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Sunday, 5 May, 2024
होममत-विमतमोदी पुरानी समस्याओं से आंख छिपाते हुए नज़र आते हैं और नये वादे कर रहे हैं, मगर हिसाब तो देना होगा

मोदी पुरानी समस्याओं से आंख छिपाते हुए नज़र आते हैं और नये वादे कर रहे हैं, मगर हिसाब तो देना होगा

गंभीर मसलों पर चुप्पी एक अच्छी राजनीतिक रणनीति तो हो सकती है. लेकिन खुले हाथ से खर्चों की घोषणाएं करने से पहले मोदी को आशंकित आर्थिक संकट का भी ख्याल रखना चाहिए.

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मनमोहन सिंह की सरकार जब अपने सातवें साल में कदम रख रही थी तभी सीएजी की लगातार दो रिपोर्टों ने उसे हिला कर रख दिया था और वह अपनी दिशा खो कर उस हालत में पहुंच गई थी जिसे उस समय ‘पंगु’ होना बताया जा रहा था.

नरेंद्र मोदी की सरकार भी करीब उसी हाल में पहुंची है लेकिन उसके तेवर उलटे ही हैं. वह यह दिखाने की हर संभव कोशिश कर रही है की वह काम कर डालने को उतावली है. जो नए वादे स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर किए गए उनमें ये भी थे- देश के हरेक नागरिक को नया मेडिकल आइडी दिया जाएगा, 100 लाख करोड़ रुपये के इन्फ्रास्ट्रक्चर कार्यक्रम शुरू किए जाएंगे, तीन साल के अंदर सभी गांवों को ऑप्टिकल फाइबर से जोड़ा जाएगा (इसके बारे में हम पहले भी सुन चुके हैं). और भी तमाम कदमों की घोषणा की गई जिनकी गिनती करते हुए आप थक जाएंगे.

एक साल पहले, दोबारा सत्ता में आने से उत्साहित मोदी ने पांच साल के अंदर सभी गांवों को पाइप से पानी पहुंचाने के ‘जल जीवन मिशन’ की शुरुआत की थी ताकि ‘स्वच्छ भारत’ के गुसलखानों को पानी उपलब्ध हो. यही नहीं, उन्होंने पांच साल में अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर के बराबर की बनाने की भी बात की. इसके पहले, चुनाव से पूर्व उन्होंने किसानों के लिए नकद भुगतान और मुफ्त स्वास्थ्य बीमा के कार्यक्रम की भी घोषणा की थी.

इसके अलावा भी कई घोषणाएं की गईं- कोयला खनन के निजीकरण, नयी शिक्षा नीति, व्यक्तियों तथा कंपनियों के लिए करों में कटौती, नया टैक्स चार्टर आदि. इन सबके बीच, आयात के विकल्प के लिए आत्मनिर्भरता पर ज़ोर देने की घोषणा की गई, तो अब निर्यात पर भी ज़ोर देने की बात की जा रही है. लगातार जारी घोषणाओं और उनकी बारीकियों पर भी साथ-साथ ध्यान देना मुश्किल ही लगता है, उनके वास्तविक लक्ष्यों का आकलन करना तो दूर की ही बात ठहरी.

यह सरकार महत्वाकांक्षी है, इस पर तो कोई शक कर ही नहीं सकता है. खासकर अगर यह देखा जाए कि वह जम्मू-कश्मीर में ऐतिहासिक बदलाव करने, नागरिकता पर संसद से विवादास्पद कानून पास करवाने में किस तरह जुट गई थी. लेकिन यह भी स्पष्ट है कि विकास और राजनीति से संबंधित इन फौरी कदमों का देश की अर्थव्यवस्था की तात्कालिक जरूरतों से कितनी दूर का वास्ता रखा गया है.

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फौरी महत्व के तीन बड़े मसले ऐसे हैं जिन पर देश प्रधानमंत्री से कुछ सुनने की आस लगाए है मगर उस पर चुप्पी बनी हुई है. चीनी झटके के बाद भी प्रतिरक्षा पर खर्च तुरंत बढ़ाने के बारे में कोई वादा नहीं किया जा रहा है. न ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च बढ़ाने की बात की जा रही है, हालांकि देश में कोरोना वायरस पीड़ितों की संख्या में वृद्धि ने भारत को इसके नये उभरते मामलों का केंद्र बना दिया है. इस बीच, आर्थिक संकट के कारण पैदा हुईं मुश्किलों से निबटने का काम दूसरों के जिम्मे छोड़ दिया गया है. यह बात समझ से परे है कि प्रधानमंत्री सस्ते सैनीटरी पैड की तो बात कर सकते हैं लेकिन उपरोक्त सभी मसलों पर चुप्पी साधे रहते हैं.


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इसमें भी एक चाल है. मोदी मुश्किल मसलों को अलग रखते हैं. जब वे उनके बारे में बोलते हैं तब या तो उन्हें खारिज ही कर देते हैं (जैसे सीमा पर के हालाता) या अपनी कामयाबियों पर ही ज़ोर देते हैं, जो कि अपनी संपूर्णता में चिंताजनक बड़े परिदृश्य का एक केवल एक हिस्सा है (जैसे कोविड संकट). इसी के साथ मोदी एक के बाद एक वे घोषणाएं करते हैं जो उन्हें आम लोगों को फायदे पहुंचाने वाले, व्यापक विकास के लक्ष्यों के लिए काम करने वाले और सरकार का प्रभावी नेतृत्व करने वाले नेता की छवि प्रदान करते हैं. कभी-कभी ऐसा लगता है कि वे शर्मसार करने वाले मसलों से तितली की तरह कतरा कर आगे उड़ जाते हैं- मसलन ‘अच्छे दिन’ लाने के वादे या आर्थिक वृद्धि को दहाई अंकों में पहुंचान या अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर का बनाने के वादे और वे नयी नीतियों पर ज़ोर देने लगते हैं (जैसे आत्मनिर्भरता की नीति, जो शायद उनके ‘मेक इन इंडिया’ को कोई अर्थ प्रदान करे). और जॉर्ज ऑरवेल के वफादार की तरह, इशारा मिलते ही कोई नया सुर भी शुरू हो सकता है.

यह चाल राजनीतिक रणनीति के रूप में तो चलेगी. मीडिया के साथ सार्थक संवाद के अभाव में भाषणबाजी और ‘इवेंट मैनेजमेंट’ आदि के सहारे काम चला लेना आसान है. अगले दशक में आर्थिक वृद्धि की रफ्तार सुस्त होने और इसके चलते संसाधनों की कमी की आशंका के मद्देनजर नयी हकीकतों से निबटने की मध्यवर्ती आर्थिक रणनीति अस्पष्ट है. विश्व बैंक का कहना है कि आज से दो साल बाद सार्वजनिक कर्ज का स्तर अपेक्षा से 50 फीसदी ऊपर ही रहने वाला है. उस पर काबू रखने या क्रेडिट में गिरावट का जोखिम उठाने के लिए खर्चों और टैक्स दरों को नीचा रखना होगा. इस नजरिए, और खुल कर खर्च करने की घोषणाओं के बीच जो अलगाव है उस पर कभी-न-कभी ध्यान देना ही होगा. क्योंकि दो और दो चार ही होना चाहिए, यानी गणित सही होना चाहिए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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