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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतप्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी ठहराए जाने के मौके पर हमें याद रखना चाहिए- एकता का मतलब एकरूपता नहीं है

प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी ठहराए जाने के मौके पर हमें याद रखना चाहिए- एकता का मतलब एकरूपता नहीं है

प्रशांत भूषण को यदि जेल भेजा जाता है तो वह एक नायक बनकर उभरेंगे, असहमति के अधिकार के लिए कुर्बानी देने वाले शख्स के रूप में. पहले ही उनकी गांधी और मंडेला से तुलना की जा रही है.

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हम किस तरह चीनियों से अलग हैं? एक बात तो ज़रूर है कि हमारा आलोचना प्रेमी समाज है.

हमें ये बात याद रखनी चाहिए कि असहमति और मतभेद लोकतांत्रिक समाजों के बुनियादी तत्व हैं. एक मज़बूत लोकतंत्र की जनसंस्कृति विविध, यहां तक कि विवादपूर्ण भी होनी चाहिए. भारत इसका अपवाद नहीं है.

वास्तव में, हम भारतीयों को शिकायत करना भाता है. हम हर चीज की आलोचना करते हैं– एक-दूसरे की और खासकर सत्तासीन लोगों की. वास्तव में हमारे यहां आलोचना का स्तर आवश्यकता, उपयोगिता या सच्चाई के मुकाबले कहीं अधिक है. आलोचना हमारी जीवन शैली का हिस्सा है. इसके माध्यम से ही हम अपनी निराशा जाहिर करते हैं. जब कुछ भी अपेक्षानुरूप काम नहीं कर रहा हो तो वैसे में अपनी जिंदगी के बारे में शिकायतें करना हमारे लिए सेफ्टी वाल्व का काम करता है. ये उन परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाने में हमारी मदद करता है जिन्हें कि हम बदल नहीं सकते.

उन देशों में जाने पर, जहां नागरिक स्वतंत्रता उतनी स्थापित या सुरक्षित नहीं है, फर्क ना केवल साफ दिखेगा बल्कि आपको चौंका भी सकता है. लेकिन प्रशांत भूषण पर अदालत की अवमानना का आरोप इस फर्क को खतरनाक रूप से कम कर सकता है.


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रोबोटिक चीन

चीन की अपनी आठ बार की यात्रा के दौरान मुझे अक्सर हैरत होती थी कि वहां राजनीति ही नहीं बल्कि किसी भी विषय पर लोगों की राय जान पाना कितना मुश्किल है. कहने की ज़रूरत नहीं कि वहां सरकार से जुड़ा हर मुद्दा निषिद्ध था, सिवाय विश्वस्त मित्रों या संपर्कों के साथ निजी बातचीत में ही उन पर चर्चा हो सकती थी.

हर कमेटी में, यहां तक कि किसी विश्वविद्यालय की सामान्य विभागीय बैठक में भी, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) का एक प्रतिनिधि अनिवार्य रूप से उपस्थित रहता था. एक अग्रणी विश्वविद्यालय, जहां मैं अपना भाषण दे रहा था, के एक सहयोगी से जब मैंने सवाल किया कि ‘क्या ये किसी तरह का हस्तक्षेप भी करते हैं?’ तो उसके जवाब ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया. ‘आप कह नहीं सकते. क्योंकि वे शायद ही कभी कुछ बोलते हैं. जब तक कि आप कुछ ऐसा ना कर दें जिससे कि खुले तौर पर मानदंडों का उल्लंघन होता हो. लेकिन कोई ऐसा करने की हिमाकत नहीं करेगा. इसलिए वे कुछ नहीं कहते, पर सबकुछ की जानकारी रखते हैं और जब वे किसी की बर्खास्तगी या स्थानांतरण जैसी कोई कार्रवाई करते हैं, आप निश्चितता के साथ नहीं कह सकते कि ऐसा उनके कारण ही हुआ हो.’ इसका नतीजा? शायद ही कोई खुलकर अपनी बात कहता है.

लेकिन आम नागरिकों जैसे टैक्सी ड्राइवर, रेस्तरां मैनेजर, होटल कर्मचारी या फिर छात्रों का रवैया कैसा था? निहायत महत्वहीन विषयों के अलावा किसी भी अन्य मुद्दे पर उनके विचारों को जानना संभव नहीं था. मैंने युवाओं को उत्पादों और उपभोक्ता वस्तुओं को लेकर मुखर पाया. इस मामले में वे अपनी पसंद के उत्पाद चुन रहे थे और अपने विचार व्यक्त कर रहे थे. लेकिन किसी विदेशी उत्पाद को चीन निर्मित उत्पाद से बेहतर बताते ही आपको देशभक्ति का राग सुनने को मिलेगा: ‘हां, हमें इस क्षेत्र में अभी और काम करना पड़ेगा.’

मुझे भारतीय फिल्मों या भारतीय खाने तक के बारे में भी ऐसी बातें सुनने को मिली कि ‘हमें अपनी फिल्मों और चीनी भारतीय खाने की लोकप्रियता को बढ़ाने की ज़रूर है.’ वहां दोनों में ही, खासकर भारतीय फिल्मों में, लोगों की रुचि बढ़ रही है. अपने यहां जैसे घर से बाहर जाकर खाने के लिए पंजाबी चाइनीज़ पसंदीदा व्यंजन है, यदि मौका मिले तो चीनी भी चाइनीज़ देसी जैसा कोई व्यंजन तैयार कर लेंगे.

जब मैंने ताइवान, हांगकांग या उससे भी आगे तिब्बत के बारे में जानना चाहा, तो मुझे केवल सरकारी रुख– या इसे झूठ कहना चाहिए– सुनने को नहीं मिला. यहां तक कि पढ़े-लिखे लोगों ने भी मुझे यही बताया कि चीनी नेतृत्व समर्पित और उत्कृष्ठ है. वे कोई न कोई हल निकाल लेंगे. बुद्धिजीवी भी यही कहेंगे, ‘ये मेरा क्षेत्र नहीं है. आप फलां-फलां से बात करें जो इस क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं.’ जो कूटनीति, सार्वजनिक नीति, अर्थव्यवस्था या सरकार से संबद्ध अन्य क्षेत्रों के प्रति समर्पित हैं, वे सिर्फ व्यावहारिक और उपयोगी जानकारी ही प्रदान करेंगे. अनुमान या नए विचार नहीं जिनका कि व्यावहारिक मूल्य नहीं के बराबर हो. मुझसे कहा गया, ‘हम एक महान देश बनाने के प्रयास में जुटे हैं. हमारे पास ऐसे अस्पष्ट या अनुपयोगी मुद्दों पर माथापच्ची के लिए वक्त नहीं है.’

यहां तक कि सामान्य लोगों से भी जब मैंने रोटी, कपड़ा, मकान, या सेवानिवृति के बाद की योजना आदि पर बात करने की कोशिश की, तो उन्होंने टालमटोल वाले जवाब ही दिए. ‘हां जी, वो तो बढ़िया है’, या ‘ज़िंदगी अच्छी कट रही है’ या ‘किताबें बहुत अच्छी हैं.’ वे आपको ये नहीं बताएंगे कि कौन सा लेखक दूसरों के मुकाबले बढ़िया है या सांस्कृतिक क्रांति के दौरान उनके बाप-दादाओं के साथ क्या हुआ था या मार्क्स और माओ के बीच क्या अंतर है.

हर चीज को सही बताया जाता है, जो नहीं है उसे भी तो उनके नेता ठीक कर देंगे. उनके नेता हमारे नेताओं की तरह हमेशा नज़र आने वाले नहीं होते, बल्कि वे केवल विशेष एवं सुनियोजित समारोहों के अवसर पर ही सामने आते हैं. लेकिन वे आपके सम्मुख नहीं हैं, इसका मतलब ये नहीं है कि वे सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान या सर्वज्ञ नहीं हैं. और आखिर में, इतना अधिक सांस्कृतिक, भाषाई, भौगोलिक और सामाजिक विविधता के बावजूद मुझे अधिकांश चीन तत्वमीमांसा और आध्यात्मिक दृष्टि से नीरस और शुष्क लगा. यहां तक कि अनुशासित और आज्ञाकारी जनता का हावभाव भी व्यवस्थित होने के साथ-साथ रोबोटों जैसा है.


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लोकतंत्र के लिए असहमति ज़रूरी है

चीन के अलावा चीनी मूल के लोगों के प्रभुत्व वाले सिंगापुर जैसे मुक्त राष्ट्रों में भी विनियमित और नियंत्रित होने की प्रवृति दिखती है. जब मैं पहली बार सिंगापुर गया, जिसे बहुत से लोग प्लेटो की कल्पना के गणतंत्र का मौजूदा रूप मानते हैं, मुझे हल्के-फुल्के अंदाज़ में बताया गया, ‘यहां तक कि चिड़ियों को भी सुबह में चहकने के लिए ली कुआन यू की अनुमति होनी चाहिए.’ ली सिंगापुर के विलक्षण संस्थापक प्रधानमंत्री थे जिन्होंने 1959 से 1990 तक कमोबेश दमनकारी तरीके से अपना शासन चलाया था. अब पिछले 16 वर्षों से सत्ता उनके पुत्र ली सीन लूंग के हाथ में है, जो 2004 से ही प्रधानमंत्री पद पर हैं.

सिंगापुर में स्वतंत्र प्रेस तथा विपक्ष के नेताओं और आम नागरिक के असहमति के अधिकार दोनों को कानूनी और न्यायिक उपायों के ज़रिए प्रभावी ढंग से दबाकर रखा गया है. अधिकांश मामलों में मौजूदा कानूनों के तहत ताबड़तोड़ मुकदमेबाजी के ज़रिए असंतुष्टों का दिवाला निकाल दिया जाता है. कानून इतने सख्त हैं कि उनके तहत सरकार या सत्तासीन लोगों की आलोचना एक हद तक ही बर्दाश्त की जा सकती है.

निरंकुश सत्तावादी समाज भले ही अच्छी तरह संचालित हों, वे रहने के लिए बहुत आकर्षक नहीं होते हैं. उनमें मानवीय भावों का पोषण नहीं होता है. मैं जानता हूं कि भारत में कभी ऐसी स्थिति बनने की संभावना नहीं है.

लेकिन मज़बूत शासन, मज़बूत नेता और मज़बूत विचारधाराएं लोकतंत्र में तानाशाहियों के मुकाबले बहुत अलग ढंग से काम करते हैं– वे उदारता, आत्मविश्वास और मतभेदों के प्रति सम्मान भाव दर्शाते हैं. विचारों की एकरूपता बेहद उबाऊ होती है. प्रशांत भूषण को अवमानना के आरोप में सज़ा सुनाए जाने के मौके पर हमें याद रखना चाहिए कि एकता का मतलब एकरूपता नहीं होता.

यदि प्रशांत भूषण को जेल भेजा जाता है तो वह एक नायक बनकर उभरेंगे, असहमति के अधिकार के लिए कुर्बानी देने वाले शख्स के रूप में. पहले ही उनकी गांधी और मंडेला से तुलना की जा रही है. लेकिन ऐसे में सुप्रीम कोर्ट थोड़ा कम उदार और अधिक असुरक्षित बनकर उभरेगा.

(लेखक शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में प्रोफेसर और निदेशक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @makrandparanspe है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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