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Thursday, 28 March, 2024
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प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए राज्यों को भारतीय सेना को बुलाना क्यों बंद कर देना चाहिए, यह दंगा पुलिस नहीं

जब नागरिकता संशोधन कानून को लेकर पिछले सप्ताह असम में हिंसा भड़की, तो भारतीय सेना को तुरंत तैनात कर दिया गया, जिस पर डीजीपी ने कहा कि यह सिर्फ 'दिखावे के लिए' था.

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कानून व्यवस्था के खराब होने या किसी प्रकार की गड़बड़ी की दशा में भारतीय सेना पहले अंतिम उपाय होती थी लेकिन अब वो प्रशासन की पहली पसंद बनती जा रही है.

जब नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ पिछले हफ्ते असम में हिंसा हुई तो स्थानीय प्रशासन द्वारा सेना की कई टुकड़ियों को कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए लगा दिया गया.

सेना ने वहां जाकर कई फ्लैग मार्च निकालें और स्थिति को कई हद तक सामान्य करने में मदद की.

असम के डीजीपी भास्कर मोहंता ने दिप्रिंट को बताया था कि सेना की तैनाती तो केवल मात्र एक दिखाने के लिए है. ये तो यहां की पुलिस है जिसने स्थिति को सामान्य बनाया है.

यही है जो असल में दिक्कतें हैं.

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पिछले कुछ सालों में देशभर के स्थानीय प्रशासक फोन उठाकर सेना को बुला लेते हैं. कानून व्यवस्था से लेकर फुट-ओवर ब्रिज़ बनाने तक और यमुना पर होने वाले प्राइवेट इवेंट के लिए ब्रिज़ बनाने तक, सेना वो सब काम कर रही है जो उसके काम के क्षेत्र के बाहर होने चाहिए.

सेना पर भरोसा है कि वो काम करेगी

हालांकि, मुश्किल परिदृश्यों से निपटने के लिए भारतीय सेना पर भरोसा करने के लिए प्रशासन को दोष नहीं दिया जा सकता है. मुसीबत के किसी भी स्थान पर इसकी उपस्थिति हिंसा में लिप्त लोगों के लिए एक निवारक के रूप में काम करती है.


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यहां तक की जो पत्रकार रक्षा क्षेत्र को कवर करते हैं वो भी भारतीय सेना के जवानों से बहस नहीं कर सकते, अगर वो उन्हें कहीं रोकते हैं तो. कोई भी तर्क या प्रभाव काम नहीं करेगा, जवान अपने तात्कालिक श्रेष्ठ के आदेश का पालन करेगा चाहे वह कोई भी हो.

यहां तक ​​कि एक अन्य इकाई के एक वरिष्ठ अधिकारी सिर्फ कॉल नहीं कर सकते हैं, एक आदेश जारी कर सकते हैं, और इसका पालन करने की उम्मीद कर सकते हैं क्योंकि जवान केवल अपने तत्काल श्रेष्ठ को सुनेंगे.

सेना को उसके उद्देश्य से दूर खींचना

लेकिन भारतीय सेना को लगातार सड़कों पर तैनात करने से दिक्कत आ रही है क्योंकि सेना का मुख्य काम भारत की सीमाओं की सुरक्षा करना है. सेना को युद्ध के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है और इनकी कानून व्यवस्था के मुद्दे के लिए तैनाती बेहद हीं मुश्किल और खराब समय में की जाती है.

यह बहुत दुखद होगा अगर सेना, जिसे गोली चलाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, को राजनीतिक खेल या फैसले से उत्पन्न मामलों पर नागरिकों के खिलाफ कार्रवाई करनी होगी.

जहां तक है कि सेना अपना चरित्र अराजनीतिक रखती हैं लेकिन हर बार कानून व्यवस्था के लिए उनकी तैनाती कर देना उन्हें राजनीतिक स्थिति में लाकर खड़ा कर देगी जिससे सेना के ध्रवीकरण की संभावना जन्म ले सकती है.

विगत कुछ सालों में भारत की सरकारों ने आंतरिक सुरक्षा के मुद्दों को लेकर केंद्रीय सुरक्षा पुलिस बलों का गठन किया जिसकी कुल संख्या भारतीय सेना के कुल जवानों की संख्या से ज्यादा है.

इन बलों के पास कानून व्यवस्था को ठीक करने के लिए बेहतर हथियार और प्रशिक्षण दिया जाता है. इसलिए ये महत्वपूर्ण है कि खराब स्थिति के दौरान उनका इस्तेमाल करें न कि सेना का.

हरियाणा में 2016 के जाट कोटा आंदोलन के दौरान यह स्पष्ट हुआ जब कर्मियों ने खुद को सेना का सदस्य घोषित करते हुए बैनर लगाए. वे आगजनी और हिंसक प्रदर्शनकारियों के खिलाफ आग नहीं लगा सकते थे क्योंकि अशांत क्षेत्र अधिनियम, जो नागरिक क्षेत्रों में संचालन के लिए तैनात होने पर सेना को सुरक्षा देता है, को लागू नहीं किया गया था.

अक्षमता और उसे स्वीकार करना

सेना के जवानों की लगातार तैनाती प्रशासन के मुंह पर एक तमाचा है. सेना की मदद लेना एक तरह से स्वयं ये मान लेना है कि स्थानीय प्रशासन और पुलिस अपना काम करने में असफल हो रही है.

इसका मतलब है कि आंतरिक सुरक्षा तंत्र काफी कमज़ोर है और लोगों व्यवस्था पर से अपना भरोसा खो रहे हैं और उनका इसके प्रति अब कोई सम्मान नहीं रह गया है.


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अगर प्रशासन सड़कों पर हो रहे प्रदर्शनों को नियंत्रण में नहीं कर पा रही है जैसा कि असम में देखा गया तो उन्हें इस्तीफा देकर घर पर बैठ जाना चाहिए.

तथ्य यह है कि सेना को इतनी जल्दी बुलाया गया और वरिष्ठ अधिकारियों को नई दिल्ली से गुवाहाटी लाया गया, जो असम में नागरिक प्रशासन के खराब स्थिति में होने की गवाह है.

आंतरिक सुरक्षा और पुलिस बल गृह मंत्रालय के अंतर्गत आती है. हर कोशिश ये होनी चाहिए कि सेना अपने बैरक में रहे और उन्हें सड़कों पर नियंत्रण न करना पड़ें.

सेना की खुद की भी गलती

जब प्रशासन कानून व्यवस्था को संभाल पाने में अक्षम होता है. ऐसी हीं एक घटना है जब बच्चा बोरवेल में गिरता है तो एक ट्रेंड बन गया है कि उसे बचाने के लिए सेना की तैनाती की जाती है.

जबकि इस बात से खुश हो सकते हैं कि सेना बच्चे के जीवन को बचाने के लिए वह सब कुछ कर सकती है, जो उसके पास सबसे अधिक परिदृश्यों में है, यह इस बात का भी प्रमाण है कि नागरिक प्रशासन कई घटनाओं के बाद भी प्रभावी प्रतिक्रिया तंत्र स्थापित करने में विफल रहा है.

यह काफी दयनीय स्थिति है कि एक बच्चे के जीवन को बचाने के लए भी सेना को बुलाया जाता है.

इसके अलावा, सेना को निजी कार्यक्रमों के लिए पुलों के निर्माण जैसी विविध गतिविधियों के लिए तैनात किया जा रहा है- जैसे कि 2016 में श्री श्री रविशंकर द्वारा आयोजित- या मुंबई में फुट-ओवर ब्रिज का निर्माण हो.

सेना को ऐसे निर्माण करने में महारत हासिल हैं लेकिन कई सारे सिविल एजेंसी भी है जो ये काम करते हैं.


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भारतीय सेना को भी इसमें दोष दे सकते हैं क्योंकि उसे इस तरह से शोषण करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए.

वर्दी वाले कुछ लोगों का तर्क है कि अंत में सेना का मतलब देश से है और इस तरह के तर्कों का कोई आधार नहीं है क्योंकि वो अपने दिल में जानते हैं कि सेना भी आखिरकार सरकार की हीं सुनती है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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