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Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतकाबुल में तालिबान घुसे तो तीन आशंकाएं उभरीं लेकिन साल भर बाद एक भी सही साबित नहीं हुई

काबुल में तालिबान घुसे तो तीन आशंकाएं उभरीं लेकिन साल भर बाद एक भी सही साबित नहीं हुई

अमेरिका और उसके पहले सोवियत संघ की तरह, चीन को भी पता चल रहा है कि महाशक्तियों की भव्य योजनाएं अफगानिस्तान की हकीकतों के आगे टिक नहीं पातीं.

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आंखें बंद कर लें, तो कल्पना करना संभव है कि काबुल के सर-ए-सब्जी इलाके में कुछ अनगढ़ डिजाइन वाले दस मंजिला टॉवर शंघाई के लुजियाजुई बिजनेस डिस्ट्रक्ट के प्रतीक की तरह रोशनी से उभर रहे हैं. सही भी है, क्योंकि इमारत पर राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बेल्ट और रोड योजना के चटक लाल रंग के साइन गाहे-बगाहे ही रोशन होते हैं, लेकिन अपना बिजलीघर बनाने की चाइना टाउन की योजना जंग की वजह से पटरी से उतर गई. वादा किया गया था कि यह प्लांट जल्दी ही तैयार हो जाएगा और इसके साथ औद्योगिक पार्क, कारखाने और दफ्तर वगैरह बनेंगे.

इसी हफ्ते एक साल पहले जब काबुल पर इस्लामिक अमीरात का झंडा लहराया गया और शहर से आखिरी अमेरिकी बचाव विमान उड़ा तो कई लोगों ने यह डर जताया कि नए तालिबान शासक अपने अंतरराष्ट्रीय जेहादी सहयोगियों को सुरक्षित पनाहगाह मुहैया कराके पूरे क्षेत्र में आतंकी गतिविधियां शुरू कर देंगे.

बीजिंग में विदेश मंत्रालय के अधिकारी अमेरिका के अफगानिस्तान से निकलने पर खुशी से झूम उठे. उन्हें लगा कि मध्य एशिया में अब चीन का क्षेत्रीय एकाधिकार तय है क्योंकि उनकी महत्वाकांक्षाओं में रोड़ा लगाने वाली दूसरी महाशक्ति नहीं रह गई है. उनका मानना था कि इस्लामाबाद हिंसा का दौर खत्म करने के लिए तालिबान के साथ मिलकर काम करेगा. उसके बाद खनन और इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की बाढ़ लग जाएगी, जिससे अफगानिस्तान चीन की अगुआई वाली नई व्यवस्था में पूरी तरह शामिल हो जाएगा.

चाइना टाउन के संस्थापक यू मिंघुई ने तालिबान के कब्जे के बाद काबुल छोड़ने से इनकार कर दिया. उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा, ‘हम स्थानीय लोगों को यह संदेश नहीं देना चाहते कि हम चीनी भरोसेमंद नहीं हैं और संकट का संकेत मिलते ही भाग खड़े होंगे.’

हालांकि योजना के मुताबिक चीजें आगे नहीं बढ़ रही हैं. अफगानिस्तान में जेहादी गुटों की होड़ में हिंसा का खेल जारी है.

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अफगानिस्तान के भीतर

चांदी की तरह सफेद, मुलायम लिथियम धातु शायद नए अफगानिस्तान का इतिहास रचने में मददगार हो, जिससे दुनिया के ट्रांसपोर्ट क्षेत्र की हाइड्रोकार्बन पर निर्भरता खत्म होने की उम्मीद की जा रही है. 2010 में पेंटागन ने ऐलान किया था कि अफगानिस्तान में दस खरब डॉलर मूल्य के खनिज संसाधनों का विशाल भंडार दबा है. कहा गया कि गजनी लिथियम का सऊदी अरब बन सकता है, बोलिबिया से भी आगे. दूसर जगहों की जमीन में भी विरले भंडार और लोहा, तांबा, कोबाल्ट समेत सोने की पहाड़ खड़े हैं.

फ्रीक इल्स जैसे एक्सपर्ट इस विशाल आकलन पर शंका जाहिर करते हैं. वजह यह कि कोई नई खोज सोवियत भू-गर्भ वैज्ञानिकों के जरिए तीन दशक पहले की गई थी और प्रकाशित भी हुई थी. अमरिका भू-गर्भ सर्वे के नए अध्ययन में कमोवेश ‘अनखोजे खनिज भंडारों में संभावित मात्रा’ का आकलन भर किया गया है, न कि निकाले जाने वाले संसाधनों का वास्तविक आकलन.

सोवियत दौर की ही तरह मैदानी सर्वे और संसाधनों को बाजार तक पहुंचाने के लिए सड़कों और रेललाइनों के इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास में सालों लगेंगे, तभी यह संभव हो पाएगा. अशांत अफगानिस्तान में यह सब छोटी बातें नहीं हैं.

भारत ने हाजीगक में आयरन ऑक्साइड भंडार को लेकर योजना बनाई थी. उम्मीद की गई थी कि उसे ईरान के बॉक्साइट और खाद उद्योगों से 15 करोड़ डॉलर की लागत से बने रेलवे नेटवर्क और 8.5 करोड़ डॉलर से चाबहार बंदरगाह से जोड़ दिया जाएगा. लेकिन अफगानिस्तान में टकराव के हालात और ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर लगी पाबंदियों ने परियोजना को खत्म कर डाला.

अमेरिका ने खनिज संसाधनों के दोहन के लिए 50 करोड़ डॉलर की रकम झोंकी तो फर्जीवाड़े के आरोप उठ खड़े हुए. कुछ आकर्षक परियोजनाओं के फंड का सीधे-सीधे गबन कर लिया गया. बादख्शान में अपने नियोजित सोने के खनन से एक अरब डॉलर राजस्व और 13,000 नौकरियां देने का वादा करने वाली कंपनी सेंटार का काम शुरू ही नहीं हो पाया.

चीन की भव्य योजनएं भी कहीं की नहीं रहीं. 2007 में चीन के सरकारी मेटल्लर्जिकल समूह ने लोगार के मेस अयंक में तांबा निकालने का अधिकार हासिल किया. चीन के समूह ने पाकिस्तान में तोरखाम तक रेलवे निर्माण और उससे जुड़े बिजलीघर बनाने में 3 अरब डॉलर निवेश किए. अनुमान है कि 37.1 करोड़ डॉलर खर्च हो गए लेकिन मेस अयंक स्थल पर चंद कंटीले तारों के अलावा कुछ नहीं है.


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कठोर जमीन

अफगानिस्तान की खनिज संपदा को लेकर चाहे जितनी कहानियों हों, खनन निगमों को पता है कि दूसरे सुरक्षित स्थानों पर भी ऐसे ही खजाने हैं. चीन पहले ही अर्जेंटीना, बोलिविया और चीली में भारी निवेश कर चुका है, जहां दुनिया में निकाले जाने लायक लिथियम के आधे से ज्यादा भंडार हैं. गंगफेंग लिथियम अर्जेंटीना के कॉचारी-ओलारोज में सबसे बड़ी हिस्सेदार है, जो दशकों में मिली नए लिथियम सबसे बड़ा भंडार है. तियांकी लिथियम दुनिया के सबसे बड़े लिथियम उत्पादक सोशिए दाद क्यीमिका य मिनेरा में चौथाई हिस्सेदार है.

हालांकि अफगानिस्तान चीन के लैटिन अमेरिका से ज्यादा करीब है, लेकिन वहां ऑपरेशन कारगर बनाने के लिए खर्चीले सडक़ और रेल इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण करना होगा. विद्वान मैथ्यू फनएओले और ब्रायन हर्ट लिखते हैं, ‘चीनी कंपनियां अहम खनीज वैकल्पिक स्रोतों से आसानी से हासिल कर सकती हैं, और उन्हें मालूम है कि अफगानिस्तान में कारोबार करने में सिरदर्दी और जोखिम भारी है.’

मंगोलिया के भीतरी इलाके बायन ओबो परिसर में 4.8 करोड़ टन खास खनिज भंडार है, जो अफगानिस्तान के खान नशेन से काफी बड़ा भंडार है, क्योंकि वहां 13 लाख टन ही भंडार है.

इस्लामी अमीरात के नेताओं को मालूम है कि उन्हें रकम की भारी दरकार है क्योंकि पश्चिमी दानदाताओं से उन्होंने रिश्ते खराब कर लिए हैं, जिनसे देश की जीडीपी के 43 फीसदी के बराबर फंड मुहैया कराया और उसके सार्वजनिक खर्च में 75 फीसदी का योगदान किया था.

वर्ष 2020 के घटनाक्रम के आकार लेने के दौरान स्कॉलर केट कार्ल ने दर्ज किया कि तालिबान अवैध खनन और नशीली पदार्थों के धंधे के अलावा अपने कब्जे वाले इलाकों के लोगों पर टैक्स लगाकर राजस्व जुटा रहे हैं. हालांकि सरकार के लिए रकम अफगान राज्य से मिला और वह अब खत्म हो रहा है.

इसलिए इस्लामी अमीरात को फौरन रकम की दरकार है. हालांकि उसे हासिल करने के लिए विश्वसनीय राज्य ढांचा तैयार करना होगा और वही दूर की कौड़ी लग रहा है.

मजबूत बीआरआई

इस क्षेत्र के दूसरे देशों में चीन ने अहम रणनीतिक पड़ोसियों की स्थिरता के लिए पैसा झोंकने की तैयारी दिखाई है. चीन के सरकारी एक्सिमबैंक ने 2014 में ताजिकिस्तान के वनदात-योवन रेलवे के निर्माण में करीब 7 करोड़ डॉलर का कर्ज दिया. फिर, चनक से राजधानी दुशानबे तक ऊंचे पर्वतों में सड़क बनाने के लिए 29 करोड़ डॉलर का और कर्ज दिया. निर्माण कार्य चीनी मजदूरों के जरिए चीनी इंजीनियरिंग फंड से किया गया. यूरेशियानेट के विशलेषण के मुताबिक, रकम का बड़ा हिस्सा उस देश में वापस चला गया लेकिन कर्ज ताजिकिस्तान पर चढ़ा रहा.

1992 से 1997 तक उग्र गृहयुद्ध में बुरी तरह बर्बाद ताजिकिस्तान में जेहादी गुटों का खतरा बना हुआ है. चीन के लिए ताजिकिस्तान में मुख्य रूप से इस्लामी स्टेट से जुड़े गुटों का जेहादी खतरा उसकी सीमाओं से पूरब की ओर बढ़ने का खतरा है. इसलिए बीआरआई परियोजनाओं के जरिए अशांत पड़ोसी को जोड़ना रणनीतिक समझदारी है.

हालांकि श्रीलंका की तरह भुगतान वापस न पाने का खतरा ऊंचा है. 2017 में दुशानबे में बिजलीघर बानाने के लिए मिले 33 करोड़ डॉलर का कर्ज चुकाने में नाकाम रहा तो ताजिकिस्तान को अपर कुमार्ग और पूरबी दुओबा की सोने की खदानों में चीनी कंपनी को रियायत देने पर मजबूर होना पड़ा. एक दूसरी वीनी खनन कंपनी काशगर शीनयू दादी माइनिंग इन्वेस्टमेंट को सीमा शुल्क और टैक्स में छूट देनी पड़ी.

इसके अलावा ताजिकिस्तान को चीन के साथ विवादास्पद सीमा समझौते में काफी बड़ा इलाका सौंपने पर मजबूर होना पड़ा, जो आलोचकों के मुताबिक एकतरफा था. ताजिकिस्तान पर विदेशी कर्जदाताओं के 3.3 अरब डॉलर के कर्ज में 60 फीसदी चीन के सरकारी एक्सपोर्ट-इंपोर्ट बैंक का है, जो मोटे तौर पर श्रीलंका से तीन गुना है.

इसी तरह चीन अफगान अमीरात को ऐसी ही व्यवस्था में फंसाना चाहेगा लेकिन खनन क्षेत्र के मामले के मद्देनजर एक उलझन दिखती है. अफगान राज्य लगातार अशांत बना हुआ है, ऐसे में परियोजनाओं को पूरा कर पाना असंभव है.

इस्लामाबाद को नए अफगानिस्तान की कुंजी सौंपनी थी. उसे तालिबान में अपने असर वाले गुटों पर दबाव डालकर सत्ता में साझेदारी के लिए मजबूर करना था, ताकि राजनीति में स्थिरता आती. इसके विपरीत कंधार के जेहादियों और उसके प्रतिद्वंद्वी हक्कानी नेटवर्क के दो मुख्य तालिबान गुटों में लगातार टकराव जारी है. तालिबान के लिए लड़े बड़े पैमाने पर संभावनाहीन नौजवान लड़ाके अब इस्लामी स्टेट जैसे गुटों में नए अवसर तलाश रहे हैं. अफगान तालिबान की गुटीय लड़ाई पाकिस्तान के भीतर भी तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान को शह दे रही है.

अमेरिका और उसके पहले सावियत संघ की तरह, चीन को भी पता चल रहा है कि महाशक्तियों की भव्य योजनाएं अफगानिस्तान की हकीकत में टिक नहीं सकती हैं.

लेखक दिप्रिंट के नेशनल स्कियोरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami ट्वीट करते हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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