केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन काम करने वाली ‘भारत-तिब्बत सीमा पुलिस’ (आईटीबीपी) सन 2004 से ‘एक सीमा, एक सेना’ सिद्धांत के तहत चीन-भारत सीमा की रखवाली की ज़िम्मेदारी निभा रही है. जिस विवादास्पद सीमा रेखा पर चीन ने 1993 के बाद कई सीमा समझौतों के बावजूद जमीन हड़पने का काम किया है वहां रक्षा की ज़िम्मेदारी सेना की है. इसका नतीजा यह हुआ है कि आईटीबीपी की कमान और कंट्रोल गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय के बीच विवाद का विषय बन गया है.
‘इकोनॉमिक टाइम्स’ अखबार ने ‘सरकारी सूत्रों’ के हवाले से 15 अगस्त को खबर दी कि नरेंद्र मोदी सरकार इस प्रस्ताव पर विचार कर रही है कि सेनाओं की वापसी की प्रक्रिया खत्म हो जाने के बाद भविष्य में भारतीय सेना और चीनी सेना पीएलए के बीच टक्कर न हो इससे बचने के लिए वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर आईटीबीपी को प्रमुख ज़िम्मेदारी सौंपी जाए. इस खबर के मुताबिक, चीन की बॉर्डर डिफेंस रेजीमेंट और आईटीबीपी के बीच औपचारिक संचार चैनल स्थापित करने की भी योजना है, जिससे अब तक सेना जुड़ी रही है.
‘प्रमुख या अधिक सक्रिय ज़िम्मेदारी’ का क्या मतलब है? क्या आईटीबीपी का पुनर्गठन करके उसे अग्रिम रक्षा पंक्ति बनाया जाएगा और वह उत्तरी तथा पूर्वी थिएटर कमांड के अधीन रहेगा? या ऐसी संभावना बन रही है कि कूटनीतिक प्रयासों के फलस्वरूप स्पष्ट रूप से निर्धारित सीमा रेखा तय होने वाली है, जिसकी निगरानी आईटीबीपी उसी तरह करेगी जिस तरह सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ), सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी), असम राइफल्स गैर-विवादित सीमाओं की करते हैं?
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भारत-चीन विवादित सीमा रेखा
गैर-विवादित सीमाओं की निगरानी आदि इसलिए की जाती है कि अंतरदेशीय यात्राओं, व्यापार का नियमन किया जा सके, अवैध आवाजाही, तस्करी आदि को रोका जा सके. दुनियाभर में पुलिस/अर्द्धसैनिक बल ही सीमाओं की व्यवस्था देखते हैं. चिन्हित या अचिन्हित विवादित सीमाओं पर इन व्यवस्थाओं के देखने के अलावा उनकी सुरक्षा भी की जाती है क्योंकि दुश्मन देश हमेशा जमीन हड़पने और सामरिक लिहाज से बढ़त लेने की फिराक में रहता है. इसलिए विवादित सीमाओं पर निगरानी करने वाले बल को सेना के साथ जुड़ना चाहिए और रक्षा की अगली पंक्ति के रूप में काम करना चाहिए. कहा जा सकता है कि विवादित सीमाओं पर दोनों तरह के काम करने के लिए सेना की ताकत बढ़ाई जानी चाहिए. लेकिन इस उपाय के साथ खर्चे, सैनिकों की बड़ी संख्या, तनाव बढ़ने का जोखिम और कंट्रोल लाइन्स के इलाकों की स्थिति का पहलू जुड़ा होता है.
भारत-चीन की विवादित सीमा के मामले में फिलहाल सेनाएं और आईटीबीपी रक्षा और गृह मंत्रालयों के अधीन स्वतंत्र रूप से काम कर रहे हैं. सूचना के प्रवाह और तालमेल के प्रति प्रतिरोध साफ दिखता है. व्यवस्था समेत कामकाज के सभी पहलुओं का दोहराव दिखता है. इस हद तक कि हाल में पूर्वी लद्दाख में संकट के दौरान आईटीबीपी को सेना की कमान में नहीं रखा गया. सेना के चार डिवीजन तैनात किए जाने के बावजूद पूर्वी लद्दाख में सीमा की 35 चौकियां (बीओपी) अपनी मूल स्थिति में अपने बूते अलग-थलग पड़ी रहीं.
आईटीबीपी 60 साल पुराना पेशेवर पुलिस बल है जो पहाड़ी इलाकों में काम करने को अभ्यस्त है. लेकिन इसका ढांचा, संगठन और इसके साजोसामान उस स्तर के नहीं हैं कि वह प्रथम रक्षापंक्ति के तौर पर प्रभावी रूप से काम कर सके. सहयोग और तालमेल की कमी समस्या में और इजाफा करती है. इसे आधुनिक थल सेना की बटालियन की तरह संगठित करना जरूरी है और हर मकसद से इसे सेना की कमान में रखा जाना चाहिए. भारत-चीन सीमा की रखवाली मूल मुद्दा नहीं है. यह काम रक्षा मंत्रालय/सेना कर सकती है.
फिलहाल आईटीबीपी की 63 बटालियन 180 बीओपी पर तैनात है. 47 और बीओपी बनाए जा रहे हैं. विवादित सीमाओं का हमारा अनुभव रहा है कि एलएसी और एलओसी के अनछुए क्षेत्रों पर विरोधी पक्ष ने पहले से ही कब्जा जमा लिया. करगिल और पूर्वी लद्दाख में यही हुआ. छोटे पैमाने पर इस तरह की खबरें अरुणाचल प्रदेश से आती रहती हैं. इसलिए 3,488 किलोमीटर लंबी भारत-चीन सीमा पर बड़ी संख्या में बीओपी बनाने की जरूरत है.
मेरे ख्याल से आईटीबीपी की ताकत दोगुना बढ़ाने की जरूरत है. इसे छत्तीसगढ़ में बगावत विरोधी कार्रवाई, वीआईपी सुरक्षा, संवेदनशील ठिकानों की सुरक्षा जैसे कामों से हटाने की जरूरत है.
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गैर-विवादित सीमाओं की रखवाली
मित्र देशों के साथ लगी सीमाओं पर सेना की कोई बड़ी भूमिका नहीं होती और सीमाओं की रखवाली/निगरानी गृह मंत्रालय के अधीन हो सकती है. लेकिन पाकिस्तान के साथ संघर्ष की बड़ी आशंका के मद्देनजर सीमा रखवाली बल को तनाव की स्थिति में सेनाओं के अधीन राष्ट्रीय सुरक्षा का अभिन्न अंग बनना चाहिए.
चीन के साथ बड़ी कूटनीतिक कामयाबी एलएसी के रेखांकन को संभव बना सकता है. इसका अर्थसीमा विवाद का हल नहीं माना जाना चाहिए. अब तक के अनुभव बताते हैं कि अलग-अलग स्तर का टकराव की ऊंची संभावना बनी रह सकती है. सुरक्षा की दृष्टि से भारत-चीन सीमा विवादास्पद बनी रहेगी.
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सरकार को समझना चाहिए
हमारा सशस्त्र पुलिस बल 10 लाख कर्मियों वाला है. इनमें से पांच लाख बीएसएफ, आईटीबीपी, एसएसबी और असम राइफल्स को मिलाकर हैं जो 374 बटालियनों में संगठित हैं और सीमा की रखवाली/निगरानी में तैनात हैं. कोस्ट गार्ड यही काम समुद्र में कर रहे हैं.
सीमाओं की रखवाली करने वाला यह विशाल बल एक राष्ट्रीय संपदा है. तनाव/युद्ध के दौरान उन्हें सेनाओं के साथ मिलकर काम करना चाहिए. उन्हें इस तरह संगठित, लैस और प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि वे दोहरी भूमिका निभा सकें. विवादित सीमाओं पर उन्हें सेना के अधीन ही काम करना चाहिए और अविवादित सीमाओं पर युद्ध के दौरान उन्हें सेनाओं की कमान में रहना चाहिए. युद्ध के दौरान ऑपरेशन में उनकी तैनाती उनके साजोसामान, प्रशिक्षण और मानदंडों का एक हिस्सा होती है और यह पारंपरिक ऑपरेशनों से लेकर छापामार युद्ध के हिसाब से निर्धारित हो सकता है.
टकराव या युद्ध के दौरान सीमाओं की रखवाली करने वाले बलों की सेनाओं की कमांड में तैनाती किस तरह होनी चाहिए, यह यूनियन वार बुक में निर्देशित है, लेकिन उनके ढांचे, संगठन, साजोसामान और अस्पष्ट कमांड/कंट्रोल के कारण तालमेल अपेक्षित स्तर का नहीं हो पाता. इस मूल्यवान ताकत का राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अधिकतम उपयोग न किया जा सके तो यह एक दुखद बात ही होगी.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्यूनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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