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Wednesday, 24 April, 2024
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दो राज्य, दो पुलिस मुठभेड़ और 28 साल का अंतर, फिर कोर्ट में क्या हुआ?

यूपी और तेलंगाना के एनकाउंटर जिसमें कि 28 साल का अंतर है, वे दिखाते हैं कि कैसे पुलिस से लगातार मुठभेड़ हो रही है और 'तत्काल न्याय' को सेलिब्रेट किया जा रहा है.

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भारत में होने वाले पुलिस मुठभेड़ों में एक खास किस्म का दोहराव देखने को मिलता है, और इसका अंदाजा पहले ही लगाया जा सकता है कि इन्हें अंजाम दिए जाने को लेकर पुलिस की क्या दलील होगी. और यहां तक कि जब इन मामलों को लेकर उच्च न्यायपालिका से संपर्क किया जाता है, तो वो हर बार अलग अलग बातें कहती है. दो मुठभेड़ों एक उत्तर प्रदेश दूसरी तेलंगाना की बात करें तो दोनों के बीच का अंतराल 28 से ज्यादा सालों का है पर दोनों ही मामलों में न्याय का पहिया धीरे-धीरे चला है. आज से 31 साल से भी ज्यादा समय पहले की बात है. वो साल 1991 के 12 और 13 जुलाई के बीच की रात थी. उस रात यूपी के पीलीभीत जिले में तीन अलग-अलग जगहों पर पुलिस और कथित सिख उग्रवादियों के बीच तीन मुठभेड़ें हुई थीं.

यूपी में हुआ था अन्याय

मुठभेड़ों में दस लोगों (उनमें से कोई भी पुलिसकर्मी नहीं) की निर्मम तरीके से हत्या कर दी गई थी. वकील आर.एस. सोढ़ी ने इस मामले की जांच की मांग करते हुए तुरंत सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. ये वही आर.एस. सोढ़ी थे, जो बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी बने. अदालत की तरफ से एडिशनल चीफ ज्युडिशियल मजिस्ट्रेट को मामले की जांच कर रिपोर्ट देने को कहा गया. उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक सिटिंग जज की अध्यक्षता में एक सदस्यीय जांच आयोग का भी गठन किया. इस घटना के करीब एक साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई से मामले की जांच करने को कहा था. इस मामले में 56 आरोपी थे, जिनमें से दस लोगों की दो दशकों से ज्यादा समय तक चलने वाले मुकदमे के दौरान मौत हो गई थी.

अप्रैल 2016 को सीबीआई के विशेष न्यायाधीश ने एक फैसला सुनाया. इस फैसले में 39 पुलिस कर्मियों को भारतीय दंड संहिता की धारा 120बी के साथ पढ़ी जाने वाली धारा 302 के तहत हत्या का दोषी ठहराया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई.

इस साल 16 दिसंबर को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ की तरफ से एक परेशान करने वाला और पेचीदा सा फैसला सुनाया गया. इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने अपने इस फैसले में आईपीसी की धारा 304 भाग-1 के तहत ‘गैर इरादतन हत्या’ का प्रयास नहीं करने’ की सजा में बदल दिया और उनकी सजा को घटाकर 7 साल की कठोर कारावास कर दिया. हाईकोर्ट भी निचली अदालत की तरह ही बचाव पक्ष की दलील पर विश्वास नहीं करता था कि कथित आतंकवादी आत्मरक्षा में मारे गए थे.

उच्च न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष ने ‘चार से छह’ मृतकों के आपराधिक इतिहास को दिखाया था जो पंजाब में आतंकवादी गतिविधियों में शामिल थे और खालिस्तान को बढ़ावा देने के लिए पीलीभीत जिले के तराई क्षेत्र में काम कर रहे थे. हालांकि उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि ‘पुलिस अधिकारियों का ये कर्तव्य नहीं है कि वे आरोपी को सिर्फ इसलिए मार दें क्योंकि वह एक खूंखार अपराधी है. बिना किसी दो राय के पुलिस को आरोपियों को गिरफ्तार करना होगा और उन्हें मुकदमे के लिए रखना होगा.’

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लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि जजों ने कहा, ‘वर्तमान मामले में अपीलकर्ताओं और मृत व्यक्तियों के बीच कोई दुर्भावना नहीं थी. अपीलकर्ता लोक सेवक थे और उनका उद्देश्य सार्वजनिक न्याय को मजबूत करना था. निस्संदेह अपीलकर्ताओं ने कानून द्वारा उन्हें दी गई शक्तियों को पार कर लिया, और वे ऐसा करके मृतकों की मृत्यु के कारण बने, जिसे वे न्यायसंगत और अपने कर्तव्य के निर्वहन के लिए आवश्यक मान रहे थे.’ इस मामले को लेकर अब बस यही उम्मीद की जा सकती है कि सीबीआई आगे अपील करेगी.

एक और मुठभेड़ और वैसा ही न्याय

इस बार हम मौजूदा दौर का रुख करते हैं. 27 नवंबर 2019 की शाम को एक युवा महिला पशु चिकित्सक दिशा (बदला हुआ नाम) के साथ हैदराबाद के बाहरी इलाके में बलात्कार किया गया, और उसकी हत्या कर दी गई. तीन दिन बाद साइबराबाद के पुलिस आयुक्त ने अपराध के सिलसिले में चार लोगों को गिरफ्तार करने की घोषणा की. 30 नवंबर 2019 को उन्हें 13 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. लेकिन 2 दिसंबर 2019 को संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट ने पुलिस के एक आवेदन पर उन्हें 10 दिनों की हिरासत में दे दिया.

6 दिसंबर 2019 को हैदराबाद के इसी बाहरी इलाके में पुलिस मुठभेड़ में चारों आरोपी मारे गए. बताया गया कि पुलिस इन्हें बरामदगी के लिए मौका-ए-वारदात पर ले गई थी. पुलिस ने दावा किया कि चारों आरोपियों ने उनके हथियार छीन लिए और उन पर गोलियां चलाई. पुलिस के मुताबिक जवाबी कार्रवाई में चारों ही मारे गए. कथित मुठभेड़ के बाद इस ‘तत्काल न्याय’ का सार्वजनिक रूप से जश्न भी मनाया गया. हालांकि संबंधित नागरिकों, कार्यकर्ताओं और वकीलों ने तेलंगाना उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय दोनों का रुख किया.

अपनी तरह की पहली सिफारिश

12 दिसंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने एक सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी.एस. सिरपुरकर की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया. इसमें बंबई उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश आर.पी. सोंदुरबलदोता और सीबीआई के पूर्व निदेशक डी.आर. कार्तिकेयन को भी शामिल किया गया. इस आयोग के पास जांच आयोग अधिनियम 1952 के तहत सभी आवश्यक शक्तियां थीं. सर्वोच्च न्यायालय ने यह साफ कर दिया था कि उसके अगले आदेश तक कोई अन्य अदालत या प्राधिकरण इस मुठभेड़ की परिस्थितियों की जांच नहीं करेगी.

जैसे ही आयोग ने अपनी जांच शुरू की, कोरोना महामारी ने हमारे दरवाज़े पर दस्तक दे दी. आयोग ने 1600 से अधिक हलफनामों को प्राप्त करने, उनका विश्लेषण करने, 57 गवाहों की जांच करने और एक हजार से ज्यादा प्रदर्शनों को चिन्हित करने में बहादुरी दिखाई. गवाहों में चार आईपीएस अधिकारी, पीड़ितों के परिवार, बैलिस्टिक एक्सपर्ट, डॉक्टर, फोरेंसिक वैज्ञानिक और मजिस्ट्रेट शामिल थे. आठ दिनों तक दलीलें चलीं, जिसमें ‘हाइब्रिड’ सिटिंग (आंशिक रूप से भौतिक और पार्टी ऑनलाइन सुनवाई) शामिल हैं.

समझने योग्य विस्तार के बाद आयोग की तरफ से 28 जनवरी 2022 को सर्वोच्च न्यायालय को एक विस्तृत रिपोर्ट सौंपी गई. इसने बलात्कार और हत्या के मामले में चार संदिग्धों की पहचान को संदिग्ध पाया. आयोग की रिपोर्ट में गिरफ्तारी की प्रक्रिया में गंभीर अनियमितताएं पाई गईं. साथ ही आगे कहा कि चारों मृतकों को गिरफ्तारी के समय और न्यायिक व पुलिस हिरासत में उनके रिमांड के समय भी कानूनी सहायता और प्रतिनिधित्व प्रदान नहीं किया गया था.

पुलिस मुठभेड़ में मारे गए चार लोगों में से तीन नाबालिग थे, जिनकी उम्र 15 से 17 साल के बीच थी. इससे पूरी रिमांड और पुलिस हिरासत अवैध हो जाएगी. आयोग ने निष्कर्ष निकाला कि मृत संदिग्धों को जानबूझकर उनकी मौत के इरादे से गोली मारी गई थी और यह जानते हुए कि गोलीबारी से उनकी मौत हो जाएगी.’


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इस रिपोर्ट ने पुलिस की सामान्य मुठभेड़ वाली दलील को खारिज कर दिया, जिसमें दावा किया गया था कि चार संदिग्धों ने पुलिस के हथियार छीन लिए थे और उन पर गोलियां चलाई थीं, साथ ही ये कि पुलिस को आत्मरक्षा में वापस गोली चलानी पड़ी थी. आयोग ने अपनी जांच में पुलिस की इस कथा को विश्वास करने लायक नहीं पाया. इस अपनी तरह की पहली सिफारिश में सिरपुरकर आयोग ने आईपीसी की धारा 302 पठित धारा 34 और 201 के तहत हत्या के लिए दस पुलिस अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलाने की सिफारिश की. इनमें सबसे उच्च रैंकिंग सहायक पुलिस आयुक्त वी सुरेंद्र की थी.

आयोग नियुक्त करने और उसकी रिपोर्ट मंगाने के बाद सबको यही उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले को खुद ही देखेगा. हालांकि 20 मई 2022 के एक आदेश द्वारा सुप्रीम कोर्ट ने तेलंगाना उच्च न्यायालय को जांच आयोग की रिपोर्ट और विभिन्न पक्षों की पेशी पर विचार करने के बाद मामले को निपटाने का निर्देश दिया. कुछ शुरुआती सुनवाई के बाद उच्च न्यायालय ने पिछले सोमवार 19 दिसंबर को दलीलें सुनना शुरू किया है. याचिकाकर्ताओं ने दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ तत्काल प्राथमिकी दर्ज करने और सुनवाई की अगली तारीख 2 जनवरी निर्धारित करने के लिए कहा है. जबकि वस्तुस्थिति ये है कि अभियोजन तो छोड़िए, दोषी अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई भी शुरू नहीं की गई है.

पोस्ट स्क्रिप्टः बुधवार को इस लेख के लिखे जाने के बाद खबर आई कि गाजियाबाद की एक सीबीआई अदालत ने 2006 में यूपी के एटा जिले में एक बढ़ई की मुठभेड़ में हत्या के मामले में पांच पुलिसकर्मियों को हत्या का दोषी ठहराया है और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई है. उम्मीद की जा सकती है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय उन पर ‘दुर्भावना न करने’ का सिद्धांत लागू नहीं करेगा.

(लेखक वरिष्ठ एडवोकेट हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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