scorecardresearch
Friday, 19 April, 2024
होममत-विमतराष्ट्र निर्माण की दिशा में अहम पड़ाव है मंडल कमीशन, लेकिन मुल्क में अभी न्याय पर आस्था भारी है

राष्ट्र निर्माण की दिशा में अहम पड़ाव है मंडल कमीशन, लेकिन मुल्क में अभी न्याय पर आस्था भारी है

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने छत्तीसगढ़ में पिछड़ों के लिए आरक्षण को दोगुना कर और मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी ऐसा ही करके बीजेपी की कमंडलवादी सियासत को टक्कर देने की कोशिश की है.

Text Size:

दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष व बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बी.पी. मंडल की मधेपुरा स्थित समाधि पर लिखा हुआ है, ‘समानता केवल समान लोगों के बीच होती है. असमान लोगों को समान स्तर पर रखने का मतलब है असमानता को बनाए रखना.’ यही मंडल कमीशन का शुरुआती वाक्य भी है. इसी दर्शन के साथ बीपी मंडल ने समाज में व्याप्त ग़ैरबराबरी से निपटने के लिए एक मुकम्मल दर्शन हमारे सामने रखा.

लेकिन अब हालात ऐसे हैं कि मुल्क में न्याय पर आस्था भारी है. कमंडलवादी उन्माद के ज़रिए देश के बहुजन समाज को गुमराह करने में सत्ताधारी दल सफल रहा है. अगर हम लोगों के वोटिंग पैटर्न को देखें, तो पहले चुनावी राजनीति में आरक्षण का सवाल अगर 100 अंक का मान रखता था, तो अब वह घटकर 55-60 पर आ गया है. यह कहीं-न-कहीं सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दल की ओर से अपने लक्षित जनसमूह को सचेत बनाने की प्रक्रिया में खामी या उदासीनता या फिर अपने कोर वोटर्स को अपनी जेब में मानने की भूल को दर्शाता है.

पिछड़ा-पसमांदा समाज प्रेमचंद की कहानी ‘पूस की रात’ का वह हल्कू है जो अपने ही हाथों लगाई गई फसल को नीलगाय को चरता हुआ छोड़ देता है, और झबरा के साथ सो जाता है. वहीं दूसरा पहलू यह भी है कि जो मेहनतकश समाज नैराश्य में अपनी पहचान – किसानी को मिटाते देर नहीं लगाता, उसे सरकार को उखाड़ फेंकने में कितना वक़्त लगेगा!


यह भी पढ़ेंः आरक्षण के बारे में वे 25 जातिवादी-अश्लील जोक्स, जो अब कोई नहीं कहेगा


खत्म नहीं हो रही है असामनता 

संविधान की प्रस्तावना में समानता एक प्रमुख लक्ष्य है. ‘सबका साथ, सबका विकास व सबका विश्वास’ का राग अलापने वाली केंद्र सरकार के 89 सचिवों में मात्र 3 आदिवासी व 1 दलित हैं, जबकि पिछड़ों की संख्या शून्य है. ये आंकड़ा बताता है कि राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में कुछ दोष रह गए हैं. ब्यूरोक्रेसी से लेकर एकेडमिया तक, न्यायपालिका से लेकर फोर्थ एस्टेट तक में सामाजिक प्रतिनिधित्व का बुरा हाल है. देश के 496 कुलपतियों में सिर्फ़ 6 दलित, 6 आदिवासी व 36 पिछड़े हैं. मीडिया में प्रतिनिधित्व का हाल जगजाहिर है. ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ के नाम पर उन तमाम पब्लिक सेक्टर्स को तबाह किया गया है, जहां आरक्षण की गुंज़ाइश थी. लंबे समय से जुडिशरी में रिज़र्वेशन की मांग लोग करते रहे हैं ताकि वहां सामाजिक विविधता दिख सके. लेकिन तमाम बयानों के बावजूद सरकार इस दिशा में कोई पहल नहीं कर पाई है.

आज कोई वचनपत्र बांट रहा है तो कोई संकल्प पत्र, मगर सही मायने में घोषणापत्र में जनता से किये वादे के प्रति बहुत कम लोग गंभीर नज़र आ रहे हैं. हां, मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने छत्तीसगढ़ में पिछड़ों के लिए आरक्षण दोगुना कर, और मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने भी ऐसा ही करके बीजेपी की कमंडलवादी सियासत को टक्कर देने की कोशिश की है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

1989 के आम चुनाव में जनता दल के घोषणापत्र में मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करना शामिल था. मगर जब उसके एक अंश को लागू किया गया तो सरकार को बाहर से समर्थन कर रही भाजपा के आडवाणी ने सोमनाथ से कमंडल रथ निकाल दिया. तब शरद यादव ने संसद में भाषण दिया था कि यह कोई राम का रथ नहींबल्कि बहुजन समाज के ख़िलाफ़ भाजपा का रथ है.

90 के दशक में पटना के गांधी मैदान में लालू प्रसाद ने कहा था, ‘चाहे धरती आसमान में लटक जाए या आसमान धरती पर गिर जाए, मगर मंडल कमीशन लागू होकर रहेगा’. 7 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने की थी. वीपी सिंह का कालजयी वक्तव्य जनमानस पर आज भी अंकित है- ‘अगले 10 साल उन कौमों के रहेंगे जिनको आज तक कुछ नहीं मिला, उससे अगले 10 साल उनके होंगे जिनको इन 10 सालों में भी कुछ नहीं मिलेगा और यह चलता रहेगा.’

कहां तक पहुंचा आरक्षण का सफ़र

संविधान के अनुच्छेद 340 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए एक आयोग बनाने का निर्देश है. उसी के तहत 29 जनवरी 1953 को प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग कांग्रेसी नेता काका कालेलकर की अध्यक्षता में गठित हुआ. कालेलकर ने अपनी रिपोर्ट 30 मार्च 1955 को केंद्र सरकार को सौंपी थी जिसमें 1961 की जनगणना जातिगत आधार पर कराने की बात अहम थी. पर रिपोर्ट बनाने वाले ने ही आख़िर में नोट लिखा कि इसे फिलहाल लागू नहीं किया जाए, इससे सामाजिक सद्भाव बिगड़ेगा. जाहिर है कि ये रिपोर्ट कभी लागू नहीं हो पाई.

उसके मुकाबले 392 पृष्ठ की मंडल कमीशन की रिपोर्ट देश को सामाजिक-आर्थिक विषमता से निपटने का एक तरह से मुकम्मल दर्शन देती है, जिसे बी.पी. मंडल ने आयोग के अन्य सदस्यों के साथ बड़ी लगन से तैयार किया था. 20 दिसंबर 1978 को मोरारजी देसाई ने अनुच्छेद 340 के तहत 6 सदस्यीय द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन की घोषणा सदन में की जिसके अध्यक्ष बीपी मंडल थे. आयोग ने 31 दिसंबर 1980 को गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह को रिपोर्ट सौंपी. 30 अप्रैल 1982 को इसे सदन के पटल पर रखा गया, जो लगभग 10 वर्ष तक फिर ठंडे बस्ते में रही. बीपी मंडल ने 3,743 जातियों को एक जमात के रूप में सामने लाया और उनकी संख्या 52% पाई गई.

मंडल कमीशन की एक अहम सिफ़ारिश – केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी के लिए 27% आरक्षण – को लागू करने के वीपी सिंह के साहस और दृष्टि, लालू प्रसाद के कौशल व शरद यादव की रणनीति को उपेक्षित समाज कभी भुला नहीं सकेगा. 13 अगस्त 90 को मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने की अधिसूचना जारी हुई. वामपंथी दलों के एक धड़े सीपीआई (एमएल) के विनोद मिश्रा ने इसे ‘मंदिर-मंडल फ्रेंज़ी’ कहकर मंडल और कमंडल दोनों को ही एक ही तराज़ू पर तौल दिया.

25 सितंबर 91 को नरसिम्हा राव सरकार ने सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान कर आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 59.5 प्रतिशत करने का निर्णय लिया, जिसमें ऊंची जातियों के ग़रीबों को भी आरक्षण देने का प्रावधान किया गया. 16 नवंबर 1992 को इंदिरा साहनी मामले में उच्चतम न्यायालय ने क्रीमीलेयर की बाधा के साथ आंशिक रूप से मंडल कमीशन की सिफ़ारिश को लागू करने का निर्णय सुनाया. साथ ही आर्थिक रूप से विपन्न अगड़ी जातियों के लिए 10% आरक्षण के नोटिफिकेशन को सिरे से खारिज़ किया और कहा कि इस मामले में सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन ही आधार है. साथ में यह भी कहा गया कि आरक्षण की सीमा 50 फ़ीसदी के पार नहीं जानी चाहिए. केंद्र सरकार ने सवर्ण गरीबों को आर्थिक आधार पर 10 परसेंट रिजर्वेशन देकर उस सीमा को तोड़ दिया है.


यह भी पढ़ेंः मधु लिमये: संसदीय राजनीति और समाजवाद का बड़ा पहरुआ


मंडल आयोग का प्रोजेक्ट अभी पूरा नहीं हुआ

सामाजिक बराबरी के लिए अभी और लम्बी और दुश्वार राहें तय करनी हैं. अफ़सोस कि मंडल आयोग को सिर्फ़ आरक्षण तक महदूद कर दिया गया, जबकि बी पी मंडल ने भूमि सुधार और कारीगरों के लिए अवसर देने जैसी 39 और सिफारिशें भी की थीं. इन पर अभी तक अमल नहीं हुआ है. स्वाधीनता के बाद भी संपत्ति का बंटवारा नहीं हुआ है. जो ग़रीब, उपेक्षित, वंचित थे, वो आज़ादी के बाद भी ग़रीब और शोषित ही रहे. उनकी ज़िंदगी में कोई आमूल-चूल बदलाव नहीं आया. अभी तो आरक्षण ठीक से लागू भी नहीं हुआ है और इसे समाप्त करने या समीक्षा करने की बात अभिजात्य वर्ग की तरफ से उठने लगी है.

एक चर्चा को भाजपा समर्थक और ब्राह्मणवादी लोग बड़े जोर शोर से उछाल रहे हैं कि पिछड़ों का हक़ पिछड़े ही मार रहे हैं. जबकि वास्तविक अनुभव उससे अलग है. लालू प्रसाद ने बिहार में अति पिछड़ों का आरक्षण बढ़ा कर 14 प्रतिशत किया था, जबकि राबड़ी देवी ने झारखंड बनने के बाद उसे 14 फीसदी से बढ़ा कर 18 फीसदी कर दिया था. तेजस्वी यादव ने अपने माता-पिता के पदचिह्नों पर चलते हुए सरकार में आने पर अति पिछड़ों का आरक्षण बढ़ा कर 40 फीसदी करने की बात कही है. समस्या यह है कि संसद में आम राय व तत्कालीन पीएम के आश्वासन के बावजूद जाति जनगणना में रोड़े अटकाए गए. देश की जनता के 4800 करोड़ रुपये भी खर्च हुए और उनके साथ छलावा भी हुआ. कास्ट सेंसस नहीं कराने के पीछे के डर और साज़िश को समझने की जरूरत है.

दूसरी तरफ आरक्षण ख़त्म करने की दिशा में पहला क़दम सरकार उठा चुकी है. लैटरल एंट्री के जरिए संयुक्त सचिव स्तर के 9 अधिकारियों को बिना परीक्षा लिए सीधी भर्ती दी गई है और इसमें आरक्षण का पालन नहीं हुआ है. ये आरक्षण को कमजोर करने का रास्ता बन जाएगा.

इस समय चुनौती आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों को बचाने के साथ ही इस पर हो रहे वैचारिक हमलों का मुकम्मल तार्किक जवाब देने की है और ये बताने की है कि आरक्षण राष्ट्र निर्माण का कार्यक्रम है जिसके जरिए संविधान निर्माता वंचित जातियों को राष्ट्र निर्माण में हिस्सेदार बनाना चाहते थे.

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से मीडिया रिसर्च में पीएचडी कर रहे हैं. इसमें लेखक के विचार निजी हैं.)

share & View comments