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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतयोगी के दाहिने हाथ पर रसातल है, सो मोदी भाजपाई कट्टरपंथियों पर कसें लगाम  

योगी के दाहिने हाथ पर रसातल है, सो मोदी भाजपाई कट्टरपंथियों पर कसें लगाम  

अयोध्या जैसे धार्मिक मुद्दों पर पहले जब चर्चा की जाती थी तब शालीनता का एक झीना परदा उसके ऊपर रहा करता था मगर अब तो नफरत का खुला प्रदर्शन करने से कोई परहेज नहीं किया जाता है.

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कभी मैं उन लोगों की अज्ञानता पर हंसा करता था, जो इस तरह की बातें किया करते थे कि ‘हमें इन मुसलमानों को तो धर्मनिरपेक्षता देनी ही नहीं चाहिए थी.’ लेकिन इन दिनों मुझे रुलाई जैसी आती है. पहले, थोड़ी बातें इतिहास की. जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी, और कांग्रेस पार्टी दो राष्ट्र के सिद्धांत के खिलाफ थी. लेकिन अंग्रेजों ने मोहम्मद अली जिन्ना के इस दावे को कबूल कर लिया कि मुसलमान अविभाजित भारत में नहीं रह सकेंगे इसलिए देश का बंटवारा करके जिन्ना को उनका मुस्लिम मुल्क दे दिया.

हमारे राष्ट्र निर्माताओं के लिए अब दो विकल्प बचे थे. वे भारत को जिन्ना के पाकिस्तान की परछाईं यानी हिंदू राष्ट्र बना सकते थे या अविभाजित भारत के मूल्यों से जुड़े रहकर सभी भारतीयों को समान नागरिक का दर्जा दे सकते थे, चाहे वे किसी भी धर्म के हों. विविधता और बहुलता के बारे में उन नेताओं के जो विचार थे उनके कारण आश्चर्य नहीं कि उन्होंने हिंदू राष्ट्र के विचार को खारिज कर दिया.

लेकिन, व्यावहारिकता का भी सवाल था. 1947 में अंग्रेजों ने जिन क्षेत्रों का बंटवारा किया वहां से करीब डेढ़ करोड़ लोग अपने धर्म वालों की बहुसंख्यक आबादी के साथ रहने के लिए नयी सीमा रेखा के पार चले गए. इतनी बड़ी आबादी की अदला-बदली इतिहास में अब तक नहीं देखी गई, जिसमें हुए खूनी दंगों में करीब 20 लाख लोग मारे गए थे.

नवनिर्मित पाकिस्तान में जाने के लिए ज्यादा मुसलमानों ने सीमा पार नहीं की तो इसकी वजह यह थी कि वे मानते थे कि भारत कोई हिंदू राष्ट्र नहीं है और उनके लिए भी यहां जगह है. वे ऐसा न मानते तो पूरे भारत से मुसलमान पलायन करने लगते (वे दक्षिण भारत समेत अधिकतर राज्यों में बसे हुए थे). तब और ज्यादा खून खराबा होता, और ज्यादा मौतें होतीं. बंटवारे के समय भारत में कम-से-कम 3.5 करोड़ मुसलमान रह गए थे.

इसके अलावा, हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने यह भी महसूस किया कि बहुजातीय राष्ट्र को केवल धर्म के बूते जोड़कर नहीं रखा जा सकता. पाकिस्तान 1971 में टूट गया और आज बलूच, मुहाजिर तथा दूसरे समुदाय पाकिस्तान में पंजाबियों के वर्चस्व के कारण असंतुष्ट हैं. इससे जाहिर है कि धर्म के आधार पर बने देश का हाल क्या होता है.

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उस समय, गांधी और नेहरू को मालूम था कि भारत में 70 लाख सिख और 80 लाख ईसाई भी बसे हुए हैं. इसलिए भारत तभी एकजुट रह सकता था जब देश के भविष्य में हरेक समुदाय का दांव लगा हो.

धर्मनिरपेक्षता के लाभ 

हमारे राष्ट्र निर्माता कुल मिलाकर सही साबित हुए हैं. भारत 1947 से ही लोकतांत्रिक देश बना हुआ है,  जबकि आज़ाद हुए कई दूसरे देशों (पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि) को फौजी हुकूमत में रहना पड़ा है.

हालांकि, हम सांप्रदायिक संघर्षों से मुक्त नहीं रहे हैं (ईसाई नगाओं ने 1950 और 60 के दशकों में अलग होने की कोशिश की, 1980 के दशक में पंजाब सिख अलगाववादियों के खालिस्तानी आंदोलन से परेशान रहा) लेकिन ये ज़्यादातर सीमित और क्षेत्रीय स्वरूप वाले ही रहे. मुसलमानों ने बड़े पैमाने पर कोई बगावत नहीं की. (कश्मीर अपवाद हो सकता है लेकिन वहां का अलगाववादी आंदोलन 1947 से ही चल रहा है और उसकी जड़ें राज्य के उथल पुथल भरे इतिहास में हैं).

हमारी एक उल्लेखनीय सफलता यह भी है कि हरेक समुदाय को संसाधनों या ओहदों के मामले में समान हिस्सेदारी देने में विफल रहने के बावजूद देश में 1947 से ही लगभग शांति और स्थिरता कायम रही है. भारत के लोगों ने भरोसा कायम रखा है. सच्चर कमिटी ने पाया कि कई प्रमुख क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी पीछे छूट गई है. उनकी साक्षरता दर (59 फीसदी) राष्ट्रीय औसत (65 फीसदी) से नीची थी. हालांकि देश में मुस्लिम आबादी कुल आबादी की 14 फीसदी है लेकिन नौकरशाही, रोजगार, बड़े औद्योगिक घरानों, आदि में अभी भी उनका प्रतिनिधित्व काफी कम है.

इन सबके, और जब-तब फूट पड़ने वाले सांप्रदायिक दंगों के बावजूद मुसलमानों को भरोसा है कि भारत में उनका भी दांव लगा है. हम कई वर्षों तक दावे करते रहे हैं कि अल-क़ायदा या दूसरे वैश्विक आतंकवादी संगठनों की ओर बहुत कम भारतीय मुसलमानों ने कदम बढ़ाया क्योंकि वे शांतिपूर्ण धर्मनिरपेक्ष परंपरा में पले-बढ़े हैं. (इसके विपरीत, कहीं ज्यादा अनुपात में पाकिस्तानियों ने वैश्विक आतंकवाद का रास्ता पकड़ा).

इसलिए, हिंदुओं ने मुसलमानों को धर्म-निरपेक्षता देकर कोई ‘एहसान’ नहीं किया. जिस नीति ने शासन और धर्म को अलग-अलग रखा उसके वैचारिक आधार को आप खारिज कर दें तब भी धर्मनिरपेक्षता शुद्ध व्यावहारिकता के नाते भी तर्कसम्मत लगती है.

इसने भारत को मजबूत और स्थिर बनाए रखा है और प्रगति के रास्ते पर चलने की गुंजाइश बनाई है.

मैं इस तरह की समानता का हवाला नहीं देना चाहता लेकिन हम जैसे जिन लोगों को पूरे देश में 1980 के दशक के सिख उग्रवाद की याद है वे समझते हैं कि हिंसक उग्रवादियों की छोटी-सी आबादी (सिखों की आबादी उस समय मात्र 2 फीसदी थी और उसका भी बहुत छोटा हिस्सा ही हिंसा में लिप्त था) भी भारत के दिल को चोट पहुंचा सकती है. जरा सोचिए कि तब क्या होगा जब देश की 14 फीसदी यह महसूस करने लगे कि भारत में उसका कोई दांव नहीं लगा है, या यह कि पूरी सिस्टम उसके खिलाफ सांप्रदायिक पूर्वाग्रह रखती है?  किसी-न-किसी स्तर पर भाजपा के कई नेता भी इसे समझते हैं.

इसलिए उनके ज़्यादातर नारे ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ को खत्म करने और देश में मुसलमानों की अवैध घुसपैठ पर रोक लगाने जैसी मांगों तक ही सीमित रहे हैं. जब उनके कदमों (मसलन, सीएए) ने व्यापक विरोध को जन्म दिया तो सरकार को अपना नजरिया सुधारना पड़ा. भारत में जो हालात हैं उनसे कोई भी मुसलमान खुश नहीं हो सकता. लेकिन उनमें से अधिकतर लोग यथासंभव शांति से अपने जीवनयापन में लगे हैं.


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भाजपाई कट्टरपंथियों पर लगाम कसें 

वैसे, पिछले कुछ महीनों में यह स्थिति बदल गई है. इस बदलाव के प्रवर्तक हैं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ. उनकी सरकार मुस्लिम प्रदर्शनकारियों के घरों को उचित प्रक्रिया की परवाह न करते हुए जिस तरह बुलडोजर से ढहा रही है वह भयावह है. इन खुल्लम खुल्ला गैरकानूनी कार्रवाइयों के खिलाफ हस्तक्षेप करने और रोक लगाने से अदालतों का हिचकना इससे भी ज्यादा डरावनी बात है.

ऐसा लगता है कि उनकी सरकार पुलिस हिरासत में मुसलमानों की पिटाई को अपने लिए गौरव की बात मानती है. प्रदर्शनकारियों को और कड़ी सज़ा (बुलडोजर चला दो, मुआवजा वसूलो, उनके राशन कार्ड जब्त कर लो, आदि) देने की बात योगी जिस तरह कर रहे हैं वह तानाशाही की ही याद दिलाती है. समस्या दंगाइयों को सज़ा देने से नहीं है (बेशक उन्हें दोषी पाए जाने पर ही सज़ा दी जाए) बल्कि समस्या मुसलमानों के मामले में उचित प्रक्रिया के खुले उल्लंघन से है.

भाजपा के प्रवक्ताओं और पार्टी के अर्ध-आधिकारिक ट्रोलों के सुर भी बदल गए हैं. पहले जब अयोध्या जैसे धार्मिक मसले पर बात होती थी तब शालीनता का झीना परदा बनाए रखा जाता था मगर अब तो नफरत का खुला प्रदर्शन किया जा रहा है. यह बात गौर करने वाली है कि भारत को जब तक अपनी विदेश नीति को लेकर दबाव महसूस नहीं हुआ तब तक भाजपा में किसी ने नूपुर शर्मा को या पैगंबर मुहम्मद के खिलाफ उनकी टिप्पणियों को खारिज करने के लिए कुछ नहीं किया. टीवी पर भी, सांप्रदायिक मसलों पर सरकार समर्थक मीडिया के फोकस में नयी ताकत आई, जबकि पहले यह गायब थी. और, संसद में अब भाजपा का एक भी मुस्लिम सांसद नहीं रह गया है; जिन राज्यों में उसकी सरकार है उनमें भी उसका एक भी मुस्लिम विधायक नहीं है. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था.

अब शायद कदम पीछे खींचे जाएंगे. किसी मुस्लिम को उप-राष्ट्रपति बनाने की चर्चा चल रही है. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भी मुसलमानों के बारे में दोस्ताना बयान दिए हैं. और सरकार भी नूपुर शर्मा के बयान पर दुनियाभर में मचे शोर से परेशान दिख रही है. इसलिए, वैचारिक दृष्टि से नहीं तो व्यावहारिक दृष्टि से ही सही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने पालतू कट्टरपंथियों पर लगाम कसना चाहिए. वे सब उनकी बात मानेंगे क्योंकि उनके लिए और कोई उपाय नहीं है. योगी आदित्यनाथ के दाहिने हाथ पर रसातल ही है.

मोदी उस देश पर राज करने की उम्मीद नहीं रख सकते जिसकी 14 फीसदी आबादी को उनकी पार्टी ने व्यवस्थित तरीके से अलग-थलग कर दिया है, मुसलमानों के मन में यह भाव जागा दिया है कि उन्हें निशाना बनाया जा रहा है, और उन्हें यह यकीन हो चला है कि इस देश में उनका कुछ भी दांव नहीं रह गया है. मोदी इतने स्मार्ट तो हैं ही कि वे खुद को ऐसे नेता के रूप में नहीं देखा जाना चाहेंगे जिसे विश्व मंच पर बाहरी माना जा रहा हो और जो एक खतरनाक रूप से विभाजित देश की कमान थामे हो. उन्हें धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करने या खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने की भी जरूरत नहीं है. उन्हें बस व्यवहार कुशल होने, और धर्म-निरपेक्षता के पीछे के तर्क को समझने की जरूरत है. क्योंकि यही तर्कसंगत है : यही एकमात्र रास्ता है जिस पर चलकर विविधताओं से भरा भारत जैसा देश आगे बढ़ सकता है; पूर्वाग्रह की बजाय प्रगति पर ज़ोर देकर.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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