चाहते थे. लेकिन इसे लेकर आंदोलन इतना उग्र हो गया कि मलयालम, कन्नड और तेलुगू वालों ने इस आंदोलन से खुद को अलग कर लिया. इनके मन में भारतीयता के प्रति कभी भी शत्रु भाव नहीं था. बाद में द्रविडनाडु से शुरू हुआ आंदोलन तमिलनाडु पर आकर टिक गया.’

वह आगे बताते हैं, ‘भाषा के मुद्दे पर इतनी तीखी बहस हो रही थी कि लग रहा था कि संविधान सभा ही बिखर जाएगी. लेकिन संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने तय किया कि संविधान सभा में भाषा को लेकर बात नहीं होगी. इसको लेकर अलग से 3 दिन तय कर दिए गए थे. इसके बाद मुंशी-आयंगर फॉर्मुला आया. जिसे ऑस्ट्रिन ने ‘हाल्फ हार्टिड काम्प्रोमाइज़’ (आधे दिल से किया गया समझौता) कहा था.  इसके बाद सभी ने हिंदी को लेकर समझौता कर लिया था.

‘भाषा को लेकर जो संविधान सभा में बहस हुई वो वैज्ञानिक तौर पर नहीं बल्कि राजनीतिक दृष्टि से हुई थी. हिंदी के लोगों में राजऋृषि टंडन और संपूर्णानंद इतने उग्र हो गए थे कि बाकी भाषाओं के लोगों में प्रतिक्रिया होने लगी. जो कि उस समय हिंदी के पैरोकारों से सबसे बड़ी रणनीतिक गलती हुई थी.’

दक्षिण भारत से शुरू हुआ हिंदी भाषा का विरोध

हिंदी को राजकाज की भाषा बनाने की पहल सबसे पहले 1928 के आसपास शुरू हुई थी. मोतीलाल नेहरू ने इसे लेकर पहल की थी. लेकिन उस समय इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. लेकिन 10 साल बाद दक्षिण भारत से हिंदी को लेकर विवाद तब शुरू हुआ जब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री राजागोपालाचारी ने हिंदी को स्कूलों में अनिवार्य बनाने के लिए प्रस्ताव दिया था. इसके विरोध में ई. रामास्वामी पेरियार के नेतृत्व में एक बड़ा स्वदेशी आंदोलन शुरू हुआ. तमिल नेताओं की मांग थी की हिंदी को उनके ऊपर थोपा न जाए. भाषा को मुद्दा बनाकर ही दक्षिण में द्रविडियन राजनीति की शुरूआत हुई.


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कुछ सालों के लिए मामला सुलझ गया लेकिन 1965 के आसपास लाल बहादुर शास्त्री ने हिंदी को अनिवार्य बनाने की पहल की. जिसके बाद एक बार फिर से बड़ा विवाद शुरू हो गया था. उस दौरान तमिलनाडु के मुख्यमंत्री अन्नादुर्रई के नेतृत्व में आंदोलन हुआ. जिसमें सैकड़ो लोगों की मौत हुई. समय-समय पर दक्षिण भारत से आवाज़ उठती रहती है कि हिंदी को उनपर थोपने की कोशिश न की जाए. हाल ही में आई नई शिक्षा नीति में त्रिभाषा फॉर्मुले के मुद्दे पर भी दक्षिण भारत से आवाज़ उठी जिसके बाद इसे वापस ले लिया गया.

‘भाषा को लेकर 15 साल का अस्थायी समझौता हुआ था. 1964-65 में दक्षिण में फिर से आंदोलन शुरू हो गया. जिसके कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री तनाव में आ गए. इस आंदोलन ने अंग्रेजी को अनंतकाल तक प्रतिस्थापित कर दिया.”

आठवीं अनुसूची से मिला क्षेत्रीय भाषा को महत्व

मुंशी-आयंगर फॉर्मुले के तहत भाषा समिति ने सभी क्षेत्रीय भाषाओं को सम्मान देने के लिए आठवीं अनुसूचि बनाई. इसके तहत पहले 14 भाषाओं को क्षेत्रीय भाषा के तौर पर इस सूची में जगह दी गई. समय-समय पर अन्य क्षेत्रीय भाषाएं इस सूची में जुड़ती गई. वर्ष 2004 में कुछ भाषाओं (बोडो, संथाली,मैथिली और डोगरी) के जुड़ने से इस सूची में कुल 22 क्षेत्रीय भाषाएं हो गई हैं.

बता दें कि फिलहाल ‘भोजपुरी और राजस्थानी भाषा को 8वीं अनुसूची में शामिल कराने के लिए आंदोलन हो रहे हैं. 8वीं अनुसूची के बारे में संविधान में स्पष्टता नहीं है. अनुच्छेद-351 में कहा गया कि हिंदी को भारत की सामासिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने लायक बनाना है. 8 वीं अनुसूची में उस समय शामिल 14 भाषाओं से शब्द लेकर हिंदी के शब्द भंडार को समृद्ध करना था लेकिन यह पूरी तरह नहीं हो सका है.’

लॉ कमिशन ने 2008 में अपनी 216वीं रिपोर्ट में भाषा से जुड़े सवालों पर सिफारिशें दी थी. समिति ने कहा था कि भाषा किसी भी राष्ट्र की भावना से जुड़ा मुद्दा है. भाषा देश को जोड़ता है और समाजिक बदलाव के क्षेत्र में भी काफी प्रभावित करता है.

भारतीय भाषाओं को बचाने के लिए सिर्फ 30-35 सालों का ही समय है

राहुल देव मानते हैं, ‘भारतीय भाषाओं के पास सिर्फ अगले 30-35 सालों का ही समय है. अगर आज इन भाषाओं को बचाने के लिए बड़े स्तर पर प्रयास नहीं करेंगे तो हम इन्हें बचा नहीं पाएंगे. इसके पीछे के कारणों पर राहुल देव कहते हैं कि बड़ा सवाल यह है कि क्या देश में हिंदी भाषा की मांग बची है. वो कहते हैं, ‘देश के किसी भी हिस्से में क्षेत्रीय भाषाओं की कोई मांग नहीं है. अंग्रेजी का प्रभुत्व बढ़ रहा है. गांव, कस्बों तक अंग्रेजी का फैलाव हो रहा है.’

‘अभी देश के 30-40 फीसदी बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हर साल 50-60 फीसदी अंग्रजी माध्यम के स्कूल बढ़ रहे हैं.’

भाषा के पीछे सांस्कृतिक चेतना, भूगोल और इतिहास 

दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर राकेश सिन्हा कहते हैं, ‘हिंदी बोलने वालों की संख्या बहुत बड़ी है. लेकिन हिंदी और बाकी भाषाओं को अंग्रेजी से खतरा है. अंग्रेजी को जीवन का आधार बना लेना सही नहीं है.’

उनका कहना है, ‘भाषा के पीछे एक संस्कृति जुड़ी होती है. हिंदी सहित भारतीय भाषाओं ने जो एक भाव दिया है उसे अंग्रेजी नहीं अंग्रेजियत से खतरा है.’


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राकेश सिन्हा कहते हैं, ‘जहां-जहां अंग्रेजी का फैलाव हुआ है वहां-वहां क्षेत्रीय भाषाओं का पराभव हुआ है. जहां-जहां अंग्रेजी का फैलाव हुआ है उसने अपने अनुसार सबको ढाल लिया है.’

राहुल देव कहते हैं, ‘हमारे घरों में भाषाओं का भविष्य खड़ा है. अगर यथार्थ देखना है तो अपने घरों में बच्चों के भाषा व्यवहार को देखना चाहिए. वो कौन सी भाषा मांग रही है और कौन सी भाषा अपना रही है. इससे तय होगा कि भाषाओं का भविष्य क्या होगा. मुझे लगता है कि ऐसा ही चलता रहा तो हिंदी भी जीवंत और सशक्त भाषा के रूप में नहीं बचेगी और बाकी भाषाएं भी नहीं बचेंगी. वो गरीबों की गरीब भाषा बनकर रह जाएगी.’

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