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Wednesday, 1 May, 2024
होममत-विमत'अमीर का कौआ मोर और गरीब का बच्चा चोर': देश को कितनी महंगी पड़ रही है यह अमीरी

‘अमीर का कौआ मोर और गरीब का बच्चा चोर’: देश को कितनी महंगी पड़ रही है यह अमीरी

शायद ही कोई इससे अनजान हो कि अडानी की संपत्ति में रॉकेट की गति से इजाफा हुआ है तो उसमें जितनी भूमिका उनकी व्यावसायिक कुशलता की है, उससे कहीं ज्यादा उनकी 'शुभचिंतक सत्ता' की है.

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हमारे बचपन में आकाशवाणी पर प्रायः हर सुबह एक उद्बोधन गीत बजा करता था: रातोंरात अमीर हुआ जो उसने की गद्दारी है, उसको इज्जत मत दो भइया…! उस दौर में बापू की यह बात लोग पूरी तरह नहीं भूले थी कि यह धरती जरूरत तो हर किसी की पूरी कर सकती है, परंतु पृथ्वी मनुष्य के लालच को पूरा नहीं कर सकती है. इसलिए किसी की अमीरी उसका अपराध नहीं तो शर्म की बात जरूर थी और उसके प्रदर्शन को बेहयाई माना जाता था. लेकिन अब न सिर्फ वक्त बदल गया है बल्कि देश के सत्ताधीशों ने संविधान के बराबरी के सपने को अमीरी के सपने से प्रतिस्थापित कर उसे बेहद आदरणीय बना डाला है.

इसलिए ब्लूमबर्ग बिलिनेयर इंडेक्स में भारत के अडानी ग्रुप के चेयरमैन गौतम अडानी के दुनिया का तीसरे सबसे बड़ा अमीर बन जाने के सेलीब्रेशन में किसी को कोई अपराधबोध नहीं सता रहा. ज्यादातर समाचार माध्यमों में यह खबर देते हुए कहा गया है कि यह ‘मुकाम’ हासिल करने वाले वे एशिया के पहले व्यक्ति हैं. उन्होंने इसे फ्रांस के दिग्गज कारोबारी बर्नार्ड आरनॉल्ट को पछाड़कर पाया है और अब टेस्ला के सीईओ एलन मस्क व अमेजन के संस्थापक जेफ बेजोस ही उनसे आगे हैं.

एक अखबार ने तो यहां तक लिख डाला है कि अडानी की संपत्ति रॉकेट की गति से बढ़ रही है और बहुत संभव है कि उनके नंबर वन बन जाने के बाद भी बढ़ती ही रहे. अभी गत फरवरी में ही वे मुकेश अंबानी को पछाड़कर एशिया के सबसे बड़े रईस बने थे. अप्रैल में उनकी नेटवर्थ 100 अरब डॉलर को पार कर गई थी और पिछले महीने माइक्रोसॉफ्ट के बिल गेट्स को पछाड़कर उन्होंने किसी समय इंडेक्स में चौथे स्थान पर काबिज मुकेश अंबानी की बराबरी कर ली थी. और अब उनसे एक कदम आगे निकल कर वहां पहुंच गये हैं, जहां चीन के जैक मा भी नहीं पहुंच पाए.

समाचार माध्यमों ने इसके आगे उनकी और उनके प्रतिद्वंद्वी अमीरों की कुल नेटवर्थ के जो विवरण दिये हैं, उनका कोई खास मतलब नहीं है क्योंकि हम पहले से जानते हैं कि दुनिया की कुल संपत्ति व संसाधनों का कितना बड़ा हिस्सा उन अमीरों के कब्जे में है और उसकी गैर अमीर आबादी को उनके कितने मामूली हिस्से से जीवन निर्वाह करना पड़ रहा है.

निस्संदेह, उनके विवरण बहुत सार्थक होते अगर वे बताते कि देश के तौर पर हमें अडानी और उन जैसे दूसरों की बढ़ती अमीरी की कितनी कीमत चुकानी पड़ रही है? यों, किसे नहीं मालूम कि कोई अमीर कितने और गरीबों को और गरीब बनाकर और अमीर बनता है और इससे बराबरी के सपने को कितनी बेरहम टूट-फूट का सामना करना पड़ता है?

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वादे जो अधूरे रह गए

प्रसंगवश, अडानी को दुनिया के अमीरों में यह संभवतः सबसे तेज तीसरा नंबर ऐसे सत्ताधीशों के राज में हासिल हुआ है जिन्होंने 2022 तक देश के अन्नदाताओं कहें या किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वायदा कर रखा था. लेकिन बाद में वे इस वृद्धि का आधार वर्ष बताने से मुकर गये थे और अब तो उसकी बात करने पर भी उनका थूक गले में अटकने लग जाता है. कारण यह कि उन्होंने 2016 में इस दोगुनी आयवृद्धि की रणनीति बनाने के लिए जो अंतरमंत्रालय समिति गठति की थी, उसने सितंबर, 2018 में दी गई अपनी रिपोर्ट में फसलों के उत्पादन व पशुधन में बढ़ोतरी करने, उत्पादन लागत में कमी लाने, किसानों को संसाधनों के उपयोग में दक्ष बनाने, फसलचक्र बदलकर एक-एक साल में कई-कई व ज्यादा कीमत वाली फसलें उगाने, उनकी वास्तविक कीमतें सुधारने और कृषि से गैरकृषि व्यवसायों में बदलाव की ओर बढ़ने जैसी सात सिफारिशें की थीं.

लेकिन आज की तारीख में शायद ही किसी को मालूम हो कि उन सिफारिशों का क्या हुआ?

दूसरी ओर शायद ही कोई इससे अनजान हो कि अडानी की संपत्ति में रॉकेट की गति से इजाफा हुआ है तो उसमें जितनी भूमिका उनकी व्यावसायिक कुशलता की है, उससे कहीं ज्यादा उनकी ‘शुभचिंतक सत्ता’ की है.

क्या इसका एक अर्थ यह भी नहीं है कि प्रधानमंत्री खुलकर उनके शुभाकांक्षी हैं? और क्या इसीलिए उन्होंने उन्हें छूट दे रखी है कि वे भारत में जो मुनाफा कमायें, उसका विदेशों में प्रतिद्वंद्वी उपक्रमों के अधिग्रहण में खुल्लमखुल्ला इस्तेमाल करें, भले ही देश विदेशी निवेश का मोहताज बना रहे.

प्रधानमंत्री की इस शुभाकांक्षा को उसकी सारी अवांछनीयताओं व अनैतिकताओं के बावजूद बर्दाश्त किया जा सकता था, बशर्ते उनके ‘मितरों’ का एक के बाद एक नया मुकाम हासिल करना देश के किसानों व मजदूरों की दुर्दशा कम करने में रंचमात्र भी सहायक होता. लेकिन अफसोस कि देश में जैसे-जैसे उनके मित्रों की अमीरी छलांगें लगा रही है, आम लोगों की बदहाली जानलेवा होती जा रही है. अमीरों की बढ़ती संख्या की बाबत तो हम समाचार माध्यमों में रोज ही पढ़ते हैं, लेकिन गरीबों की संख्या तक को विवादास्पद बना डाला गया है. अलबत्ता, यह निर्विवाद है कि अस्सी करोड़ देशवासी अभी भी अपना पेट भरने कें लिए मुफ्त सरकारी राशन के मोहताज हैं.

जमीनी हकीकत से वाकिफ लोग जानते हैं कि यह मोहताजी उनमें इतनी निराशा पैदाकर रही है कि वे जीडीपी में साढ़े तेरह प्रतिशत के उछल की खबर से भी उत्साहित नहीं हो पाते. इस बात को राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के ताजा आकंड़े से समझना चाहें तो वे बताते हैं कि 2021 में देश में जिन 1,64,033 लोगों ने अपनी रात की सुबह तलाशते-तलाशते जिंदगी से हारकर आत्महत्या की, उनमें 42,004 यानी कि 25.6 प्रतिशत यानी एक चौथाई से ज्यादा रोज कुंए खोदने व पानी पीने वाले दिहाड़ी मजदूर थे. हां, इनमें 4,246 महिला मजदूर थे, जबकि कृषि क्षेत्र में लगे 10,881 लोगों की आत्महत्याएं इनके अतिरिक्त थीं, जिनमें 5,318 किसान थे और 5,563 खेतिहर मजदूर.


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निराशा में डूबती बड़ी आबादी

क्या अर्थ है इसका? क्या यही नहीं कि सत्ताधीशों के सपनों के ‘न्यू इंडिया’ में कुछ लोगों की समस्या यह है कि भांति-भांति के व्यंजनों से भरी अपनी थाली देखकर उन्हें समझ में ही नहीं आता कि वे क्या-क्या खायें, जबकि करोड़ों अन्य के सामने यह समस्या मुंह बाये खड़ी है कि वे खायें तो भला क्या खाये? ऐसा भी नहीं कि इन हालात का कहर मजदूरों पर ही टूट रहा हो. हालात खुद के छोटे-मोटे काम-धंधे चलाने वालों के एक बड़े वर्ग के लिए भी जानलेवा हो चले हैं. 2021 में ऐसे 20,231 कामकाजी लोग भी आत्महत्या करने को मजबूर हुए. इनमें 12,055 खुद का बिजनेस चलाते थे और 8,176 अन्य तरह के स्वरोजगारों से जुड़े थे.

ऐसे में बेरोजगारों की निराशा की कल्पना ही की जा सकती है, जिनमें 13,714 बेरोजगार और 13,089 छात्र आत्महत्या को अभिशप्त हुए. लेकिन आश्चर्य कि देश के प्रोफेशनल, वेतनभोगी और गृहणियां उनसे भी ज्यादा निराश हैं. आंकड़ों के अनुसार 2021 में 15,870 प्रोफेशनलों व वेतनभोगियों ने जबकि 23,179 गृहणियों ने आत्महत्या का रास्ता चुना. इस साल में दिहाड़ी मजदूरों की आत्महत्याओं में 11 प्रतिशत जबकि अपने कामधंधे गंवाने की निराशा में जान देने वालों की संख्या में 17 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई. बताना अनावश्यक है कि इन वर्गों में इतनी निराशा इसलिए फैली हुई है कि उनके नाम पर सरकार द्वारा घोषित राहत पैकेजों का फायदा भी, नीतिगत खामियों व खराब कार्यान्वयन के कारण, अंततः बड़े उद्योगपति यानी अमीर ही झटक लेते हैं.

दूसरे पहलू पर जाकर यह देखना चाहें कि ‘देशभक्ति’ के खुमार में डूबी और अपनी जमातों के अलावा हर किसी की देशभक्ति पर शक करती रहने वाली सरकार जिन अमीरों पर अपना सारा प्यार उड़ेलती रहती है, वे कितने देशभक्त हैं, तो हम पाते हैं कि वे तेजी से भारत और भारतीय पासपोर्ट छोड़ रहे हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो उनमें देश को अलविदा कहने की होड़-सी लग गई है क्योंकि अमीर हो जाने के बाद उन्हें भारत अपने रहने लायक नहीं लगता. 2020-2021 में ही 1.63 लाख अमीर भारतीयों ने अपनी भारतीय नागरिकता छोड़ दी थी. यह संख्या पांच साल पहले के मुकाबले दोगुनी है.

साफ है कि ‘भारत माता की जय’ बोलने से सरकारी देशभक्ति का बोझ उठाने तक सारे दायित्व उन आम व गरीब जमातों को ही उठाने पड़ रहे हैं. अमीरपरस्ती में जिनकी मेहनत मशक्कत की कोई गरिमा नहीं रहने दी गई है और जिनके नाम का रट्टा लगाकर सरकारें अमीरों का ही ‘कल्याण’ करती रहती है. सोचिये जरा कि इसके बावजूद उसके सौतेलेपन को अमीर का कौआ मोर और गरीब का बच्चा चोर लगता है.

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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